बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। फैसले से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।
हमारी धर्म निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था और प्रशासनिक के साथ यह राजनीति की परीक्षा की घड़ी भी है। मंदिर-मस्जिद विवाद को राजनीति से अलग करके नहीं देखना चाहिए। अभी इसके व्यापक निहितार्थ देखने को मिलेंगे। पर सबसे बड़ा असर सामाजिक जीवन में देखने को मिलेगा। कई बार हम सोचते हैं कि समय बड़े-बड़े घाव भर देता है। पर भावनाओं के मामले में समय घाव भरता नहीं उन्हें कुरेदता है।
न्याय एक
प्रक्रिया का नाम है। उसकी गति लक्ष्यों की प्राप्ति या उसके भटकाव को व्यक्त करती
है। करीब 28 साल बाद इस मामले का फैसला हुआ। वह भी तब जब असाधारण अधिकारों का
इस्तेमाल करते हुए सुनवाई की गति तेज की गई। इस प्रक्रिया के समानांतर इस मामले की
जाँच के लिए 16 दिसम्बर 1992 को जस्टिस एमएस लिबरहान की अध्यक्षता में एक जाँच
आयोग गठित किया गया था। इस आयोग को अपनी जाँच में 16 साल लगे। आयोग ने 30 जून 2009
को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। देश में यह सबसे
लम्बे समय तक जाँच थी। इस जाँच से इस मुकदमे का कोई रिश्ता नहीं था।
इस मामले ने
राष्ट्रीय राजनीति को उलट-पुलट कर दिया। इसे हम जल्द से जल्द क्यों नहीं सुलझा पाए? सन 1989 में ही इसका समाधान क्यों नहीं हुआ? हो जाता, तो बाबरी-विध्वंस की नौबत नहीं आती। इस
मामले से जुड़े एक पक्षकार इकबाल अंसारी ने बुधवार को सीबीआई अदालत के फैसले पर
टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले को 9 नवंबर, 2019 को ही खत्म हो जाना चाहिए था। पर
सच यह है कि यह फैसला आने के बाद भी यह प्रकरण खत्म नहीं होगा। अभी यह दो स्तरों
पर चलेगा। एक न्याय के स्तर पर और दूसरा राजनीति की सतह पर।
फौजदारी अदालतें
बगैर साफ सबूत के किसी को अपराधी घोषित नहीं करतीं। दिसम्बर 2017 में जब सीबीआई की
विशेष अदालत ने टू-जी घोटाले में अभियुक्तों को बरी किया था, तब भी यही हुआ था। उस
फैसले के फौरन बाद डीएमके ने ए राजा का शॉल पहनाकर अभिनंदन कर दिया था। बात इतनी
थी कि अभियुक्तों पर दोष सिद्ध नहीं हो पाया था। अपराध के बारे में सोचता कौन है? उस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती देने में समय
लगा और संयोग है कि इसी मंगलवार को अदालत ने जल्द सुनवाई की प्रार्थना को स्वीकार
किया है। न्याय-प्रक्रिया की जो गति है, सो है।
अब इस फैसले के
बाद भी आडवाणी जी समेत 32 आरोपियों को कुछ लोग शॉल पहनाएंगे और कुछ उन्हें
कोसेंगे। पर भावनाओं में बहने से समाधान नहीं होते। बाबरी-विध्वंस के मुकदमे की
सुनवाई भी जल्दी तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया। सुप्रीम
कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को 19 अगस्त, 2020 को आखिरी एक्सटेंशन दिया था। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट
ने कई बार मुकदमे को पूरा करने की समय सीमा बढ़ाई थी। 19 अप्रैल, 2017 को जस्टिस पीसी घोष और आरएफ नरीमन की बेंच
ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए डिस्चार्ज के खिलाफ सीबीआई द्वारा दायर अपील
को अनुमति देकर आरोपियों के खिलाफ साजिश के आरोपों को बहाल किया था। संविधान के
अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए, पीठ ने रायबरेली के एक मजिस्ट्रेट अदालत में
लंबित एक अलग मुकदमे को भी स्थानांतरित कर दिया था और उसे लखनऊ सीबीआई कोर्ट में
