टूलकिट मामले में गिरफ्तार दिशा रवि को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने मंगलवार को जमानत पर रिहा कर दिया। कोर्ट ने पुलिस की कहानी और दावों को खारिज करते हुए कहा कि पुलिस के कमजोर सबूतों के चलते एक 22 साल की लड़की जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है,उसे जेल में रखने का कोई मतलब नहीं है। दिशा को 23 फरवरी तक न्यायिक हिरासत में लिया गया था और मंगलवार को उसके ख़त्म होने पर उन्हें मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट पंकज शर्मा के सामने पेश किया गया था और पुलिस ने चार दिन की कस्टडी की मांग की थी।
पुलिस को हिरासत
नहीं मिली क्योंकि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने दिशा को एक लाख
रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही राशि के दो जमानत बॉण्ड भरने की शर्त पर जमानत दे
दी थी। अतिरिक्त
सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में नागरिक
सरकार की अंतरात्मा के संरक्षक होते हैं। उन्हें केवल इसलिए जेल नहीं भेजा जा सकता
क्योंकि वे सरकार की नीतियों से असहमत हैं। देशद्रोह के क़ानून का ऐसा इस्तेमाल नहीं हो
सकता।
बहरहाल यह मामला खत्म नहीं हुआ है। अभी इस मामले में जाँच चलेगी। पुलिस को अब साक्ष्य लाने होंगे। अठारह पृष्ठ के एक आदेश में, न्यायाधीश राणा ने पुलिस द्वारा पेश किए गए सबूतों को ‘अल्प और अधूरा’ बताते हुए कुछ कड़ी टिप्पणियां कीं। बेंगलुरु की रहने वाली दिशा को अदालत के आदेश के कुछ ही घंटों बाद मंगलवार रात तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। कोर्ट ने कहा कि हमें कोई कारण नजर नहीं आता कि 22 साल की लड़की को जेल में रखा जाए, जबकि उसका कोई आपराधिक इतिहास भी नहीं है। वॉट्सऐप ग्रुप बनाना, टूल किट एडिट करना अपने आप में अपराध नहीं है। महज वॉट्सऐप चैट डिलीट करने से दिशा रवि और ‘पोयटिक जस्टिस फाउंडेशन’ (पीजेएफ) के खालिस्तान समर्थक कार्यकर्ताओं के बीच प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करने के लिए कोई सबूत नहीं है।
टूलकिट या उसके हाइपर
लिंक में देशद्रोह जैसी कोई सामग्री नहीं। सरकार से किसी बात कर सहमत न होने पर
किसी को देशद्रोह के आरोप में जेल में नहीं डाला जा सकता। लोकतांत्रिक देश में
अपनी बात रखने का हर किसी को मौलिक अधिकार है। असंतोष का अधिकार दृढ़ता में निहित
है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश
का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास
कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक
अधिकार है। यह बात समझ से बाहर है कि प्रार्थी ने अलगाववादी तत्वों को वैश्विक
प्लेटफॉर्म कैसे दिया।
इस दौरान
न्यायाधीश ने ऋग्वेद को उद्धृत करते हुए कहा, ‘सभी दिशाओं से मेरे पास अच्छे विचार आए। हमारी 5000 साल पुरानी सभ्यता कभी भी विभिन्न विचारों
से विमुख नहीं रही है।’ कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में साज़िश साबित करना
आसान नहीं। आदेश में यह भी कहा गया है कि टूल किट से हिंसा को लेकर कोई कॉल की बात
साबित नहीं होती।
अदालत ने दिशा पर कई शर्तें
लगाई हैं, जिसके अनुसार,
वह जांच में सहयोग करना जारी रखेगी और
