सैयद इंशा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' संभवतः खड़ी बोली की पहली कहानी है और इसका रचना काल सन 1803 के आसपास माना जाता है। रानी केतकी की कहानी शीर्षक कहानी सैयद इंशा अल्लाह खाँ साहब द्वारा लिखी गई है। यह कहानी हिन्दी गद्य के बिल्कुल शुरूआती दिनों में लिखी गई थी। हिन्दी में पद्य (कविता) की सुदृढ़ परम्परा रही है। पर ज्यादातर पद्य ब्रजभाषा और अवधी और भोजपुरी आदि में है। खड़ी बोली में गद्य की शुरुआत उन्नीसवीं सदी में हुई। जिसके नमूने मैं कुछ समय बाद पेश करूँगा। ‘रानी केतकी की कहानी’ की खड़ी बोली में कविता और दोहों का कई जगह इस्तेमाल हुआ है। भाषा में ब्रज का पुट है। कथानक में राजकुमार और राजकुमारी का प्रेम-प्रणय है तथा राजकुमार के पिता और राजकुमारी के पिता जो अलग-अलग राज्य के राजा हैं, का अहंकार है। यानी वह समय सामंती प्रवृत्तियों से बाहर निकल रहा था। रानी केतकी की कहानी संधि स्थल की कहानी है, जिसमें प्रेम है, रोमांस है, युद्ध और हिंसा है, तिलिस्म-जादूगरी है। कहानी मानवीयता के जमीन पर कम वायवीय लोक में ज्यादा घूमती है। फिर भी प्रारंभिक हिन्दी कहानियों, खासतौर से गद्य के स्वरुप को जानने के लिए यह कहानी महत्वपूर्ण है। हमारी दिलचस्पी हिन्दी-उर्दू के विकास में भी है, इसलिए इसे पढ़ना चाहिए। ध्यान रहे यह उर्दू लिपि में लिखी गई थी। केवल लिपि महत्वपूर्ण होती है, तो इसे हिन्दी की नहीं उर्दू की कहानी मानना होगा, पर अरबी-फारसी शब्दों की उपस्थिति से भाषा उर्दू बनती है, तो इसे उर्दू नहीं मानेंगे। इस कहानी की शुरुआत परिचय के रूप में है, जिसमें अपनी भाषा को लेकर भी उन्होंने सफाई दी है। बहरहाल हमारी खोज में यह बात कई बार आएगी कि हिन्दी किसे कहते हैं और उर्दू किसे। दोनों में ऐसा क्या है, जो उनके बीच एकता को रेखांकित करता है और वह क्या बात है, जो उनके बीच अलगाव पैदा करती है। इंशा अल्ला खाँ को हिन्दी साहित्यकार और उर्दू कवि दोनों माना जाता है। वे लखनऊ तथा दिल्ली के दरबारों में कविता करते थे। उन्होने दरया-ए-लतफत नाम से उर्दू के व्याकरण की रचना की थी। बाबू श्यामसुन्दर दास इसे हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं।
रानी केतकी की कहानी
-सैयद इंशा अल्ला
खां
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट।।
सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खेलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बड़े से बड़े अगलों ने चक्खी है।
देखने को दो आँखें दीं और सुनने के दो कान।
नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।।
मिट्टी के बासन को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड़ सके। सच है, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनानेवालो को क्या सराहे और क्या कहे। यों जिसका जी चाहे, पड़ा बके। सिर से लगा पाँव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करैं। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है -जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पड़ी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों घड़ी।
डौल डाल एक अनोखी बात का
एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि
कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली
और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढ़े-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढ़े धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुँह थुथाकर, नाक भी चढ़ाकर, आँखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं
देती। हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में
बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की
न हो, यह नही होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर
झुँझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बड़बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊँ और झूठ सच
