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Sunday, October 4, 2020

हाथरस से उठते सवाल

हाथरस कांड ने एकसाथ हमारे कई दोषों का पर्दाफाश किया है। शासन-प्रशासन ने इस मामले की सुध तब ली, जब मामला काबू से बाहर हो चुका था। तत्काल कार्रवाई हुई होती, तो इतनी सनसनी पैदा नहीं होती। इस बात की जाँच होनी चाहिए कि पुलिस ने देरी क्यों की। राजनीतिक दलों को जब लगा कि आग अच्छी सुलग रही है, और रोटियाँ सेंकने का निमंत्रण मिल रहा है, तो उन्होंने भी तत्परता से अपना काम किया। उधर टीआरपी की ज्वाला से झुलस रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आनन-फानन इसे प्रहसन बना दिया। रिपोर्टरों ने मदारियों की भूमिका निभाई।  

कुल मिलाकर ऐसे समय में जब हम महामारी से जूझ रहे हैं सोशल डिस्टेंसिंग की जमकर छीछालेदर हुई। बलात्कारियों को फाँसी देने और देखते ही गोली मारने के समर्थकों से भी अब सवाल पूछने का समय है। बताएं कि दिल्ली कांड के दोषियों को फाँसी देने और हैदराबाद के बलात्कारियों को गोली मारने के बाद भी यह समस्या जस की तस क्यों है? इस समस्या का समाधान क्या है?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के आँकड़े चौंकाने वाले हैं। साल 2019 में हर रोज औसतन 87 से ज्यादा दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए हैं। औसतन हरेक 16 मिनट पर एक बलात्कार। तमाम प्रयासों के बाद यह अपराध कम होने के बजाय बढ़ा है। सन 2018 के मुकाबले 2019 इसमें 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले साल देश में रेप के 32,033 मामले दर्ज किए गए हैं। बलात्कार के कुल मामलों में 11 प्रतिशत दलित स्त्रियों के साथ हैं।

शासन-प्रशासन, राजनीति, मीडिया और कुल मिलाकर समाज को अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि अपराधों का ग्राफ चढ़ता क्यों जा रहा है। दिसम्बर 2012 के निर्भया कांड के बाद से देशभर की निगाहें बलात्कार पर केंद्रित हो गई हैं, जबकि अपराधों के समग्र और व्यापक प्रभाव पर ध्यान देने की जरूरत है। अन्याय हमारी सामाजिक संरचना का अंग है। ज्यादातर अपराध इस अन्याय के प्रतिबिंब हैं। अक्सर पुलिस भी इस अन्याय का अंग होती है। हमें अपने सामाजिक शिक्षण, संस्कृति और परम्परागत मूल्यों पर नजर डालनी चाहिए।

एक बात साफ है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने हाथरस प्रकरण में पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में देरी की। यदि पुलिस ने समय से कार्रवाई की होती, तो यह मामला इतना बड़ा रूप नहीं लेता। एक दोष को छिपाने के लिए दूसरे को छिपाने की गलती सरकार करती चली गई। पीड़िता के परिवार की घेराबंदी करना और जल्दबाजी में उसका दाह संस्कार करना सरकार की असुरक्षा का परिचायक है। राजनीतिक प्रतिनिधियों को गांव तक जाने से रोककर सरकार ने अपनी कमजोरी को उजागर किया है।

दूसरी तरफ विरोधी दलों के कार्यकर्ता जितनी तेजी से सक्रिय हुए, उससे साफ है कि वे मौके का फायदा उठाना चाहते हैं। उनकी दिलचस्पी पीड़ित परिवार के प्रति हमदर्दी व्यक्त करने में नहीं है। कांग्रेस ने फौज-फाटा के साथ और कैमरामैन और रिपोर्टरों की भारी भीड़ जमा करके इस परिघटना का पूरा लाभ लेने का प्रयास किया। पर यह मौका किसने दिया? हाथरस प्रशासन ने।