आपराधिक कार्यवाही के साथ जोड़ दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने
रोजाना ट्रायल चलाने का आदेश देते हुए मामले को दो साल के भीतर समाप्त करने का
आदेश दिया था। 19 जुलाई, 2019 को जस्टिस
आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाले पीठ ने ट्रायल कोर्ट को छह महीने के भीतर साक्ष्य की
रिकॉर्डिंग पूरी करने और नौ महीने के भीतर निर्णय देने का निर्देश दिया था। कोर्ट
ने यूपी सरकार को यह भी निर्देश दिया था कि वह सीबीआई कोर्ट, लखनऊ के विशेष न्यायाधीश के कार्यकाल को बढ़ाने
के लिए प्रशासनिक आदेश जारी करे। जज 30 सितंबर, 2019 को सेवानिवृत्त होने वाले थे। बाद में, 8 मई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच, जिसमें जस्टिस नरीमन और सूर्यकांत शामिल थे, ने विशेष सीबीआई कोर्ट, इस मामले में फैसला देने की समय सीमा 31 अगस्त, 2020 तक बढ़ा दी थी। इस साल 24 जुलाई को ट्रायल
कोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आडवाणी का बयान दर्ज किया था।
इस मुकदमे के
राजनीतिक निहितार्थ जगजाहिर हैं। इसलिए इस फैसले को लेकर दो तरह की विपरीत
प्रतिक्रियाएं हैं। कांग्रेस महासचिव और मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा
कि सुप्रीम कोर्ट के 9 नवंबर, 2019 के निर्णय
के मुताबिक़ बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध था, पर विशेष अदालत ने सब दोषियों
को बरी कर दिया। अदालत का निर्णय साफ़ तौर से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रतिकूल
है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जीलानी का कहना है कि सीबीआई की अदालत
का फैसला सही नहीं है और हम इसे हाईकोर्ट में चुनौती देंगे।
सवाल है कि क्या
सीबीआई भी चुनौती देगी? सीबीआई के अलावा
किसी भी समुदाय के व्यक्ति को इसे चुनौती देने का अधिकार है। यानी कि एक और
न्याय-प्रक्रिया अब शुरू होगी। अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसमें सभी 32 आरोपियों
को बरी कर दिया गया। न्यायाधीश सुरेन्द्र कुमार यादव ने कहा कि आरोपियों के खिलाफ
कोई साक्ष्य नहीं हैं। उनके फैसले का दूसरा बिंदु यह है कि विवादित ढांचा गिराने
की घटना पूर्व नियोजित नहीं थी, बल्कि यह घटना अचानक हुई थी। अदालत ने ऐसा नहीं
कहा कि यह घटना नहीं हुई थी या किसी ने उसे गिराया नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ
जो साक्ष्य थे, उनमें ज्यादातर अखबारों की कतरनें, फोटोग्राफ और ऑडियो-वीडियो प्रमाण
थे। अदालत ने माना कि केवल घटनास्थल पर उपस्थिति या बयानों के आधार पर इन्हें दोषी
नहीं माना जा सकता।
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने उस जटिल गुत्थी को सुलझाया, जिस
काम से वह पहले बचती रही थी। पाँच जजों के बेंच के सभी जजों ने एकमत से फैसला किया
और केवल एक फैसला किया। उसमें कॉमा-फुलस्टॉप का भी फर्क नहीं रखा। फैसले को
राजनीतिक नजरिए से देखने की कोशिशें भी हुईं, पर सफल नहीं हुईं। अदालत ने एक
जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। अदालत ने सुनवाई पूरी होने के बाद सभी
पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। मध्यस्थता
समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई हल नहीं निकल पाया। अदालत ने ऐसी कोशिश
क्यों कीं? ताकि सभी को स्वीकार्य रास्ता निकल सके। पता
नहीं रास्ता निकला या नहीं निकला।
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