मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले ‘एडिटिंग एंड डिजाइन’ शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो गई।
हैरल्ड इवांस ने मेरे जैसे न जाने कितने पत्रकारों को प्रेरित
प्रभावित किया। मुझे खुशी तब हुई, जब सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में एमजे अकबर के
नेतृत्व में आनंद बाजार पत्रिका समूह ने नई धज का अखबार टेलीग्राफ शुरू किया, तो
उसमें इनसाइट नाम से एक पेज भी था, जो शायद ‘संडे टाइम्स’ के इनसाइट से प्रेरित था। मैं उन दिनों स्वतंत्र
भारत में काम करता था। ‘संडे टाइम्स’
की एक कॉपी पायनियर के दफ्तर में आती थी, जो डॉ सुरेंद्र नाथ घोष के कमरे में रहती
थी। हमें पढ़ने को नहीं मिलती थी। इधर-उधर से या ब्रिटिश लाइब्रेरी जाकर पढ़ लेते थे। अक्तूबर 1983 में मैं नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में आया, तो वहाँ ‘संडे टाइम्स’ पढ़ने को मिलता था। राजेंद्र
माथुर दिल्ली से एक कॉपी भिजवाते थे। पर तबतक हैरल्ड इवांस ‘संडे टाइम्स’ से हट चुके थे।
हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा।
हैरल्ड इवांस ने करीब 14 साल तक ‘संडे टाइम्स’ के सम्पादक के रूप में खोजी पत्रकारिता के मानक स्थापित किए। सन 1981 में
रूपर्ट मर्डोक ने अखबार को खरीद लिया और वे एक साल तक लंदन टाइम्स के दैनिक
संस्करण के सम्पादक रहे। फिर मर्डोक के साथ सम्पादकीय अधिकारों को लेकर असहमति
होने पर उन्होंने पद त्याग दिया। उनका कहना था कि ब्रिटिश सरकार ने मर्डोक को यह
अखबार खरीदने की अनुमति इस शर्त के साथ दी थी कि इसकी सम्पादकीय स्वायत्तता बनी
रहेगी। बहरहाल इसके कुछ साल बाद वे अपनी पत्रकार पत्नी टीना ब्राउन के साथ अमेरिका
आ गए।
अमेरिका में आकर उन्होंने लेखक, प्रकाशक और
विश्वविद्यालय-वक्तृताओं की एक नई भूमिका को अपनाया। इस दौरान कई किताबें लिखीं,
जिनमें ‘अमेरिकन सेंचुरी’ (1998) और उसकी पूरक ‘दे मेड अमेरिका’ (2004) लिखी
और फिर 2017 में अच्छे लेखन को लेकर ‘डू आय मेक मायसेल्फ क्लियर’ लिखी। पर
पत्रकार के रूप में 1983 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘गुड टाइम्स, बैड टाइम्स’ खासतौर से उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने अखबार के मालिक
रूपर्ट मर्डोक और ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के साथ अपने
रिश्तों के बारे में लिखा है। सन 2011 में ब्रिटेन के फोन हैकिंग स्कैंडल में
रूपर्ट मर्डोक की छीछालेदर के बाद इस किताब में नए प्रसंग जोड़कर इसे फिर से जारी
किया गया।
इवांस 1990 से 1997 तक रैंडम हाउस के प्रेसीडेंट और प्रकाशक
भी रहे। 1993 में वे अमेरिका के नागरिक बन गए। सन 2011 में वे रायटर्स के
एडिटर-एट-लार्ज बने। दुनियाभर के प्रतिष्ठित नागरिकों, लेखकों, राजनेताओं और
उद्योगपतियों के साथ वे संवाद भी चलाते रहे। कहने का मतलब यह कि 92 वर्ष की अवस्था
तक वे सक्रिय रहे। सन 2004 में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ ने उन्हें ब्रिटिश
पत्रकारिता की सेवा करने के लिए नाइट का खिताब प्रदान किया। उसके दो साल पहले
उन्हें ब्रिटिश प्रेस गजट और ब्रिटिश जर्नलिज्म रिव्यू ने सार्वकालिक श्रेष्ठतम
समाचार सम्पादक के सम्मान से अलंकृत किया था।
उनका शुमार दुनिया के सार्वकालिक
