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Monday, October 5, 2020

क्या सेना का सहारा लेंगे ट्रंप?

डोनाल्ड ट्रंप अब अपनी रैलियों में इस बात का जिक्र बार-बार कर रहे हैं कि इसबार के चुनाव में धाँधली हो सकती है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे कयासों की बाढ़ आती जा रही है। यह बात तो पहले से ही हवा में है कि अगर हारे तो ट्रंप आसानी से पद नहीं छोड़ेंगे। डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से कहा जा रहा है कि चुनाव का विवाद अदालत और संसद में भी जा सकता है। और अब अमेरिकी सेना को लेकर अटकलें फिर से शुरू हो गई हैं। अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान, इराक, चीन, सीरिया और सोमालिया में भूमिकाओं को लेकर अटकलें तो चलती ही रहती थीं, पर अब कयास है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी उसकी भूमिका हो सकती है।

कुछ महीने पहले देश में चल रहे रंगभेद-विरोधी आंदोलन को काबू में करने के लिए जब ट्रंप ने सेना के इस्तेमाल की धमकी दी थी, तबसे यह बात हवा में है कि अमेरिकी सेना क्या ट्रंप के उल्टे-सीधे आदेश मानने को बाध्य है? बहरहाल गत 24 सितंबर को ट्रंप ने यह कहकर फिर से देश के माहौल को गर्म कर दिया है कि चुनाव में जो भी जीते, सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण नहीं होगा। इतना ही नहीं उसके अगले रोज ही उन्होंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि चुनाव ईमानदारी से होने वाले हैं। इसका मतलब क्या है?

माय जनरल्स, माय मिलिट्री!

इस साल जून के महीने में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद उठ खड़े हुए आंदोलन के दौरान ट्रंप ने धमकी दी थी कि आंदोलन को काबू करने के लिए मैं सन 1807 के एक पुराने कानून के तहत सेना को अमेरिका की सड़कों पर उतरने का हुक्म भी दे सकता हूँ। और अब पुराने फौजी अफसर इस बात को लेकर चिंतित हैं कि चुनाव के दौरान ट्रंप कोई वितंडा खड़ा न कर दें।

अमेरिका की सेना को ट्रंप माय मिलिट्री और उसके अफसरों को माय जनरल्स कहते हैं। सेना के इस्तेमाल को लेकर अंदेशा पहले से ही व्यक्त किया जा रहा है। पिछले महीने देश की संसद में पूछे गए सवालों के एक लिखित जवाब में देश की सेना के प्रमुख यानी चेयरमैन ऑफ जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ जनरल मार्क ए मिले ने कहा था, मैं अमेरिकी सेना के अ-राजनीतिक सिद्धांत पर गहराई से यकीन करता हूँ। उन्होंने यह भी कहा, यदि चुनाव से जुड़े किसी मसले पर विवाद खड़ा हुआ, तो अमेरिका की अदालतों और संसद को उसे निपटाना होगा, न कि सेना को। मुझे इस काम में सेना की कोई भूमिका नजर नहीं आती है। इस सफाई के बाद भी अटकलें अपनी जगह हैं कि यदि चुनाव परिणाम को लेकर नागरिक अशांति हुई, तो क्या सेना कारवाई करेगी?

गत 11 अगस्त को अमेरिकी सेना के दो सेवानिवृत्त अधिकारियों जॉन नैगल और पॉल यिंगलिंग ने डिफेंस वन नामक वैबसाइट में मार्क मिले के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी कि अगले कुछ महीनों में आपके सामने ऐसी स्थिति आ सकती है, जब एक बिगड़ा राष्ट्रपति आपसे ऐसी कारवाई के लिए कहे, जिससे आपकी सांविधानिक शपथ टूटती हो। यदि डोनाल्ड ट्रंप अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद भी पद छोड़ने को तैयार न हों, तो अमेरिकी सेना को चाहिए कि वह उन्हें पद से हटाए और इसका आदेश आपको देना होगा।

ट्रंप नहीं माने तो?

अमेरिकी सेना के मुख्यालय पेंटागन ने उसी वक्त स्पष्ट किया कि ऐसा अनुमान लगाना निरर्थक है। यों भी अमेरिकी सेना संविधान के प्रति जिम्मेदार होने की शपथ लेती है, राष्ट्रपति के प्रति नहीं। देश का सैनिक कमांडर इन चीफ वह होता है, जो इनॉगरेशन डे को 12.01 बजे शपथ लेता है। सेना के आधिकारिक स्पष्टीकरण के बावजूद यह बात अब अनौपचारिक रूप से फौजी अफसरों के बीच चर्चा का विषय है कि चुनाव के दिन से लेकर इनॉगरेशन डे तक ट्रंप ही राष्ट्रपति होंगे। यदि वे बगावत विरोधी कानून को लागू करके सेना को सड़कों पर उतरने का आदेश देंगे, तो क्या होगा? वे जून में ऐसा करने जा रहे थे, पर तब मार्क मिले और रक्षामंत्री मार्क एस्पर ने समझाया और फिर ट्रंप मान गए थे। 

न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार बहरहाल यह सवाल अब भी हवा में है। यह कानून दो सदी पुराना है, पर इसके तहत राष्ट्रपति के पास अधिकार है कि वह अराजकता पर काबू पाने के लिए सेना को सड़कों पर उतरने का आदेश दे। पर दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि यदि ट्रंप ने ऐसा कोई आदेश दिया, तो अनेक बड़े सैनिक अफसर इस्तीफा दे देंगे। पुलिस हिरासत में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद देश के वायुसेना प्रमुख चार्ल्स क्यू ब्राउन ने एक वीडियो जारी किया था, जिसमें उन्होंने व्यक्तिगत रूप से देश में अश्वेत नागरिक के रूप में अपने अनुभवों का हवाला देते हुए कुछ बातें कही थीं।

