साहित्य के पन्नों में अनेक रचनाएं ऐसी हैं, जिन्हें आज भी पढ़ा जाए, तो नई लगती हैं। इंटरनेट ने बहुत सी पुरानी सामग्री को पढ़ने का मौका दिया है। मैं अपने ब्लॉग में ‘चयन’ उप शीर्षक से पुरानी रचनाओं को लगाना शुरू कर रहा हूँ। इनमें निबंध, कहानियाँ, कविताएं और किसी बड़ी रचना के अंश भी होंगे। हालांकि बुनियादी तौर पर इसमें हिन्दी रचनाएं होंगी। यदि मैं देवनागरी में उर्दू रचनाओं को हासिल कर सका, तो उन्हें भी यहाँ रखूँगा। विदेशी भाषाओं के अनुवाद रखने का प्रयास भी करूँगा। शुरुआत प्रताप नारायण मिश्र के निबंध ‘बात’ से। प्रताप नारायण मिश्र भारतेन्दु काल के लेखक थे भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने आप को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचना शैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रति-भारतेंदु" और "द्वितीय हरिश्चंद्र" कहे जाने लगे थे। संयोग से यह वह समय है, जिसे हिन्दी या हिन्दू राष्ट्रवाद के विकास का समय भी कहा जाता है। उन्होंने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र में हर प्रकार के विषय पर निबंध लिखे। जैसे-घूरे के लत्ता बीने-कनातन के डोल बांधे, समझदार की मौत है,आप, बात, मनोयोग, बृद्ध, भौं, मुच्छ, ह, ट, द आदि। मैं इनमें से कुछ निबंधों को अपने पाठकों के सामने रखूँगा।
यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल बात का वर्णन करते। किंतु इन दोनों विषयों में हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। इससे केवल उसी बात के ऊपर दो चार बात लिखते हैं जो हमारे सम्भाषण के समय मुख से निकल-निकल के परस्पर हृदयस्थ भाव प्रकाशित करती रहती है। सच पूछिए तो इस बात की भी क्या बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफुल मखलूकात) कहलाती है। शुक-सारिकादि पक्षी केवल थोड़ी सी समझने योग्य बातें उच्चरित कर सकते हैं इसी से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाते हैं। फिर कौन न मान लेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को सब लोग निराकार कहते हैं तो भी इसका संबंध उसके साथ लगाए रहते हैं। वेद ईश्वर का वचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड ऑफ गॉड है यह वचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं सो प्रत्यक्ष में मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलंबियों ने "बिन बानी वक्त बड़ योगी" वाली बात मान रक्खी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं।
यहाँ तक कि प्रेम सिद्धांती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकावैंगे। 'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता' इत्यादि पर हठ करने वाले को यह कहके बात में उड़ावेंगे कि "हम लँगड़े लूले ईश्वर को नहीं मान सकते। हमारा प्यारा तो कोटि काम सुंदर श्याम बरण विशिष्ट है।" निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी श्यामता को द्योतन करती है अथवा योगाभ्यास का आरंभ करने वाले को आँखें मूँदने पर जो कुछ पहिले दिखाई देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है। सिद्धांत यह कि रंग रूप रहित को सब रंग रंजित एवं अनेक रूप सहित ठहरावेंगे किंतु कानों अथवा प्रानों वा दोनों को प्रेम रस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को वंचित न रहने देंगे।आज और बात है कल ही स्वार्थांधता के बंश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलंब की संभावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है, पर कब? जात्योपकार, देशोद्धार, प्रेम प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए। एक हम लोग हैं जिन्हें आर्यकुलरत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है। किंतु हिंदुस्तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है।
इससे यह रीति
अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहै चाहै यह समझे कि बात
कहने का भी शउर नहीं है किंतु अपनी मति अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें
कोई न कोई, किसी न किसी के वास्तविक हित की बात निकलती
रहे। पर खेद है कि हमारी बातें सुनने वाले उँगलियों ही पर गिनने भर को हैं। इससे
"बात बात में वात" निकालने का उत्साह नहीं होता। अपने जी को 'क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने' इत्यादि विदग्धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना
के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने
से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्छा बात है।
धन्यभाग, धन्यवाद!!
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