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Thursday, October 15, 2020

क्या हम पाकिस्तानी हरकतों को भूल जाएं?

 

फ्राइडे टाइम्स से साभार

इमरान खान के सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ के भारतीय पत्रकार करन थापर से साक्षात्कार को न तो भारतीय मीडिया ने महत्व दिया और न भारत सरकार ने। इस खबर को सबसे ज्यादा महत्व पाकिस्तानी मीडिया में मिला। इसके अलावा भारत के कश्मीरी अखबारों में इस इंटरव्यू का उल्लेख हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में अल जजीरा के अलावा किसी उल्लेखनीय प्लेटफॉर्म पर यह खबर देखने को नहीं मिली।

सोशल मीडिया पर जरूर इसका उल्लेख हुआ है, पर ज्यादातर पाकिस्तानी हैंडलों के मार्फत। रेडिट पाकिस्तान में मोईद युसुफ की तारीफ से जुड़ी कुछ टिप्पणियाँ देखने को मिली हैं। पाकिस्तानी अखबारों में सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी जरूर होंगी। मैंने डॉन की टिप्पणी को देखा है, जिसमें वही घिसी-पिटी बातें हैं, जो अक्सर पाकिस्तान से सुनाई पड़ती हैं। इनमें सबसे ज्यादा महत्व इस बात को दिया गया है कि भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की पेशकश की है। गुरुवार को भारतीय विदेश विभाग के प्रवक्ता ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि भारत की ओर से ऐसा कोई संदेश नहीं भेजा गया है। 

मान लिया कि ऐसी कोई पेशकश है भी तो यह कम से कम औपचारिक रूप से नहीं है। यदि यह बैकरूम गतिविधि है, तो मोईद साहब ने इसकी खबर देने की जरूरत क्यों समझी? यह किसी संभावना को खत्म करने की कोशिश तो नहीं है? इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि नवाज शरीफ ने बातचीत के पेशकश की थी, जिसमें पाकिस्तानी सेना ने न केवल अड़ंगा लगाया, बल्कि नवाज शरीफ के खिलाफ इमरान खान को खड़ा किया। इस वक्त उनका कठपुतली नरेश राजनीतिक संकट में है और लगता यही है कि इस खबर के बहाने पाकिस्तानी जनता का ध्यान कहीं और ले जाने की कोशिश है। फिर भी मोईद साहब की बातों पर गौर करने की जरूरत भी है।

अबतक क्या हुआ?

द वायर ने इस इंटरव्यू का वीडियो जारी करने के पहले करन थापर का लिखा एक कर्टेन रेज़र जारी किया था, जिसमें पहला वाक्य था कि पाकिस्तानी एनएसए ने यह रहस्योद्घाटन किया है कि भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की पेशकश की है। साथ ही यह भी कहा कि हम तो बात तभी करेंगे, जब कश्मीरियों को तीसरे पक्ष के रूप में शामिल किया जाएगा। यहाँ यह याद दिलाना बेहतर होगा कि 2014 में जब नवाज शरीफ नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आए थे, तब उन्होंने कश्मीरी प्रतिनिधियों से बात नहीं की थी। उसके बाद सुषमा स्वराज और सरताज अजीज की प्रस्तावित बात इसीलिए नहीं हो पाई थी, क्योंकि सरताज अजीज कश्मीरियों से बात करने के बाद ही उस वार्ता में शामिल होना चाहते थे।

इसके बाद दोनों देशों के बीच अनौपचारिक बातचीत के कुछ दौर चलने के बाद जुलाई 2015 में उफा में दोनों पक्षों के बीच बातचीत का एक मजमून फिर तैयार हुआ, जिसे पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप से रद्द करना पड़ा। उसी वक्त यह भी तय हुआ था कि नरेन्द्र मोदी नवम्बर 2016 में पाकिस्तान में होने वाले सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। 25 दिसम्बर 2015 को नरेन्द्र मोदी काबुल से वापसी के समय लाहौर में रुके। यह अनौपचारिक यात्रा थी। नवाज शरीफ के परिवार में एक शादी थी, जिसमें शामिल होने के इरादे से मोदी लाहौर में उतरे थे। तब तक तय हो चुका था कि 15 जनवरी 2016 को दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक में भविष्य के विचार-विमर्श की रूपरेखा बनाई जाएगी।

मोदी की लाहौर यात्रा के एक हफ्ते बाद 2 जनवरी 2016 को पठानकोट पर हमला हुआ। इस हमले ने सारी कहानी बदल दी। इसके बाद की जाँच में भारत ने पाकिस्तानी टीम को भारत आने का निमंत्रण दिया। इतना ही नहीं उन लोगों के फोन नम्बर भी दिए, जिनपर पठानकोट हमले का शक था या जो पाकिस्तान में बैठे उनके उस्ताद थे। मोईद साहब से पूछा जाना चाहिए था कि इस जानकारी का क्या हुआ? मुम्बई हमले से जुड़े लोगों की आवाज के नमूनों का क्या हुआ?