श्रेष्ठतम सम्पादकों में किया जा सकता है, पर उन्हें एक विडंबना के लिए याद किया
जाएगा। उन्होंने रूपर्ट मर्डोक जैसे मीडिया बैरन से पंगा लिया और अंततः उन्हें
ब्रिटेन छोड़कर अमेरिका जाना पड़ा। जीवन के शेष 38 साल उन्होंने अमेरिका में बिताए।
अपनी प्रतिभा और अदम्य ऊर्जा के सहारे वहाँ भी नाम कमाया, पर सम्पादक नहीं लेखक के
रूप में।
इवांस के पिता रेलवे में ड्राइवर
थे और उनकी माँ ने घर के बाहर वाले कमरे में छोटी सी दुकान लगाई थी, ताकि कुछ कमाई
होती रहे। वे चार भाइयों में सबसे बड़े थे। वे स्कूली शिक्षा की सीढ़ी यानी 11वीं
पास नहीं कर पाए, तो शॉर्टहैंड स्कूल में भरती हो गए, जो उन दिनों पत्रकारिता की
पहली सीढ़ी था। शायद वे इसी काम के लिए बने थे। सोलह साल की उम्र में उन्होंने एक
साप्ताहिक में नौकरी शुरू की। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई का अभियान फिर शुरू किया और
उन्हें डरहम विवि में दाखिला मिल गया। सन 1952 में वे स्नातक बने। उनकी शुरुआत क्षेत्रीय अखबारों से हुई थी और उनकी दिलचस्पी शुरू से ही
पत्रकारिता के क्राफ्ट में थी। यानी कि स्टाइल, पेज ले-आउट, टाइपोग्राफी वगैरह। वे
अपने प्रतिस्पर्धी से भी कुछ सीखते थे।
जब वे ‘मैनचेस्टर ईवनिंग न्यूज’ में सब-एडिटर थे, उन्हें इंटरनेशनल प्रेस
इंस्टीट्यूट ने न्यूजपेपर तकनीक की शिक्षा देने के लिए भारत भेजा। 1955-56 में
उन्हें एक फैलोशिप मिली और अमेरिका पढ़ने चले गए। वापस आने पर ‘मैनचेस्टर ईवनिंग न्यूज’ में असिस्टेंट एडिटर के पद पर
उनकी नियुक्ति हुई। 1961 में वे क्षेत्रीय अखबार ‘नॉर्दर्न ईको’ के सम्पादक बने। इस अखबार में रहते हुए उन्होंने
मानवाधिकार और अन्याय-विरोधी अपनी पत्रकारिता शक्ल दी। सन 1966 में वे लंदन आ गए
और संडे टाइम्स के सम्पादक के सहायक बन गए। थॉमसन ऑर्गनाइजेशन ने उन्हीं दिनों वह
अखबार खरीदा था और कुछ समय ‘संडे टाइम्स’
में तत्कालीन सम्पादक डेनिस हैमिल्टन टाइम्स ग्रुप के प्रधान सम्पादक बना दिए गए।
उन्होंने ही कम्पनी बोर्ड को सुझाव दिया कि हैरल्ड इवांस को ‘संडे टाइम्स’ का सम्पादक बनाएं।
हैरल्ड इवांस के निधन के बाद लंदन
के अखबार ‘गार्डियन’ में उनके बारे में अपने लेख में ‘ऑब्ज़र्वर’ अखबार के पूर्व सम्पादक डोनाल्ड
ट्रेलफोर्ड ने लिखा, ‘हैरल्ड इवांस हमारे ऑब्ज़र्वर के सबसे जबर्दस्त प्रतिस्पर्धी थे। सम्पादक और
डिप्टी-सम्पादक के रूप में उन्होंने ‘संडे टाइम्स’
में करीब 12 से 14 साल तक जैसी इनवेस्टिगेटिव खबरें छापी, उनका जवाब नहीं। मुझे
याद है सन 1967 का वह दिन हमारी सम्पादकीय बैठक में, तत्कालीन सम्पादक डेविड एस्टर
ने पूछा, कोई जानता है उसके बारे में? मैंने हाथ
उठाया और कहा, वह क्रुसेडर (योद्धा) है। मेरे पास ‘नॉर्दर्न ईको’ में उनके काम की
जानकारी थी। हैरल्ड इवांस ने टिमोथी इवांस के एक मामले को जोरदार तरीके से उठाया
था, जिसे अपनी पत्नी और बेटी की हत्या के आरोप में फाँसी पर लटकाया गया था। और जो
बाद में निर्दोष साबित हुआ और उसके खिलाफ गवाही देने वाला सरकारी गवाह दोषी साबित
हुआ था।’ उसके बाद से
1981 तक ‘संडे टाइम्स’ ने इनवेस्टिगेटिव पत्रकारिता की धूम मचा दी।
शुक्रिया प्रमोद जी। वे इस श्रृद्धांजलि के वाकई हकदार हैं और नयी पीढ़ी के पत्रकारों कुछ ज़रूर ऐसे होंगे जो उनसे प्रेरणा लेंगे।
ReplyDeleteप्रेरणादायक।
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