गुरुवार को कांग्रेस के हल्ला बोल से कानून-व्यवस्था के अलावा कोरोना के कारण लागू सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का भी जमकर उल्लंघन हुआ। बेशक उसे विरोध जताने का हक है, पर यह प्रकरण खत्म नहीं हुआ है। अदालतों और दूसरे लोकतांत्रिक मंचों पर इस मामले को उठाने के मौके हैं। इसे सनसनीखेज बनाने के नुकसान हैं। कांग्रेस क्या बलात्कार की समस्या का समाधान आंदोलनों से करना चाहती है? एनसीआरबी के आँकड़ों पर नजर डालें, तो पाएंगे कि बलात्कार के मामलों में राजस्थान सबसे ऊपर और यूपी सबसे नीचे है। विरोध प्रदर्शन से बलात्कार की समाप्ति होती है, तो राजस्थान और केरल जैसे राज्यों में उनकी ज्यादा जरूरत है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पिटी हुई पार्टी है। वह फिर से खड़े होने की कोशिश कर रही है। इसके लिए वह खबरों में रहना चाहती है। राहुल गांधी के नेतृत्व को पुनर्स्थापित करने का काम भी है। प्रवासी मजदूरों के पलायन के समय उनके लिए बसों की सुविधा को लेकर पार्टी ने हरकत की थी।  फिर विकास दुबे प्रकरण के कारण पैदा हुए जातीय समीकरणों का लाभ उठाने की कोशिश भी की। अस्तित्व रक्षा के लिए पार्टी के प्रयास समझ में आते हैं, पर उसे यह भी समझना होगा कि वह इस सोशल इंजीनियरी में विफल क्यों हुई? एक समय तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज था, आज वह चौथे स्थान पर क्यों है?

उत्तर प्रदेश सरकार पिछले कुछ समय से अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई के दावे कर रही है। मार्च, 2017 से अबतक उत्तर प्रदेश में छह हजार से ज्यादा एनकाउंटर हो चुके हैं। यानी औसतन हर रोज पाँच एनकाउंटर। पर क्या एनकाउंटरों से अपराध रुक जाएंगे? सरकार उस अपराध को खत्म करना चाहती है, जिसे बढ़ावा देने के आरोप राजनीति पर हैं। राजनीति और अपराध के इस गठजोड़ को कौन तोड़ेगा? 

एक अरसे से पुलिस सुधार की बातें हो रही हैं, पर उस दिशा में बड़े कदम नहीं उठाए गए हैं। राजनीतिक दल किसी न किसी रूप में पुलिस पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। सन 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ मामले में पुलिस सुधार के लिए सात दिशा-निर्देश जारी किए थे। सत्रह राज्यों ने अपने पुलिस एक्ट में संशोधन करके और दस ने कार्यपालिका के आदेशों के माध्यम से सुधारों का आभास दिया है, पर व्यावहारिक रूप से कोई बड़ा कदम उठाया नहीं गया है।

उत्तर प्रदेश सरकार बड़े स्तर पर राज्य में औद्योगीकरण के प्रयास कर रही है। विदेशी पूँजी निवेश की तैयारियाँ हो रहीं हैं। उसके लिए कानून-व्यवस्था की स्थिति को बेहतर बनाना होगा। हाथरस का मामला अब टेस्ट केस बन गया है।

देखना यह भी होगा कि हाथरस की कहानी क्या है। तथ्यों को सामने लाने में राजनीतिक दलों से ज्यादा बड़ी भूमिका मीडिया की है। पर पिछले कुछ वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सनसनी का जो रास्ता पकड़ा है, उसे देखते हुए लगता नहीं कि तथ्यों को सामने लाने में उसकी दिलचस्पी है। सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण के बाद से चैनलों के बीच टीआरपी की जबर्दस्त मारकाट है। इसके समानांतर सोशल मीडिया में भ्रामक जानकारियों की बाढ़ है। यह सब डरावना है। 

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

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