लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून की रात हुए हिंसक संघर्ष के बाद दुबारा कोई बड़ी घटना नहीं हुई है, पर समाधान के लक्षण भी नजर नहीं आ रहे हैं। सन 1962 के बाद पहली बार लग रहा है कि टकराव रोकने का कोई रास्ता नहीं निकला, तो वह बड़ी लड़ाई में तब्दील हो सकता है। दोनों पक्ष मान रहे हैं कि सेनाओं को एक-दूसरे से दूर जाना चाहिए, पर कैसे? अब जो खबरें मिली हैं, उनके अनुसार टकराव की शुरूआत पिछले साल सितंबर में ही हो गई थी, जब पैंगांग झील के पास दोनों देशों के सैनिकों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें भारत के दस सैनिक घायल हुए थे।
शुरूआती चुप्पी के बाद भारत सरकार ने औपचारिक रूप से 25 जून को स्वीकार किया कि मई के महीने से चीनी सेना ने घुसपैठ बढ़ाई है। गलवान घाटी में पेट्रोलिंग पॉइंट-14 (पीपी-14) के पास हुई झड़प के बाद यह टकराव शुरू हुआ है। लगभग उसी समय पैंगांग झील के पास भी टकराव हुआ। दोनों घटनाएं 5-6 मई की हैं। उसी दौरान हॉट स्प्रिंग क्षेत्र से भी घुसपैठ की खबरें आईं। देपसांग इलाके में भी चीनी सैनिक जमावड़ा है।
यह सब सामान्य नहीं है। जो भी हो रहा है उसका दूरगामी असर होगा। चीनी सेना पीछे नहीं हटेगी, तो हम क्या करेंगे? क्या हम चीन जैसे प्रतिस्पर्धी से लड़ सकते हैं? विशेषज्ञ मानते हैं कि लड़ाई हुई, तो भारतीय सेना हल्की नहीं पड़ेगी, पर लड़ाई की परिणति क्या होगी? अब यह भी कहा जा रहा है कि लड़ाई का विस्तार हिंद महासागर तक भी हो सकता है। क्या यह एक नए शीतयुद्ध की शुरुआत है, जिसके केंद्र में भारत है?
चीनी मंशा क्या है?
यह अभी पहेली है कि चीन ने ऐसे मौके पर यह पंगा मोल क्यों लिया, जबकि अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर उसकी गाड़ी अटकी पड़ी है। अटकलें कई तरह की हैं। कहा जा रहा है कि मोल-भाव की किसी योजना के साथ वह सीमा पर आया है, ताकि भारत के साथ दीर्घकालीन रिश्ते कायम हों और उसका अमेरिकी झुकाव कम हो। चीन ने रूस और मध्य एशिया के तीन देशों कजाकिस्तान, किर्गीजिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ इसी तरह अपने सीमा विवादों को निपटाया था।
चीन को लड़ाई से क्या हासिल होगा? शायद वह दबाव बनाना चाहता है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विवाद उठते ही रहेंगे। उसके नक्शे भी ठीक से दोनों पक्षों के पास नहीं हैं। अपने-अपने दावे हैं, जो सीमा को लेकर हैं। चीन के सीमा विस्तार की रणनीति को ‘सलामी स्लाइस’ की संज्ञा दी जाती है। माना जाता है कि चीनी सेनाएं धीरे-धीरे किसी इलाके के में गश्त के नाम पर घुसपैठ बढ़ाती हैं और सलामी के टुकड़े की तरह उसे दूसरे देश से काटकर अपनी प्लेट में रख लेती हैं। दक्षिण चीन सागर में उसकी यही रणनीति है, जहाँ उसने समुद्र पर कई कृत्रिम द्वीप तैराकर उनके ऊपर अपनी सेनाएं तैनात कर दी हैं।
हमारे दोस्त कौन हैं?