बोलकर उँगलियाँ नचाऊँ, और बे-सिर बे-ठिकाने की उलझी-सुलझी बातें सुनाऊँ, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकालता? जिस ढब से होता, इस बखेड़े को टालता।
इस कहानी का कहनेवाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह पर फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आप के ध्यान का घोड़ा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हड़पन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकड़ी भूल जाय।
टुक घोड़े पर चढ़ के अपने आता हूँ मैं।
करतब जो कुछ है, कर दिखता हूँ मैं।।
उस चाहनेवाले ने जो चाहा तो अभी।
कहता जो कुछ हूँ, कर दिखाता हूँ मैं।।
अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ़ चलता हूँ और अपने फूल के पंखड़ी जैसे होठों से किस किस रूप के फूल उगलता हूँ।
कहानी के जोवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार
किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सी मसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुँवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जँभाइयाँ, अँगड़ाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूँढने। इतने में कुछ एक अमराइयाँ देख पड़ी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियाँ एक से एक जोबन में अगली झूला डाले पड़ी झूल रही है और सावन गातियाँ हैं।
ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड़ सी पड़ गई। उन सभों में एक के साथ उसकी आँख लग गई।
कोई कहती थी यह उचक्का है।
कोई कहती थी एक पक्का है।
वही झूलेवाली लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा -
"इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यह रंडियाँ अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ।"
तब कुँवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - "इतनी रूखाइयाँ न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छाँह में ओस का बचाव करके पड़ा रहूँगा। बड़े तड़के धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला जाऊँगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई घोड़ा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अँधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूँढकर यहाँ चला आया हूँ। कुछ रोक टोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रूका रहता। सिर उठाए हाँपता चला आया। क्या जानता था - वहाँ पदि्मिनियाँ पड़ी झूलती पेगै चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थी, बरसों मैं भी झूल करूँगा।"
यह बात सुनकर वह जो लाल जोड़ेवाली सब की सिरधरी थी, उसने कहा - "हाँ जी, बोलियाँ ठोलियाँ न मारो और इनको कह दो जहाँ जी चाहे, अपने पड़ रहें, और जो कुछ खाने को माँगे, इन्हें पहुँचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुँह का डौल, गाल तमतमाए, और होंठ पपड़ाए, और घोड़े का हाँपना, और जी का काँपना, और ठंडी साँसें भरना, और निढाल हो गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपड़े लत्ते की कर दो।"
इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पाँच सात पौदे थे, उनकी छाँव में कुँवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात साँय-साँय बोलने लगी और साथवालियाँ सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - "अरी ओ, तूने कुछ सुना है? मेरा जी उसपर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूँ। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पाँवों पड़ती हूँ, कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे और उसके बनानेवाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी।"
रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े हुए वहाँ आन
पहुँची, जहाँ कुँवर उदैभान लेटे हुए कुछ कुछ सोच में
बड़बड़ा रहे थे।
मदनबान आगे बढ़के कहने लगी - "तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं।"
कुँवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा -
"क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है?"
कुँवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी माँ रानी कामलता कहलाती है। "उनको उनके माँ बाप ने कह दिया है - एक महीने पीछे अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वही दिन था; सो तुम से मुठभेड़ हो गई। बहुत महाराजों के कुँवरों से बातें आईं, पर किसी पर इनका ध्यान न चढ़ा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लड़कपन की गोइयाँ हूँ, मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो।"
उन्होंने कहा - "मेरा बाप राजा सूरजभान और माँ रानी लछमीबास हैं। आपस में जो गँठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। योंही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड़। जोड़ तोड़ टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गँठजोड़ा चाहिए।"
इसी में मदनबान बोल उठी - "सो तो हुआ। अपनी अपनी अँगूठियाँ हेर फेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर मिचर न रहे।" कुँवर उदैभान ने अपनी अँगूठी रानी केतकी को पहना दी; और रानी ने भी अपनी अँगूठी कुँवर की उँगली में डाल दी; और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली।
इसमें मदनबाल बोली - "जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ़ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पड़े रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी।" पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुँवर उदैभान अपने घोड़े को पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।
पर कुँवर जी का रूप क्या कहूँ। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घड़ी घड़ी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना। होते होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई।
किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - "कुछ दाल में काला है। वह कुँवर बुरे तेंवर और बेडौल आँखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पाँव नहीं धरना। घरवालियाँ जो किसी डौल से बहलातियाँ हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी ठंडी साँसें भरता है। और बहुत किसी ने छेड़ा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ आँसू पड़ा रोता है।"
यह सुनते ही कुँवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड़े आए। गले लगाया, मुँह चूम पाँव पर बेटे के गिर पड़े, हाथ जोड़े और कहा - 'जो अपने जी की बात है, सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो? राज-पाट जिसको चाहो, दे डालो। कहो तो, क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो हो नहीं सकता? मुँह से बोलो, जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हो, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कूएँ में गिर पड़ो, तो हम दोनों अभी गिर पड़ते हैं। कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं।"
कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - "अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुँह पर किसी ढब से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पड़ा था और आप से कुछ न कहना था।" यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुँवर ने यह लिख भेजा - "अब जो मेरा जी होठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के घिघिया के यह लिखता हूँ -
चाह के हाथों किसी को सुख नहीं।
है भला वह कौन जिसको दुख नहीं।।
उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयाँ ताड़ के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहिला है। कुछ रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए।"
महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - "हम दोनों ने इस अँगूठी और लिखौट को अपनी आँखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढ़ो पचो मत। जो रानी केतकी के माँ बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जायेंगे। और जो कुछ नाँह-नूँह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घड़ी, सुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीतचाही ठीक कर लावे।' और सुभ घड़ी सुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के माँ-बाप के पास भेजा।
ब्राह्मन जो सुभ मुहूरत देखकर हड़बड़ी से गया था, उस पर बुरी घड़ी पड़ी। सुनते ही रानी केतकी के माँ-बाप ने कहा - "हमारे उनके नाता नहीं होने का! उनके बाप-दादे हमारे बापदादे के आगे सदा हाथ जोड़कर बातें किया करते थे और टुक जो तेवरी चढ़ी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ़ गए, ऊँचे पर चढ़ गए। जिनके माथे हम बाएँ पाँव के अँगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लावे!" ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - "अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं।
राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से निकलती।" यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चँगेर फेंक मारी और कहा - "जो ब्राह्मण की हत्या का धड़का न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता।" और अपने लोगों से कहा - "इसको ले जाओ और ऊपर एक अँधेरी कोठरी में मँूद रक्खो।" जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान के माँ-बाप ने सुनी। सुनते ही लड़ने के लिये अपना ठाठ बाँध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
कुँवर ने चुपके से यह कहला भेजा - "अब मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लड़ने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय।"
एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुँवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखड़ी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आँखों लगाया और मालिन को एक थाल भर के मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँह की पीक से यह लिखा - "ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर के चील-कौंवों को दे डाले, तो भी मेरी आँखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं। इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; और जब तक माँ-बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डौल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड़ जी जाते रहें तो कोई बात हमें रूचती नहीं।"
