प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लद्दाख यात्रा जितनी सांकेतिक है, उससे ज्यादा सांकेतिक है उनका वक्तव्य। यदि हम ठीक से पढ़ पा रहे हैं, तो यह क्षण भारतीय विदेश-नीति के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। मोदी के प्रतिस्पर्धियों को भी उनके वक्तव्य को ठीक से पढ़ना चाहिए। यदि वे इसे समझना नहीं चाहते, तो उन्हें कुछ समय बाद आत्ममंथन का मौका भी नहीं मिलेगा। बहरहाल पहले देखिए कि यह लद्दाख यात्रा महत्वपूर्ण क्यों है और मोदी के वक्तव्य की ध्वनि क्या है।
प्रधानमंत्री की इस यात्रा के एक दिन पहले रक्षामंत्री लद्दाख जाने वाले थे। वह यात्रा अचानक स्थगित कर दी गई और उनकी जगह अगले रोज प्रधानमंत्री खुद गए। सवाल केवल सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने का ही नहीं है, बल्कि देश की विदेश-नीति में एक बुनियादी मोड़ का संकेतक भी है। अप्रेल के महीने से लद्दाख में शुरू हुई चीनी घुसपैठ के बाद से अब तक भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी के बयानों में तल्खी नहीं रही। ऐसा लगता रहा है कि भारत की दिलचस्पी चीन के साथ संबंधों को एक धरातल तक बनाए रखने की है। भारत चाहता था कि किसी तरह से यह मसला सुलझ जाए।
गत 15 जून को गलवान क्षेत्र में हुई हिंसा के
बाद उम्मीद थी कि चीन भी इस मामले की गंभीरता को समझेगा और तनाव और टकराव को आगे
बढ़ाने की कोशिश नहीं करेगा। पिछले दो हफ्ते से सैनिक और राजनयिक स्तर पर लगातार
बातचीत चल ही रही है। पर लगता है कि इस बातचीत का कोई नतीजा निकल नहीं पा रहा है।
चीन अपनी सी पर अड़ा है। इस वजह से भारतीय रुख में बदलाव हुआ है, जिसका पहला संकेत
चीनी 59 एप पर लगी पाबंदियों से मिला है, जिसे रविशंकर प्रसाद ने ‘डिजिटल स्ट्राइक’ बताया है। उसके साथ ही नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि सड़क परियोजनाओं और
छोटे तथा मझोले उद्योगों में चीनी निवेश की जरूरत नहीं है। इसी किस्म के कारोबारी
कदम उठाए भी गए हैं।
लद्दाख जाकर
प्रधानमंत्री ने चीन की विस्तारवादी नीतियों को खुली चुनौती दी है। उनकी बात का
प्रतीकात्मक महत्व है। मोदी ने कहा कि विस्तारवाद का दौर
समाप्त हुआ और भारत के शत्रुओं ने उसके सशस्त्र बलों के ‘कोप और क्रोध’ को देख
लिया है। लगता है कि चीन ने इनके सांकेतिक संदेश को फौरन पढ़ लिया है। हालांकि
प्रधानमंत्री ने चीन का नाम नहीं लिया, पर इसके बाद बीजिंग से और दिल्ली स्थित चीन
के दूतावास से जो बयान जारी हुए हैं, उनसे उसकी खीझ और हताशा दोनों व्यक्त होती हैं।
भारत को दबाव में लेने का जो जुआ उसने खेला है, उसमें बाजी पलट गई है। इसके
राजनयिक नुकसान का तख़मीना उसने देर से लगाया है।
प्रधानमंत्री ने कहा, हम वो लोग हैं जो बांसुरी धारी
श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं, और सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण को भी आदर्श मानते हैं।
इसी प्रेरणा से हर आक्रमण के बाद भारत और सशक्त होकर उभरा है। वीरता ही शांति की
पूर्व शर्त होती है। प्रधानमंत्री का यह भाषण केवल सैनिकों को संबोधित नहीं था। संदेश
साफ है कि चीन ने हमारी शांति-कामना का गलत अर्थ निकाल लिया है। क्या इसे मोदी की
दृष्टि में परिवर्तन मानें या उस दृष्टिकोण की पुष्टि जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद व्यक्त किया था?