आतंकवाद की शुरुआत

बेशक 75 मिनट के इंटरव्यू में करन थापर कई बार झुँझलाए। इसकी कोई जरूरत नहीं थी। पाकिस्तान आज कश्मीरियों को तीसरी पार्टी बनाना चाहता है, पर संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में उसने ऐसा कोई नुक्ता नहीं जोड़ा था कि कश्मीर के भारत या पाकिस्तान में विलय के अलावा एक तीसरा विकल्प भी होना चाहिए। सच यह है कि आतंकवाद पहला मसला है। सन 1947 के अक्तूबर में पाकिस्तानी सेना ने पूरी तैयारी के साथ कबायलियों की भीड़ को अपने साथ लेकर कश्मीर पर हमला बोला था। कश्मीरियों को मारा और लूटा था। वह आतंकवाद का पहला उदाहरण था। भारतीय सेना ने कश्मीर में प्रवेश तब किया था, जब वहाँ के महाराजा ने विलय के संधि-पत्र पर दस्तखत कर दिए थे।

मोईद साहब कहते हैं कि मेरी तुलना अजित डोभाल से कीजिए। यानी कि मैं अकादमिक और वे फौजी!’  उन्हें याद नहीं कि 2015 में उफा घोषणा के बाद सबसे पहले सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज को हटाकर उनकी जगह एक पुराने फौजी जनरल नसीर खान जंजुआ को सुरक्षा सलाहकार बनाया गया था। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वे खुद इमरान के सलाहकार हैं और इमरान सेना की कठपुतली। उन्होंने एक पिटी-पिटाई बात को दोहराया कि कश्मीर का समाधान संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के तहत किया जाए। उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि आज इकहत्तर साल बाद हम यह बात क्यों सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो गया?

सुरक्षा परिषद की भूमिका

संरा प्रस्ताव की फिर चर्चा है। दो बातों पर विचार करें। तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही है? पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवादग्रस्त क्षेत्र है। हाल में सुरक्षा परिषद में भारतीय प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि कश्मीर के आउटडेटेड एजेंडा को परिषद की सूची से हटा देना चाहिए। सच यह है कि सन 1947-48 में संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह ब्रिटिश-अमेरिकी प्रभाव में था। ब्रिटिश सरकार ने उस समय पाकिस्तान का साथ दिया। इसके राजनीतिक निहितार्थ पर भी कभी चर्चा होनी चाहिए। पर यह तो साफ है कि संरा प्रस्ताव तब लागू नहीं हुआ, तो उसके पीछे पाकिस्तान था। उसने ही प्रस्ताव को लागू होने नहीं दिया।

सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।

प्रस्ताव 47 के तहत जनमत संग्रह के पहले तीन चरणों की एक व्यवस्था कायम होनी थी। इसकी शुरुआत पाक अधिकृत क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना और कबायलियों की वापसी से होनी थी। पाकिस्तान ने ही उसे स्वीकार नहीं किया, तो उसे लागू कैसे किया जाता। पाकिस्तान बुनियादी तौर पर जनमत संग्रह के पक्ष में था भी नहीं। नवम्बर 1947 में भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन पाकिस्तान गए थे और उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात करके उनसे पेशकश की थी कि कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ तीनों रियासतों में जनमत संग्रह के माध्यम से फैसला कर लिया जाए। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

ब्रिटेन ने उलझाया

हम पिछले सत्तर वर्ष की वैश्विक राजनीति पर गौर करें, तो पाएंगे कि कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ने न्याय और कानून के नज़रिए से देखा ही नहीं। शीतयुद्ध के कारण ब्रिटेन और अमेरिका ने इसे शुद्ध राजनीति का विषय बनाया। विचार तो इस बात पर होना चाहिए था कि कश्मीर का विलय नियमानुसार हुआ या नहीं। अक्तूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना के समर्थन से कबायलियों ने कश्मीर पर हमला बोला था। सच यह है कि सुरक्षा परिषद इस मामले को सुलझाने में नाकामयाब रही। सन 1965 के बाद से उसने कोशिश भी बंद कर दी है।

ब्रिटेन और अमेरिका के रुख के कारण भारत की दिलचस्पी सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों से हट गई और धीरे-धीरे उसने वैश्विक मध्यस्थता से किनारा कर लिया। सुप के प्रस्ताव में महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का जिक्र नहीं था। जिक्र होता, तो कश्मीर में पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति को ‘भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण’ माना जाता। विशेषज्ञों का एक वर्ग मानता है कि सुरक्षा परिषद की इस भूमिका के पीछे ब्रिटेन का हाथ था। ब्रिटेन ने अमेरिकी नीतियों को भी प्रभावित किया था।