वह चिठ्ठी जो बिस भरी कुँवर तक जा पहुँची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है। और उस चिठ्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बाँध लेता है।
आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड़ पर से और कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप को हिरनी हिरन कर डालना
जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलास पहाड़ पर रहता था, लिख भेजता है - कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक वाव बँहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है।
सराहना जोगी जी के स्थान का
कैलास पहाड़ जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई ९० लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में लेकर उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था।
उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियाँ आठ पहर रूप बँदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं। और वहाँ अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे - भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं - गुजरी, टोड़ी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उड़ाए फिरता था और नब्बें लाख अतीत गुटके अपने मुँह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिठ्ठी एक बगला उसके घर पहुँचा देता है, गुरू महेंदर गिर एक चिग्घाड़ मारकर दल बादलों को ढलका देता है।
बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ कुछ पढंत़ करता हुआ बाव के घोड़े भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुँह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर भागा। एक आँख की झपक में वहाँ आ पहुँचता है जहाँ दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योड़े की बँूदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरूजी ने अतीतियों से कहा - "उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड़ दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड़ फोड़ दो।"
जैसा गुरूजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुँवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उसकी माँ लछमीबास हिरन हिरनी वन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड़ भाड़ का तो कुछ थल बेड़ा न मिला, किधर गए और कहाँ थे बस यहाँ की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरूजी के पाँव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - "महाराज, यह आपने बड़ा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आज आप न पहुँचते तो क्या रहा था। सब ने मर मिटने की ठान ली थी।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राज पाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुँह कहाँ तक आपको सताया करें।" जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - "तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहों। अब वह कौन है जो तुम्हें आँख भरकर और ढब से देख सके। वह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ़ पड़े तो इसमें से एक रोंगटा तोड़ आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुँचेंगे। रहा भभूत, सो इसलिये है जो कोई इसे अंजन करै, वह सबको देखै और उसे कोई न देखै, जो चाहै सो करै।"
जाना गुरूजी का राजा के घर
गुरू महेंदर गिर के पाँव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगड़े। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी।
रानी केतकी ने भी गुरूजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरू जी को गालियाँ दी। गुरूजी सात दिन सात रात यहाँ रह कर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बघंबर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगतपरकास अपने अगले ढब से राज करने लगा।
रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना।
दोहरा
(अपनी बोली की धुन में)
रानी को बहुत सी बेकली थी।
कब सूझती कुछ बुरी भली थी।।
चुपके चुपके कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी।।
कहती थी कभी अरी मदनबान।
है आठ पर मुझे वही ध्यान।।
याँ प्यास किसे किसे भला भूख।
देखूँ वही फिर हरे हरे रूख।।
टपके का डर है अब यह कहिए।
चाहत का घर है अब यह कहिए।।
अमराइयों में उनका वह उतरना।
और रात का साँय साँय करना।।
और चुपके से उठके मेरा जाना।
और तेरा वह चाह का जताना।।
उनकी वह उतार अँगूठी लेनी।
और अपनी अँगूठी उनको देनी।।
आँखों में मेरे वह फिर रही है।
जी का जो रूप था वही है।।
क्योंकर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं।
माँ बाप से कब तक डरूँ मैं।।
अब मैंने सुना है ऐ मदनबान।
बन बन के हिरन हुए उदयभान।।
चरते होंगे हरी हरी दूब।
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब।।
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको संुघा यह डहडहे फूल।।
फूलों को उठाके यहाँ से लेजा।
सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा।।
बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्ठा।।
हरियाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं।।
इन आँखों में हैं फड़क हिरन की।
पलकें हुई जैसे घासवन की।।
जब देखिए डब-डबा रही है।
ओसें आंसू की छा रही हैं।।
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस-सी मुझ पै पड़ गई है।
इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती।
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरूजी दे गए थे, आँख-मिचौबल के बहाने अपनी माँ रानी कामलता से।
एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को
भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - "गुरूजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत
मेरे बाप को दिया है, वह कहाँ रक्खा है और उससे क्या होता है?"
