फरवरी 2019 में पुलवामा कांड से लेकर उसी साल अगस्त में अनुच्छेद 370 की वापसी ने भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को जिस ढलान पर उतार दिया था, वहाँ से पहिया उल्टी दिशा में घूमने लगा है। गत 26 फरवरी को दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी रोकने के सन 2003 के समझौते को पुख्ता तरीके से लागू करने की घोषणा की थी। पता लगा कि तीन महीनों से दोनों देशों के बीच बैक-चैनल बात चल रही है।
पाकिस्तान ने बुधवार को भारत के साथ आंशिक-व्यापार फिर से शुरू
करने की घोषणा करके इस उम्मीद को बल दिया था कि रिश्ते सुधरेंगे। उसके अगले ही दिन
वहाँ की कैबिनेट ने इस फैसले
को बदल दिया और कहा कि जब तक 370 की वापसी नहीं होगी, तब तक भारत के साथ
व्यापार नहीं होगा। इसके पहले इमरान खान और
उनके सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने कहा था कि रिश्तों में सुधार होना
चाहिए। इन बयानों के बाद नरेंद्र मोदी और इमरान खान के बीच एक रस्मी पत्राचार हुआ,
जिसके बड़े डिप्लोमैटिक निहितार्थ दिखाई पड़ रहे हैं।
पीछे की कहानी
दोनों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव बहुत तेजी से आता है, इसलिए इन संदेशों की शब्दावली में बहुत ज्यादा पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अलबत्ता पीछे की पटकथा और वैश्विक परिस्थितियों को पढ़ने की जरूरत है। नई बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार और सेना ‘एक पेज’ पर हैं। पाकिस्तान एक ‘कठोर सत्य’ से रूबरू है। फैसला उसे करना है। अतीत की भारत-पाकिस्तान वार्ताओं में ‘कांफिडेंस बिल्डिंग मैजर्स (सीबीएम)’ का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है। इस सीबीएम का रास्ता आर्थिक है। दोनों के आर्थिक-सहयोग की जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं, पर पाकिस्तान का ‘कश्मीर कॉज़’ आड़े आता है।
अगस्त, 2019 में भारत ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की
वापसी करके इस कहानी का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा था। जवाब में पाकिस्तान ने
कारोबारी रिश्ते तोड़े, राजनयिक रिश्तों को डाउनग्रेड किया और कहा, हम किसी भी हद
तक जा सकते हैं। किस हद तक जाएंगे? उसे इन
तीनों ‘हठों’ को
त्यागना होगा। भारत 370 के फैसले को नहीं बदलेगा।
अफगानिस्तान की शांति-प्रक्रिया से भी इस घटनाक्रम का नाता
है। दुशान्बे में हुए हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ‘डबल पीस’ शब्द से इसे स्पष्ट किया
है। यानी शांति-स्थापना, अफगानिस्तान में ही नहीं, पूरे इलाके में चाहिए। ऐसा कैसे
होगा और कौन इसे सम्भव कराएगा?
कठोर सत्य
गत 17 मार्च को इमरान खान ने पाकिस्तान के थिंकटैंक नेशनल
सिक्योरिटी डिवीजन के ‘इस्लामाबाद
सिक्योरिटी डायलॉग’ का उद्घाटन करते हुए कहा, हम भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। बाद में इसी
कार्यक्रम में जनरल ने ‘बीती बातों को भुलाने’ की सलाह दी थी। बाजवा ने रस्मी तौर पर कश्मीर का
जिक्र जरूर किया, पर 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति बहाल करने और सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का जिक्र
नहीं किया।
अनुमान लगा सकते हैं कि बाजवा को
पूर्व में मजबूत भारत नजर आता है और पश्चिम में बदलता अफगानिस्तान और जटिल ईरान, उत्तर में ताकतवर होता चीन और अमेरिका जो उसका साथ छोड़ रहा
है। अतीत में पाकिस्तान को अपनी ‘भू-राजनीतिक’ स्थिति
को लेकर अभिमान था, पर बाजवा ने ‘भू-अर्थनीति’ का हवाला दिया है। सुरक्षा-तंत्र कमजोर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था
के सहारे नहीं चलेगा।
इससे पहले आसिफ अली ज़रदारी और
नवाज शरीफ भारत के साथ रिश्तों को कारोबारी कारणों से बेहतर बनाने के पक्ष में थे।
उन्हें ‘देशद्रोही’ की संज्ञा मिली थी। दूसरी तरफ पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट अशरफ
जहाँगीर क़ाज़ी के तर्क देखें। ‘डॉन’
में प्रकाशित लेख में क़ाज़ी ने कहा, बातचीत की बुनियादी
शर्त होनी चाहिए कि भारत अगस्त, 2019 में कश्मीर से 370 की वापसी के फैसले को वापस
ले। यानी कि अनंत काल तक लड़ेंगे। वे जानते हैं कि भारत अपने कदम वापस नहीं लेगा।
कुछ गलतफहमियाँ
यह केवल क़ाज़ी की निजी राय नहीं है। पाकिस्तान के एक तबके
का यह विचार है। उनकी धारणा है कि मोदी अकेले पड़ गए हैं। कश्मीर में कार्रवाई के
कारण पश्चिमी देशों में भारत की छवि खराब हुई है। मोदी उसे सुधारना चाहते हैं। पाकिस्तानी
डिप्लोमेसी और भारत-विरोधी तत्वों की सक्रियता से भारत की छवि को नकारात्मक बनाने
की कोशिशें जरूर हुईं हैं, पर वे इतनी असरदार नहीं हैं कि भारतीय विदेश-नीति को
प्रभावित करें। ऐसा था, तो क्वाड में भारत क्यों है? कुछ दिनों में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत
आएंगे। आप देख लीजिएगा।
वस्तुतः पाकिस्तान के पास कोई विकल्प नहीं है। कश्मीर का ‘हठ’ त्यागे बगैर बात सम्भव नहीं। घाटी में
जन-जीवन को सामान्य बनाने में पाकिस्तान की भूमिका है। उसे आतंकी-कैम्प गिराने
होंगे और घुसपैठ पर रोक लगानी होगी। बेशक कश्मीर की घुट्टी पीकर बड़ी हुई
पाकिस्तानी राजनीति इसे मंजूर नहीं करेगी। फिलहाल यह असम्भव शर्त है, पर उनके पास
विकल्प क्या है?
पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था रसातल में है। उसकी 280 अरब डॉलर
की जीडीपी के मुकाबले भारत की दस गुना बड़ी 2.8 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था है। बांग्लादेश
की 320 अरब डॉलर की जीडीपी भी पाकिस्तान से ज्यादा है। यह अंतर लगातार बढ़ेगा। नब्बे
के दशक में अफगानिस्तान और कश्मीर में हिंसक गतिविधियों को पाकिस्तान के जेहादी तबके
ने विजय मान लिया था। उन्हें यह नजरिया बदलना होगा।
अमेरिका की भूमिका
पाकिस्तानी तार चीन से जुड़े हैं, पर डोरियाँ अमेरिकी हाथों
में भी हैं। अर्थव्यवस्था डांवांडोल है। ऊपर से एफएटीएफ की तलवार लटकी है। चीन उसे
काली सूची में जाने से बचा सकता है, पर ग्रे लिस्ट से बाहर नहीं निकाल सकता। उसे
अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन ही बचा सकते हैं। जब तक अमेरिका-चीन के रिश्तों में
गर्मजोशी थी, पाकिस्तान के लिए हालात आसान थे। पर अब कहानी बदल रही है।
पाकिस्तानी बदहाली रोकने के सूत्र भी भारत के साथ सहयोग में
छिपे हैं। दक्षिण एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर
निर्भर करता है। सन 2014 में काठमांडू के बाद सार्क देशों का शिखर सम्मेलन नहीं
हुआ है। इन देशों की कनेक्टिविटी को पाकिस्तान ने पैरों से दबा रखा है। आर्थिक
सहयोग को पटरी पर लाने की तमाम योजनाएं तैयार हैं। उन्हें लागू होने में देर नहीं
लगेगी।
बाजवा ने कहा है कि अमेरिका को सी-पैक के चश्मे से पाकिस्तान
को नहीं देखना चाहिए। यह सफाई है कि हम चीन-परस्त नहीं हैं। दो नावों की सवारी सम्भव
नहीं। पाकिस्तान इस दौरान सऊदी अरब और खाड़ी के देशों की बदलती भूमिका को भी ठीक
से पढ़ नहीं पाया। इन देशों ने इजरायल से रिश्तों को सुधारा है। भारत-पाकिस्तान
रिश्तों को सामान्य बनाने में भी खाड़ी के देशों की भूमिका है।
नया भारत
अमेरिका की दिलचस्पी चीन पर काबू पाने में है। चीन से सामना
करने की सामर्थ्य एशिया में भारत के अलावा किसी दूसरे देश में नहीं है। भारत की
भूमिका अफगानिस्तान में भी है। पाकिस्तान महत्वपूर्ण है, पर विश्वसनीय नहीं। चीन
ने अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी है। पर वैश्विक व्यवस्था अभी अमेरिकी गिरफ्त में
है। उसे भारत की जरूरत है। भारत-पाकिस्तान रिश्ते एक हद तक सामान्य हो जाएं, तो इस
इलाके में आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ाया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सन 1957 के बाद कश्मीर पर
कोई विचार नहीं हुआ। सन 1971 के युद्ध
के बाद एकबार कश्मीर का जिक्र हुआ, पर 1972 में
शिमला समझौता होने के बाद कई साल तक पाकिस्तान ने चुप्पी रखी। नब्बे के दशक में
पाकिस्तान ने अफ़ग़ान-जेहाद की आड़ में कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा दिया और संरा
महासभा में कश्मीर का जिक्र फिर से करना शुरू कर दिया। सन 1998 में दोनों देशों
ने एटमी धमाके किए, लाहौर
यात्रा, करगिल, विमान का अपहरण, संसद पर हमला और
फिर आगरा शिखर सम्मेलन हुआ।
घूम-फिरकर 2003 में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता हुआ, जिसने माहौल को बदला।
यह स्थिति 2008 तक रही। पर 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई हमले के बाद स्थिति फिर बदल
गई। उसके पहले लग रहा था कि दोनों देशों ने शांति-फॉर्मूला बना लिया है, जिसे ‘मुशर्रफ-मनमोहन फॉर्मूला’
कहा गया। नए फॉर्मूले भी बन जाएंगे, पर पाकिस्तान को तय करना है कि उसे क्या चाहिए।
फिलहाल वहाँ की सरकार ने 370 की वापसी का पेच डाल दिया है। कहानी वहीं वापस आ रही
है, जहाँ से शुरू हुई थी।
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