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Sunday, February 28, 2021

डिजिटल मीडिया पर नकेल


सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म हमेशा निरंकुश-निर्द्वंद नहीं रह सकते थे। जिस तरह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में प्रिंट मीडिया के नियमन ने शक्ल ली, उसी तरह नब्बे के दशक में आकाश मीडिया के नियमन की शुरुआत हुई। पहले उसने केबल के रास्ते आकाश मार्ग से प्रवेश किया, फिर उसका नियमन हुआ, उसी तरह नए डिजिटल माध्यमों के विनियमन की जरूरत होगी। इनकी अंतर्विरोधी भूमिका पर भारत में ही नहीं दुनियाभर में चर्चा है। अमेरिका, ब्रिटेन, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ओटीटी प्लेटफॉर्मों की सामग्री का नियमन होता है और उल्लंघन होने पर सजा देने की व्यवस्था भी है। पर इस विनियमन को युक्तिसंगत भी होना चाहिए। इस मामले में विवेकशीलता नहीं बरती गई, तो लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति का गला घुट सकता है।

पिछले गुरुवार को सरकार ने जो सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 जारी किए हैं, उन्हें आना ही था। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को इस आशय के निर्देश दिए थे और हालात खुद कह रहे हैं कि कुछ करना चाहिए। हाल में अमेरिकी संसद और लालकिले पर हुए हमलों से इसकी जरूरत और पुख्ता हुई है।

मर्यादा रेखाएं

इंटरनेट और डिजिटल मीडिया ने सामाजिक-शक्तियों और राजशक्ति के बीच भी मर्यादा रेखा खींचने जरूरत को रेखांकित किया है। सामान्यतः माना जाता है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी राज्य की है। पर जैसे-जैसे तकनीक का दायरा हमें राज्य की राजनीतिक सीमाओं से भौगोलिक रूप से बाहर ले जा रहा है, नए सवाल उठ रहे हैं। नियामक संस्थाओं की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर तक होती है, पर भविष्य में अंतरराष्ट्रीय नियमन की जरूरत भी होगी।

बेशक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों ने नागरिकों के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, पर इनका दुरुपयोग भी होता है। सामुदायिक विद्वेष बनाने और बढ़ाने दोनों कार्यों में सोशल मीडिया की भूमिका है। दूसरी तरफ इसकी नकारात्मक भूमिका को रोकने के सारे औजार राज्य के हाथों में सौंपने के खतरे हैं। पर उनका बड़ी तकनीकी कम्पनियों के हाथ में रहना भी खतरनाक है। अंततः यह सामाजिक विकास से जुड़ा मसला है।

यकीनन किसी समय पर जाकर समाज आत्म-नियमन के साँचे और ढाँचे को आत्मार्पित करने की स्थिति में जरूर होगा, पर आज की स्थिति में सामाजिक व्यवस्था राष्ट्र-राज्य के मार्फत ही संचालित हो रही है। इससे जुड़े नियम बनाने की जिम्मेदारी राज्य की है, जो प्रकारांतर से सरकार है। सन 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने एयरवेव्स की स्वतंत्रता और उसके नियमन से जुड़े फैसले में यह जिम्मेदारी सरकार को सौंपी थी।

बढ़ते खतरे

नागरिक के जानकारी पाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों को पंख लगाने वाली तकनीक ने उसकी उड़ान को अंतरराष्ट्रीय जरूर बना दिया है, पर उसकी आड़ में बहुत से खतरे राष्ट्रीय सीमाओं में प्रवेश कर रहे हैं। सोचना उनके बारे में भी होगा। ‘फेक-न्यूज’ ने सूचना और जानकारी की परिभाषा को बदल दिया है। बड़ी टेक-कंपनियाँ नागरिकों और राज्य-व्यवस्था के बीच आ गई हैं। जानकारी पाने, विचार व्यक्त करने और लोकतंत्र में नागरिक की भागीदारी के अधिकारों पर इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ेगा।

इस टेक्नो-लोकतंत्र के दो पहलू हैं। एक, सोशल मीडिया और दूसरे ओटीटी प्लेटफॉर्म। दोनों ने आम आदमी को मज़बूत किया है, लेकिन उनके गैर-जिम्मेदाराना इस्तेमाल की शिकायतें भी हैं। नए नियमों के तीन उद्देश्य हैं। एक, शिकायत निवारण प्रणाली की स्थापना। प्लेटफॉर्मों को इस काम के लिए अधिकारी नियुक्त करने होंगे, जो एक समयावधि में शिकायत का निवारण करेंगे। इसी तरह सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्मों की पारदर्शिता तथा जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए के लिए अनुपालन अधिकारियों की नियुक्ति करनी होगी। तीसरे, यह व्यवस्था प्रिंट और टीवी मीडिया के लिए पहले से बने नियमों के अनुरूप हो।