एक सवाल और है। लड़ाई हुई, तो क्या कोई हमारा साथ देगा? ऐसे दौर में जब अमेरिका का सूर्यास्त करीब है, क्या हमें उससे दोस्ती गाँठनी चाहिए? विदेश, रक्षा और आर्थिक नीतियों से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें कसौटी पर हैं। पिछले साल जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से चीन व्यग्र है। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मामले को उठाने की कोशिश की है। उसमें विफल होने के बाद शायद उसके पास कोई ज्यादा बड़ी योजना है।
यह बात भी समझ में आ रही है कि लड़ाई हुई, तो केवल स्थानीय स्तर पर नहीं होगी। सेनाओं के पास स्थानीय लक्ष्य नहीं हैं। मसलन भारतीय सेना चीनी सेना को दस-बीस किलोमीटर पीछे धकेल भी दे, तो हासिल क्या होगा? छेड़छाड़ कहीं और हो सकती है। चीन ने अब पूरी गलवान घाटी को अपना बताया है, जो नया दावा है। उसके पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है, पर दावा है तो है। वह सीमा के आसपास के क्षेत्र में भारतीय रक्षा निर्माणों के कारण परेशान है।
हाल में भारत ने लद्दाख में सड़कें बनाई हैं, हवाई पट्टियों का निर्माण किया है या पुरानी पट्टियों को सुधारा है। पिछले अक्तूबर में भारतीय सेना ने 1400 फुट लंबे कर्नल चेवांग रिनचेन पुल को खोला। इस पुल से भी चीन की चिंता बढ़ी है। डीएसडीबीओ (दरबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्दी) नाम की 255 किलोमीटर लम्बी सड़क शायद चीन को सबसे ज्यादा खटकी है। इस सड़क के बन जाने के बाद भारतीय सेना का कराकोरम दर्रे तक पहुँचना आसान हो गया है। गलवान घाटी के जिस इलाके पर चीन कब्जा करना चाहता है, वहाँ से यह पुल निशाने पर आ जाता है।
इन स्थानीय बातों के साथ-साथ चीन की दिलचस्पी भारत की विदेश नीति में आते दीर्घकालीन बदलाव पर भी है। पिछले तीन साल में भारतीय नौसेना ने हिंद महासागर से लेकर दक्षिण चीन सागर तक अपनी गतिविधियाँ बढ़ाई हैं। अमेरिका से पी-8आई गश्ती विमान खरीदे हैं, जो लम्बी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं और खासतौर से पनडुब्बी विरोधी कार्रवाइयों के लिए उपयोगी हैं। चीन का काफी विदेश-व्यापार मलक्का की खाड़ी के रास्ते से होता है। अब इस सँकरे रास्ते पर भारतीय नौसेना ने कड़ी निगरानी शुरू कर दी है। इस काम में उसे अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का सहयोग मिल रहा है।
अमेरिकी पहलकदमी
हाल में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने ब्रसेल्स फ़ोरम में कहा कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते ख़तरों को देखते हुए अमेरिका ने यूरोप से अपनी सेना की संख्या कम करने का फ़ैसला किया है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अमेरिका यूरोप से अपनी सेना घटाना चाहता है या किसी दूसरे इलाके में बढ़ाना चाहता है, पर अटकलें लगाई जा रही हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र से एक नए शीत युद्ध की शुरूआत होने जा रही है।
उधर अमेरिकी सीनेट ने 25 जून 2020 को हांगकांग की सम्प्रभुता की रक्षा के लिए दो प्रस्तावों को पास किया है, जिससे हांगकांग की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा। यह प्रस्ताव चीन और अमेरिका को आमने-सामने ले आएगा। इसके पहले चीनी संसद ने हांगकांग के कई मामले सीधे चीन सरकार के हाथों में सौंपकर इस टकराव की शुरूआत कर दी थी। अमेरिकी सीनेट ने हांगकांग ऑटोनॉमी एक्ट नाम से जो प्रस्ताव पास किया है, उसका उद्देश्य उन व्यक्तियों और संस्थाओं पर पाबंदियाँ लगाना है, जो हांगकांग की स्वायत्तता को नष्ट करने की दिशा में चीनी प्रयासों के मददगार हैं।
चीन और ब्रिटेन के बीच 1984 में हुई एक संधि के तहत हांगकांग सन 1997 में चीन के अधिकार क्षेत्र में आ गया है, पर 50 साल तक यानी कि 2047 तक उसकी स्वायत्तता बनी रहेगी। पिछले कुछ समय से हांगकांग में नागरिकों का आंदोलन चल रहा है, जिसे लेकर अमेरिका और चीन के बीच तू-तू मैं-मैं हो रही है। ताइवान को लेकर भी तनाव है। पिछले साल जनवरी में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने धमकी दी थी कि हम सैनिक कार्रवाई भी कर सकते हैं। अब प्रशांत महासागर में अमेरिकी नौसेना के तीन जहाजी बेड़ों की तैनाती से तनाव और बढ़ गया है।
किसे चाहिए शीतयुद्ध?
इस तैनाती का भारत-चीन विवाद से कोई लेना-देना नहीं है, पर यह बढ़ते शीत युद्ध का एक लक्षण है। पॉम्पियो ने कहा था कि भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देशों के लिए चीन से बढ़ रहे खतरे का मुकाबला करने के लिए अमेरिका अपने बलों की वैश्विक तैनाती की समीक्षा कर रहा है। यह शीतयुद्ध की शब्दावली है। क्या वास्तव में अमेरिका शीतयुद्ध चाहता है?
अमेरिका की वर्तमान नीति असंलग्नता की है। यानी वह दुनिया के चौकीदार की भूमिका छोड़ना चाहता है। इक्कीसवीं सदी की दुनिया को एक और शीतयुद्ध की जरूरत भी नहीं है। अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (सीएफआर) के अध्यक्ष रिचर्ड एन हास ने कहा है कि बेशक चीन की चुनौती है, पर अमेरिका के सामने इस वक्त पैंडेमिक, जलवायु परिवर्तन, सायबर हमलों और आतंकवाद की चुनौतियाँ हैं। उसे चीन के साथ शीत युद्ध शुरू करने की गलती नहीं करनी चाहिए।
चीनी उभार विचारधारा से जुड़ा नहीं है। वह वैश्विक व्यवस्था के किसी नए मॉडल को लेकर नहीं आ रहा है, बल्कि अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहा है। चीन भी अपनी आंतरिक समस्याओं से घिरा है। वह प्रतिस्पर्धी है, दुश्मन नहीं।
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