संरा की विफलता को पाकिस्तान ने भी स्वीकार कर लिया था। समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसम्बर 2003 को परवेज़ मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, ‘हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका (लेफ्ट एसाइड) है’ और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है।’ यह बात आगरा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई 2001) के बाद की है। सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों की रोशनी में समाधान खोजने का सुझाव तमाम लोग देते हैं, पर इन प्रस्तावों को एकसाथ रखकर पढ़ें, तो साफ नजर आता है कि वैश्विक राजनीति और शीतयुद्ध की गरमी में समाधान के सारे प्रयास निष्फल होते रहे।

ज़माना गया जब…

आज का भारत 1947 का भारत नहीं है। यह बात पाकिस्तान, अमेरिका और ब्रिटेन और चीन सबको समझनी चाहिए। पिछले साल सितंबर के आखिरी हफ्ते में संरा महासभा में होहल्ला मचाने के बाद पाकिस्तान को अपनी हैसियत का पता लग गया है। इमरान खान ने जितने आवेश और तैश में एटमी युद्ध की धमकियाँ दी थीं, वे उल्टे उनके गले पड़ेंगी। महासभा में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के भाषणों में वह अंतर देखा जा सकता है, जो दोनों देशों के वैश्विक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।

दोनों देशों के नेताओं के पिछले कुछ वर्षों के भाषणों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो पाएंगे कि पाकिस्तान का सारा जोर कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण और उसकी नाटकीयता पर है। पिछले साल वह नाटकीयता सारी सीमाएं पार कर गई। दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कश्मीर और पाकिस्तान का एकबार भी जिक्र किए बगैर एक दूसरे किस्म का संदेश दिया है।

इस साल भी नरेंद्र मोदी ने केवल भारत की विश्व-दृष्टि को पेश किया। पिछले नौ साल में दूसरी बार संरा महासभा में प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री ने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। नरेंद्र मोदी ने कश्मीर पर कुछ नहीं कहा, पर इमरान खान ने तमाम अनाप-शनाप बातें बोलीं। इनका जवाब भारत के विदेश मंत्रालय की प्रथम सचिव विदिशा मित्रा ने उत्तर देने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिया। उन्होंने कहा कि क्या पाकिस्तान इस बात को नहीं मानेगा कि वह दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादी को पेंशन देता है? क्या वह इस बात से इंकार करेगा कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने अपने 27 में से 20 मानकों के उल्लंघन पर उसे नोटिस दिया है? एफएटीएफ की बैठक फिर होने वाली है और पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। उसे काली सूची में जाना चाहिए, पर चीन, तुर्की और मलेशिया की मदद से वह बचा हुआ है।

एटमी धमकी

इमरान खान ने पिछले साल अमेरिकी इंस्टीट्यूट ऑफ पीस में कहा था कि सन 2011 में जब अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मारा था, तो उन्होंने अपमानित महसूस किया था। विदिशा मित्रा ने यह भी कहा कि इमरान क्या इस बात की पुष्टि करेंगे कि संरा द्वारा घोषित 130 आतंकवादी और 25 आतंकवादी संगठनों का डेरा पाकिस्तान में है?अब जब उन्होंने दुनिया के पर्यवेक्षकों को पाकिस्तान आने का निमंत्रण दिया है कि वे देखें कि कोई भी आतंकवादी संगठन उनके यहाँ नहीं है, तो उम्मीद है कि दुनिया उनसे इस वायदे को पूरा करने का अनुरोध करेगी। आपके देश ने 1971 में कैसा नरसंहार किया था? कृपया अपने इतिहास-ज्ञान को दुरुस्त करें।

इमरान खान ने जो एटमी धमकी दी थी, वह सही है या इस साल मोईद साहब का शांति संदेश सही है?  कश्मीर में धारा 370 के निष्प्रभावी होने के बाद संरा महासभा में इमरान खान ने धमकी दी थी कि कर्फ्यू हटने पर कश्मीर में खून-खराबा होगा। पुलवामा जैसा हमला फिर हो सकता है। दोनों देशों के बीच लड़ाई हो जाएगी। चूंकि पाकिस्तान छोटा देश है, इसलिए हम हारे तो समर्पण नहीं करेंगे, बल्कि लड़ेंगे। एटम बम का इस्तेमाल भी हो सकता है, जिसका सारी दुनिया पर असर होगा। कल्पनाएं ही कल्पनाएं। पाकिस्तान बुरी तरह घिर चुका है। उसकी उन्मादी बातों से समस्या का समाधान नहीं होगा।

आयशा सिद्दीका के इस लेख को भी पढ़ें 

16 अक्तूबर 2020 के हिन्दुस्तान टाइम्स में इस विषय पर सम्पादकीय

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