हैंडल की पहचान

नए नियम कहते हैं कि किसी भी सूचना को सबसे पहले सोशल मीडिया में लाने वाले की पहचान करने की जिम्मेदारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की है। यह सुनिश्चित करने के लिए सोशल मीडिया पर फर्जी अकाउंट न बनाए जाए, कंपनियों से अपेक्षा होगी कि वे वैरीफिकेशन प्रक्रिया को अनिवार्य बनाएं। कोई पोस्ट किसने किया है, इसकी जानकारी कोर्ट के आदेश या सरकार के पूछने पर देनी होगी। भारत के बाहर से हुआ तो भारत में किसने शुरू किया। कंपनियाँ कहती हैं कि ऐसा करने के लिए एनक्रिप्शन के सुरक्षा-चक्र को तोड़ना होगा, जिससे प्राइवेसी भंग होगी। इसपर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा, हम एनक्रिप्शन तोड़ने के लिए नहीं कह रहे हैं, बस यह पूछ रहे हैं कि इसे शुरू किसने किया।

बहुत से हैंडल अपनी पहचान नहीं बताते। लोकतंत्र में गुमनामी भी अपनी बात को कहने का एक औजार है, पर गुमनामी के खतरे भी हैं। सामाजिक-सुरक्षा के लिए गुमनामी खतरनाक भी हो सकती है। और पहचान बताने की अनिवार्यता व्यक्ति की निजता का उल्लंघन करती है।

आत्म-नियमन

ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) कंटेंट की सेंसरशिप का विचार नहीं है, लेकिन कंटेंट पर प्लेटफॉर्म्स को आत्म-नियमन करना होगा। सूचना मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को तीन स्तर की नियमन प्रक्रिया तय करनी होगी- पहले सेल्फ रेग्यूलेट करना होगा। दूसरे स्तर पर सेल्फ रेग्युलेटरी बॉडी कंटेंट का नियमन करेगी। शिकायतें सुनने के लिए एक संस्था बनानी होगी, जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के रिटायर जज करेंगे। तीसरे स्तर पर ओवर साइट मिकैनिज्म होगा। उन्हें अपनी सामग्री का दर्शक की उम्र के हिसाब से पाँच श्रेणियों में वर्गीकरण करना होगा। इन प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल मीडिया के लिए रजिस्ट्रेशन ज़रूरी नहीं है, लेकिन अपनी सारी जानकारी सार्वजनिक करनी होंगी।

सरकार चाहती है कि मीडिया आत्म-नियमन करे। यह आत्म-नियमन प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पहले से कर रहा है। डिजिटल तकनीक के विस्तार को देखते हुए उसमें अनुपालन और मध्यस्थ अधिकारियों की भूमिका बढ़ेगी, जिससे जटिलताएं भी बढ़ेंगी। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति और सूचना की स्वतंत्रता के अधिकार एबसल्यूट नहीं हैं। अनुच्छेद 19 (2) के तहत उनपर युक्तियुक्त बंदिशें हैं। सवाल है कि बंदिशों का नियमन कौन करेगा? सरकार या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म?

नियमन का दायरा

हाल में देश कुछ ट्विटर हैंडलों को लेकर यह सवाल खड़ा हुआ था। सरकार का कहना था कि कुछ हैंडल मर्यादा रेखा पार कर रहे हैं। ट्विटर ने शुरू में सरकार की बात नहीं मानी, पर दबाव पड़ने पर मानीं। इन नियमनों के समय को देखते हुए लगता है कि इसका ट्रिगर पॉइंट यही है, पर नियमन केवल सोशल मीडिया को लेकर ही नहीं हैं। अमेज़न प्राइम, हॉट स्टार, सोनी लाइव, नेटफ्लिक्स और एमएक्स प्लेयर वगैरह की सीरीज़ को लेकर शिकायतें हैं। ये शिकायतें अश्लीलता, हिंसा और सामुदायिक भावनाओं वगैरह को लेकर हैं।

मनोरंजन ओटीटी मीडिया का केवल एक पहलू है। इसका दायरा बहुत बड़ा है। हाल के वर्षों में यूट्यूब पर चैनलों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है, जिसके कारण खान-पान, व्यंजन, गीत-संगीत और घुमक्कड़ी जैसे विषयों के शौकीनों के चैनलों की बाढ़ आई है, वहीं खबरों और खबरों की पृष्ठभूमि पर चर्चा करने वाले चैनलों बड़ी संख्या में खड़े हुए हैं।

इससे युवा मीडियाकर्मियों को अपनी बात कहने के मौके मिले और विचार-अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच भले ही मीडिया का लेन-देन नहीं है, पर यूट्यूब ने इस कमी को भी पूरा कर दिया है। यह सब अच्छा है। इसे बने रहना चाहिए।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

 

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