सेना की भूमिका को लेकर सवाल इसलिए हैं, क्योंकि काफी लोगों को लग रहा है कि ट्रंप हारे तो सत्ता का हस्तांतरण होने में दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। दूसरी तरफ सामाजिक रिश्तों में कड़वाहट बढ़ती जा रही है। देश में अश्वेत नागरिकों की रैलियों के जवाब में दक्षिणपंथी रैलियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अमेरिका अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजरता नजर आ रहा है।  हालांकि, कानूनी तौर पर गुलामी प्रथा समाप्त हो गई है, बड़ी संख्या में गोरों के मन में आक्रोश है। कई राज्यों में स्लेव पैट्रोल नाम की टोलियाँ निकलती हैं, जो देखती हैं कि अश्वेत लोग कहीं बगावत की योजना तो नहीं बना रहे हैं।

सामाजिक टकराव

गत 26 सितंबर को पोर्टलैंड पार्क में ब्लैक लाइव्स मैटर और दक्षिणपंथी प्राउड बॉयज़ की रैलियाँ एकसाथ हुईं। दोनों में उत्तेजक बातें कही गईं और हथियार चमकाए गए। पिछले महीने इसी किस्म के एक कार्यक्रम में हुई शूटिंग में पैट्रियट प्लेयर नामक समूह का सदस्य आरोन जे डेनियलसन मारा गया था। अब उसका नाम दक्षिणपंथी शहीद के रूप में लिया जा रहा है। ये घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ देश में कोरोना की मार है दूसरी तरफ सामाजिक टकराव। ऐसे में चुनाव की सरगर्मियाँ माहौल को खराब करती जा रही हैं।

इस सामाजिक और राजनीतिक टकराव के बीच सामंजस्य के प्रयास भी हो रहे हैं। अमेरिकी समाज ऐसे टकरावों का अतीत में भी मुकाबला करता रहा है। देश के राजनेताओं, पूर्व अधिकारियों और नागरिकों का ट्रांजीशन इंटीग्रिटी ग्रुपतैयार हुआ है, जिसमें दोनों प्रमुख दलों से जुड़े लोग भी शामिल हैं। जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय की विधि प्रोफेसर रोज़ा ब्रुक्स के नेतृत्व में देश के करीब 100 पूर्व सेनाधिकारियों तथा चुनाव विशेषज्ञों का यह ग्रुप सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के उपायों पर विचार कर रहा है। इस ग्रुप का गठन पिछले साल के अंत में किया गया था, क्योंकि सवाल तभी से उठने लगे थे।

लोकतंत्र पर भरोसा

व्यवस्था को लेकर जितनी आशंकाएं हैं उतना ही गहरा यह विश्वास भी है कि अमेरिका यों ही लोकतंत्र का गढ़ नहीं है। वह अपनी समस्याओं के समाधान खोज लेगा। अमेरिकी चुनाव में पराजित प्रत्याशी सबसे पहले विजेता को बधाई देता है। ऐसा इसबार क्यों नहीं होगा? इस आशंका के पीछे ट्रंप के कुछ बयान हैं। मसलन गत 19 जुलाई को फॉक्स न्यूज के क्रिस वैलेस ने ट्रंप से पूछा, क्या आप कहना चाहते हैं कि आप चुनाव परिणाम को स्वीकार नहीं करेंगे? इसपर ट्रंप ने कहा, नहीं मुझे देखना होगा। हिलेरी क्लिंटन ने भी मुझसे यही बात पूछी थी।

वैलेस ने कहा, चुनाव कितना ही कड़वा रहा हो, शांतिपूर्ण हस्तांतरण हमारे देश की परंपरा, बल्कि गौरव की बात है। हारने वाला प्रत्याशी जीतने वाले को बधाई देता है। सबके हित में देश पूरी तरह एक हो जाता है। क्या आप इस सिद्धांत को मानने से इनकार करेंगे?

इसपर ट्रंप ने कहा, मैं वक्त आने पर बताऊँगा। तबतक मैं आपको सस्पेंस में रखूँगा। इसके एक दिन बाद ट्रंप ने 2020 के चुनाव स्थगित करने या देर से कराने की बात कही। ट्रंप उसके बाद से मेल-इन-वोटिंग यानी डाक से आने वाले मतपत्रों में फ्रॉड की संभावनाओं का उल्लेख बार-बार कर रहे हैं। मेल-इन-वोटिंग या वोट-बाय-मेल एक प्रक्रिया है, जिसमें हर रजिस्टर्ड वोटर के पास बिना निवेदन किए बैलट आता है। कोलोरैडो, हवाई, ओरेगन, वाशिंगटन और यूटा में मेल-इन वोटिंग डिफॉल्ट प्रैक्टिस है। इन राज्यों के अलावा 21 अतिरिक्त राज्यों में ये सुविधा छोटे चुनावों के लिए दी जाती है।

मेल-इन वोटिंग में वोटर के पास चुनाव के दिन से पहले बैलट आ जाता है। उसे भरकर दोबारा भेजना होता है या चुनाव के दिन वोटर पोलिंग बूथ जाकर एक ड्रॉपबॉक्स में उसे डाल सकता है। क्या ट्रंप का अंदेशा वाजिब है? या वे चुनाव के पहले खामखां विवाद खड़ा कर रहे हैं? इसबार कोरोना के कारण बड़ी संख्या में डाक-मतों का इस्तेमाल होने की संभावना है।

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