रानी कामलता बोल उठी - आँख-मिचौवल खेलने के लिये चाहती हूँ। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो मुझको कोई पकड़ न सके।"
महारानी ने कहा - "वह खेलने के लिए नहीं हैं। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के सँभालने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घड़ी कैसी है, कैसी नहीं।" रानी केतकी अपनी माँ की इस बात पर अपना मुँह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठीं- "अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आँख मिचौवल खेलने क लिये वह भभूत गुरूजी का दिया माँगती थी। मैंने न दिया और कहा, लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिये गुरूजी गए हैं। इसी पर मुझ से रूठी है। बहुतेरा बहलाती हूँ, मानती नहीं।"
महाराज ने कहा - "भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल
जाने पर एक जी तो क्या, जो करोर जी हों तो दे डालें।"
रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ा सा भभूत दिया। कई दिन तलक आँख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोड़ों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके।
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना
एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों
बोल उठी - "अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे।" मदनबान ने कहा - क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया -
"यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रक्खे थे।"
मदनबान बोली - "मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सब को देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पड़ी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोड़ी नोची खसोटी उजड़ी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप का राज-पाट सुख नींद लाज छोड़कर नदियों के कछारों में फिरना पड़े, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोड़ा बहुत आसरा था।
ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाड़ें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोड़ें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लड़ाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लड़ने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें; उस दिन न समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड़ हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोड़ा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी।"
रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुनकर हँसकर टाल दिया और कहा - "जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड़कर हिरन के पीछे दौड़ती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी तू तो बड़ी बावली चिड़िया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लड़ने लगी।"
रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बड़ों का तिलमिलाना
दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो माँ बाप पर हुई। सब ने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड़ छाड़ के पहाड़ को चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड़ गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा - "रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो।" महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा - "अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता।
अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे।
गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया - कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो
रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होती तो ये बातें काहे को सामने
आती" ।
मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पड़ी फिरती थी।
बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की
दहाड़ों में उदैभान उदैभान चिघाड़ती हुई आ निकली। एक ने एक को ताड़कर पुकारा -
"अपनी तनी आँखें धो डालो।" एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड़ हुई। गले
लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाड़ों में कूक सी पड़ गई।
दोहरा
छा गई ठंडी साँस झाड़ों में।
पड़ गई कूक सी पहाड़ों में।
दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छाँव को ताड़कर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं।
बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ
रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी -
दोहरा
हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे।
है वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे।।
अब तो सारा अपने पीछे झगड़ा झाँटा लग गया।
पाँव का क्या ढूँढती हा जी में काँटा लग गया।।
पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते चले। उन्ने यह बात कही - "जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उज़ड़े हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजड़े हुओं की मुठ्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढ़ें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पड़ी बकती है। मैं इसपर बीड़ा उठाती हूँ"।
बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इसपर 'अच्छा' कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिठ्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें।
मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना और चितचाही बात सुनना
मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड़ पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खड़ी हुई और कहने लगी - "लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिठ्ठी लाई हूँ, आप पढ़ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए।'
महाराज ने उस बधंबर में से एक रोंगटा तोड़कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वांग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा - "बधंबर इसी लिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाड़ी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लड़की को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बड़ी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा।"
महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घड़ी यह कह दिया "सारी छतों और कोठों को गोटे से मढ़ो और सोने और रूपे के सुनहरे रूपहरे सेहरे सब झाड़ पहाड़ों पर बाँध दो और पेड़ों में मोती की लड़ियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठ रहूँगा, और छ: महिने कोई चलनेवाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे।" इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था।
जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिए
फिर महाराज और महारानी और
महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने
गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढ़ावा दिया और कहा - तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने
घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुये आता हूँ।"
गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी -
यहाँ पर धूम धाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में
कह दिया - "यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में
अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपड़े उनपर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने
बड़ पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बड़े बड़े ऐसे जिसमें सिर से लगा पैर तलक पहुँचे, बाँधो।
चौतुक्का
पौदों ने रंगा के सूहे जोड़े पहने। सब पाँव में
डालियों ने तोड़े पहने।।
बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोड़े थोड़े पहने।।
जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही दुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की और सुहागिनें नई नई कलियों के जोड़े पंखुड़ियों के पहने हुए थीं। सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे, जिस ढब से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपड़ा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड़ दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड़सालों की खँडसालें उनमें उड़ेल गई और सारे बनों और पहाड़ तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड़ गया और केसर भी थोड़ी थोड़ी घोले में आ गई। फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड़ झंखाड़ों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगड़ी और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये, बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचनेवाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते धूम मचाते कूदते रहा करें।
ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को न पाना और बहुत तलमलाना
यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके ९०
लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर
को चिठ्ठी लिख भेजी। उस चिठ्ठी में यह लिखा हुआ था - 'इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको ढूँढता
फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूँ। अब मेरे मुँह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं
उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर विपत्ति गाढ़ी पड़ी
जो तुमसे हो सके, करो।'
राजा इंदर चिठ्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को
देखने को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा - "जैसा आपका बेटा वैसा मेरा
बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने
चढूँगा।"
गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद्र से कहा - हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।" राजा इंदर ने कहा - जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा।" गुरू ने कहा - अच्छा।
हिरन हिरनी का खेल बिगड़ना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड़ना
एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोड़ों हिरन राग के ध्यान में चौकड़ी भूल आस पास सर झुकाए खड़े थे। इसी में राजा इंदर ने कहा - "इन सब हिरनों पर पढ़के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ़ के एक एक छींटा पानी का दो।" क्या जाने वह पानी कैसा था। छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड़ कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बड़ी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घड़ा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मंुडवाते ही ओले पड़े थे।
राजा इंदर के लोगों ने जो पानी के छीटें वही ईश्वरोवाच पढ़ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खड़े हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड़न - खटोलो पर बैठकर बड़ी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए।
राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सारे राज को कह दिया - "जेवर भोरे के मुँह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों का जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहें; अपनी गुड़ियाँ सँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड़ गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड़ हमारे देश में हों, उतने ही पहाड़ सोने रूपे के आमने सामने खड़े हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँधनवार से सब झाड़ पहाड़ लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक अधर में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड़ भड़क्का धूम धड़क्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय।
और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढ़े सब लाड़ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड़ में इधर और उधर कबैल की टटि्टयाँ बन जायँ और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और पहाड़ी तली का चढ़ाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों।
राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना
राजा इंदर ने
कह दिया, 'वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड़
चलियाँ हैं, उनसे कह दो - सोलहो सिंगार, बास गूँध मोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड़न खटोलों का
इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड़ चलो जो
उड़न-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकड़ों कोस तक हो जायें। और अधर ही
अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मुँहचग, घुँघरू, तबले घंटताल और सैकड़ों इस ढब के अनोखे बाजे
बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड़ और लाल पटों की भीड़भाड़
की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझड़ियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें जो देखनेवालों को
छातियों के किवाड़ खुल जायें। और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पड़े। और जब तुम सबको
हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लड़ियाँ झड़ें
जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड़
छेड़ सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुडि्डयाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता है।' जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों
महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की
यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो।
ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का
जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढ़े
और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मँुदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोड़े और कहा - ब्राह्मन देवता हमारे कहने
सुनने पर न जाओ। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो।
एक उड़न खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोड़े के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से जो वह ९० लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लड़ियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगे छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया।
कहीं जोगी जातियाँ आ खड़े हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेड़ा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ़ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कंुजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों का त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड़कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी।
चौचुक्का
जब छांड़ि करील को कँुजन को हरि द्वारिका जीउ
माँ जाय बसे।
कलधौत के धाम बनाए घने महराजन के महराज भये।
तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड़
लिए।
धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए।
अच्छापन घाटों का
कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाड़े, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगड़ातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पड़तियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने रूपे के पत्तरों से मढ़ी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उनपर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हड़ों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाड़ों के सब झीलों में छा रहे थे।
आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढ़ी पर
इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली - 'लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें।" रानी केतकी ने कहा - 'न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या पड़ी जो इस घड़ी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खड़ी हों।" मदनबान उसकी इस रूखाई को उड़नझाई की बातों में डालकर बोली -
बोलचाल मदनबान की
अपनी बोली के दोहों में -
यों तो देखो वा छड़े जी वा छड़े जी वा छड़े।
हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कड़े।।
छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये।
वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खड़े।।
तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है।
ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अड़े।
है कहावत जी को भावै और यों मुड़िया हिले।
झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बड़े।।
साँस ठंड़ी भरके रानी केतकी बोली कि सच।
सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेड़े में पड़े।।
वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदेपन से ऊँघना
उस घड़ी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूड़ा
और भीना भीनापन और अँखड़ियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सँूघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर
लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुहलाने
लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले ऊठी : मदनबान बोली - 'मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड़ गया था।"
इसी दु:ख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा
- "काटा अड़ा तो अड़ा, छाला पड़ा तो पड़ा, पर निगोड़ी तू क्यों मेरी पनछाला हुई।"
सराहना रानी केतकी के जोबन का
केतकी का भला लगना लिखने पढ़ने से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रूँधावट हँसी की लगावट और दंतड़ियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और त्योरी का चढ़ा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप से करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता।
सराहना कुँवर जी के जोबन का
कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के धंुधले के हरे भरे पहाड़ों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती है। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पड़ता था। अपनी परछाँई देखकर अकड़ता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी।
दूल्हा का सिंहासन पर बैठना
दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड़न खटोले राजा इंदर के अखाड़े के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाड़ों के आड़ तले आ बैठियाँ। सर्वांग संगीत भँड़ताल रहस हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान, झिंझोटी, कन्हाड़ा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगड़ा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप पकड़े हुए सचमुच के जैसे गानेवाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुँह जो कह सके। जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद्र भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।
बीचो बीच उन सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड़ और आंगन में आरसी छुट कहीं लकड़ी, इंर्ट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोड़ा पहने जब रात घड़ी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तड़ावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखड़ा लिए जा पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोड़ा हो लिया।
अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले।
घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले।।
चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन।
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन।।
ऐ खिलाड़ी यह बहुत सा कुछ नहीं थोड़ा हुआ।
आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोड़ा हुआ।।
चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें।।
वह उड़नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठि्ठयाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उड़न-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खड़े रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेड़ी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लांैड़िया उन्हीं उड़न-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया - "रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बात चीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी।" और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा - "यह भी एक खेल है। जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड़ दीजै; कंचन हो जायेगा।" और जोगी जी ने सभों से यह कह दिया- "जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें।" ९ लाख ९९ गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड़ाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड़ दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोड़े लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड़भाड़ में दोनों राज का रहनेवाला ऐसा न रहा जिसको घोड़ा, जोड़ा, रूपयों का तोड़ा, जड़ाऊ कपड़ों के जोड़े न मिले हो। और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। बिना बुलाए दौड़ी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानी केतकी के छेड़ने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योड़ा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी।
दोहरा
घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घड़ी।
कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कड़ी।।
जी लगाकर केवड़े से केतकी का जी खिला।
सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पड़ी।।
क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी।
थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हड़बड़ी।।
मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा।
मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछड़ी।।
जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी।
बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी।।
बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई।
दोहरा
छा गई ठंडी साँस झाडों में।
पड गई कूक सी पहाडों में।
दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी-
दोहरा
हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे।
हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे॥
अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया।
पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया॥
पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते चले। उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए।
महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा।
महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी
घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे
सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे।
इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर
महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे
हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी
को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ
अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको
दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में
आवेंगी-यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने सारे
देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में
अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने
बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो।
चौतुक्का
पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने।
सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।।
बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने।
जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥
जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी
सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही ढुलहिनें
नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए
थीं। सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा
सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण से हो सकता था खेती बारी
करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा
जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड
तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं
उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई।
बहुत सुन्दर।
ReplyDelete72वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (27-01-2021) को "गणतंत्रपर्व का हर्ष और विषाद" (चर्चा अंक-3959) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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एक अविस्मरणीय पोस्ट।
ReplyDeleteव्याख्यात्मक विवेचन समालोचक की दृष्टि।
सब कुछ अद्भुत।
वाह वाह ! इस विलक्षण उपहार के लिए हार्दिक आभार.
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