सन 2020 में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो पता चला कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है।
प्रमोद जोशी
कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।
महामारी से सबसे बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया के पाखंड का पर्दाफाश किया है।
नए दौर की नई कहानी
सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूंजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूंजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
पिछले चार दशकों में गरीब से गरीब देशों की सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपने के चक्कर में अपने बजट कम कर दिए हैं। ऐसा अनायास नहीं हुआ, यह विश्व बैंक के निर्देशों के तहत हुआ है। सन 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी- सन् 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! यह वह दौर था, जब दुनिया नई वैश्विक अर्थव्यवस्था पर विचार कर रही थी।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया। उत्तर के विकसित देशों ने इस बात को महसूस किया कि विकासशील देशों की उचित मांगों की अनदेखी करना गलत है। इसलिए उन्होंने आपसी विचार विमर्श की प्रक्रिया आरम्भ की जिसे उत्तर-दक्षिण संवाद कहा जाता है। अल्मा-अता घोषणा भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा थी।
उस घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी। पर अगले दो वर्षों में वैश्विक विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली और सन 1980 में विश्व बैंक ने स्वास्थ्य से जुड़े अपने पहले नीतिगत दस्तावेज में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की परिभाषा सीमित कर दी और वह चिकित्सा के स्थान पर निवारक (प्रिवेंटिव) गतिविधि भर रह गई। उस मोड़ से दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के जबरदस्त निजीकरण की रेस शुरू हो गई।
अस्त-व्यस्त सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं
सन 2020 में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो हम पाते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त- व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। फ्रांस, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है। अमेरिका के बारे में तो कहा जाता है कि लोग बीमारी से नहीं इलाज की कीमत से मरते हैं। इंश्योरेंस नहीं हो तो वहां इलाज कराना आसान नहीं है।
चिंताजनक।
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