यह सच है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद से चीन के साथ लगातार
रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश की। राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ उन्होंने व्यक्तिगत
रिश्ते बनाए, पर साथ ही चीन की विस्तारवादी नीतियों पर भी निगाहें रखीं।
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने 1 सितंबर 2014 की जापान यात्रा के दौरान कहा
था, ‘किसी देश में
एनक्रोचमेंट करना, कहीं समुद्र में घुस जाना, कभी किसी देश के अंदर जा कर कब्जा
करना…इन चीजों की प्रवृत्ति चल रही है।’ यह बात किसके लिए कही गई थी,
यह साफ है और आज एकदम साफ है। मोदी ने तब भी कहा था कि विस्तारवाद इक्कीसवीं सदी
में कारगर नहीं है। आज विकासवाद की जरूरत है। लगभग यही बात उन्होंने लद्दाख में
कही है।
जून के अंतिम सप्ताह में सर्वदलीय बैठक के दौरान मोदी के एक बयान को लेकर काफी
विवाद रहा। हालांकि सरकार ने उस बयान का स्पष्टीकरण भी दिया, पर उनके
प्रतिस्पर्धियों ने उसे लेकर काफी हाहाकार मचाया। प्रधानमंत्री के लद्दाख वक्तव्य
का निष्कर्ष है कि वह जमीन कल भी हमारी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। हाल में चीन
ने कहा था कि पूरी गलवान घाटी हमारी है। अब प्रधानमंत्री ने कहा है कि न केवल गलवान
घाटी हमारी है, पूरा लद्दाख भारत का मस्तक है। हम एक इंच जमीन नहीं छोड़ेंगे। फिलहाल
प्रधानमंत्री के माध्यम से भारत ने अपनी बात कह दी है। अब यह चीन पर निर्भर करता
है कि वह अपनी सेना को उस बिंदु से पीछे हटाता है या नहीं, जहाँ वह पिछले साल
पिछले साल तक थी। चीन ने यदि इस संदेश को नहीं सुना, तो उसे करारा जवाब दिया ही
जाना चाहिए।
वर्तमान घटनाक्रम
से हमें दो सबक जरूर सीखने चाहिए। चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दूसरे घुसपैठ
की किसी भी हरकत का उसी समय करारा जवाब देना चाहिए। इसके पहले 1967 में नाथूला और 1986-87 में सुमदोरोंग में करारी
कार्रवाइयों के कारण चीन की हिम्मत नहीं पड़ी। अब जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन
पर भारतीय संसद के प्रस्ताव पर चीनी प्रतिक्रिया हमारी संप्रभुता पर खुला हमला है।
इसे सहन नहीं किया जाना चाहिए। चीन ने केवल लद्दाख में घुसपैठ ही नहीं की है,
नेपाल को उकसाया है और पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिशें की हैं।
हमें अपने मित्र
और शत्रु देशों की दो श्रेणियाँ बनानी ही होंगी। ऑस्ट्रेलिया, जापान, वियतनाम, फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे देश हैं, जो चीनी उभार की तपिश महसूस कर रहे हैं। हमें उन्हें साथ
लेना चाहिए। बेशक हम किसी के हाथ की कठपुतली न बनें, पर चीन को काबू
में करने के लिए हमें अमेरिका का साथ लेना चाहिए। चीनी अहंकार बढ़ता ही जा रहा है।
उसे रोकने के लिए वैश्विक गठबंधन तैयार करने में कोई हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
यह नकेल अकेले चीन पर नहीं होगी, बल्कि पाकिस्तान पर भी
डालनी होगी।
सबक जरूरी हैं ।
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