जांच अधिकारी द्वारा समन जारी किए जाने पर जांच में शामिल होगी। वह अदालत की
अनुमति के बिना देश नहीं छोड़ेंगी। वह संबंधित अदालत के समक्ष कार्यवाही के
प्रत्येक चरण में उपस्थित होंगी ताकि मामले की प्रक्रिया में कोई रुकावट या देरी न
हो।
अदालत ने कहा, ‘केवल किसी संदिग्ध व्यक्ति
के साथ सम्पर्क रखना मात्र अपराध नहीं है।’ इस प्रकार अदालत ने किसी ‘बड़ी साजिश’ को लेकर राज्य की
कार्यवाही के दायरे
का विस्तार कर दिया है। यह एक महत्वपूर्ण फैसला इस लिहाज से है, क्योंकि हाल
के वर्षों में विरोध प्रदर्शनों और फसाद के आरोप में गिरफ्तार व्यक्तियों पर भी
देशद्रोह के आरोप लग रहे हैं। अदालत ने कहा कि संदिग्ध पहचान वाले व्यक्तियों का सामाजिक
कार्यों से जुड़े व्यक्ति से सम्पर्क होना सम्भव है। यह सम्पर्क अनजाने या
मासूमियत के साथ या फिर जानबूझकर भी है, पर कानूनी दायरे के भीतर है, तो उसे इस
रूप में नहीं लिया जा सकता।
अदालत का यह दृष्टिकोण दिल्ली पुलिस की इस दलील के बाद सामने आया कि प्रार्थी/अभियुक्त और 26 जनवरी की हिंसा के बीच कोई
सीधा लिंक नहीं स्थापित किया जा सकता। हाँ परिस्थितियों को देखते हुए लगता है कि
अलगाववादी ताकतें किसानों के आंदोलन की
आड़ में हिंसा फैलाने की ‘बड़ी साजिश’ कर रही हैं।
दिशा रवि पर
भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक साजिश) के साथ 124ए (देशद्रोह) और 153ए
(धार्मिक, जातीय, जन्मस्थान, निवास स्थान, भाषा वगैरह के आधार पर विभिन्न समूहों
के बीच शत्रुता बढ़ाने) के तहत आरोप लगाए गए हैं। आपराधिक साजिश और देशद्रोह के
आरोपों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के उदाहरणों का सावधानी से पालन करते हुए न्यायाधीश
राणा ने निष्कर्ष निकाला कि दिल्ली पुलिस साक्ष्य पेश करने में विफल रही है।
अदालत ने यह भी
कहा कि केवल निष्कर्षों के आधार पर आरोप सिद्ध नहीं होते। निष्कर्षों के पीछे
साक्ष्य होने चाहिए। उन्होंने केदारनाथ मामले (1962) का उल्लेख करते हुए इस बात को
रेखांकित किया कि या तो वास्तविक हिंसा हो या हिंसा को भड़काने वाले शब्दों का
इस्तेमाल हो। (केदारनाथ मामले पर सुप्रीम
कोर्ट का आदेश यहाँ पढ़ें)।
सन 2010 में
अरुंधती रॉय ने दिल्ली की एक सभा में कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं
रहा। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं कहा। वे इसके पहले भी यह बात कह चुकी हैं।
महत्वपूर्ण था उनका दिल्ली की एक सभा में ऐसा कहना। उस सभा में सैयद अली शाह
गिलानी भी बोले थे। उनके अलावा पूर्वोत्तर के कुछ राजनैतिक कार्यकर्ता इस सभा में
थे। देश की राजधानी में भारतीय राष्ट्र राज्य के बारे में खुलकर ऐसी चर्चा ने बड़ी
संख्या में लोगों को मर्माहत किया, सदमा पहुँचाया। पहले रोज़ मीडिया में जब इसकी खबरें छपीं तब तक यह सनसनीखेज़
खबर भर थी। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने इस सभा में विचार व्यक्त करने वालों पर
देशद्रोह का मुकदमा चलाने की माँग की तब यह बात चर्चा में आई थी। उस समय मैंने
अपने ब्लॉग में इस विषय पर विस्तार से लिखा था। आपकी दिलचस्पी हो, तो उसे यहाँ
पढ़ सकते हैं।
इस वीडियो को भी देखें
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