राजस्थान में कांग्रेस पार्टी का जो संकट खड़ा हुआ है, वह है क्या? क्या यह कि अशोक गहलोत की सरकार बचे? या यह कि कांग्रेस बचे? अशोक गहलोत इसे अपने ऊपर आए संकट के रूप में भले ही देख रहे हों, पर यह संकट कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व और खासतौर से गांधी-नेहरू परिवार पर है। गहलोत सरकार बच भी गई, तो इस बात की गारंटी नहीं कि कांग्रेस का पराभव रुक जाएगा। पार्टी संकट में है। वह फिर से खड़ी होने की कोशिश में डगमगा रही है। और यह संकट केवल कांग्रेस पार्टी पर ही नहीं है, बल्कि यूपीए के गठबंधन पर भी है।
राजस्थान का विवाद जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार के साथ किस तरह जुड़ गया, क्या हमने इसके बारे में सोचा है? महाराष्ट्र में एनसीपी कांग्रेस के साथ हैं, पर वह कब धोखा दे दे, इसका ठिकाना नहीं। हाल में चीन के संदर्भ में शरद पवार ने राहुल गांधी को सचेत किया कि मोदी की आलोचना ठीक नहीं। ये बातें संगठनात्मक कौशल के साथ-साथ वैचारिक भटकाव की ओर भी इशारा कर रही हैं। इनका दूरगामी असर यूपीए के स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
इस साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं और अगले साल बंगाल में। बिहार में जेडीयू ने नारा दिया है 'क्यों करें विचार, ठीकै तो हैं नीतीश कुमार।' राजद और कांग्रेस का गठबंधन मुकाबले में दिखाई ही नहीं पड़ रहा है। हाल में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी को लेकर जो परेशानियाँ पैदा हुईं, उनका लाभ उठाने में भी दोनों पार्टियाँ विफल रहीं। बंगाल में ममता बनर्जी ने बीजेपी के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है और अब वहाँ सीधा मुकाबला है। कांग्रेस और वामपंथी मुकाबले में नहीं हैं। उनकी रणनीति क्या होगी, यह भी स्पष्ट नहीं है।
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी के हाथ में फिर से नेतृत्व सौंपने के बाद कांग्रेस ने शायद भविष्य की राजनीति को लेकर सोचना बंद कर दिया है। आंतरिक लतिहाव केवल राजस्थान में ही नहीं है, दूसरे राज्यों में भी है। पार्टी की समस्या यह नहीं है कि वह सत्ता से बाहर है। आखिर तीन राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य में उसकी सरकार है और दो राज्यों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन में है। इस सत्ता को संभाले रखने वाली संगठनात्मक सत्ता कमजोर है।
राजनीतिक दलों के सामने इससे भी खराब मौके आते हैं। भारतीय जनता पार्टी को 1998 के पहले या उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ को तो कभी केंद्र में सरकार बनाने का मौका नहीं मिला। 1977 में मौका मिला भी था, तो अपने अस्तित्व को मिटाकर। सन 1984 में लोकसभा में दो सीटें हासिल करने वाली पार्टी 1989 में 85 और 1991 में 120 सीटें जीतने में सफल इसलिए हुई कि उसने एक वैचारिक सूत्र को पकड़ा। सही या गलत, पर वह सफल था।
कांग्रेस का वैचारिक सूत्र 1971 के बाद से लगातार कमजोर हुआ है, भले ही 1984 में उसे भारी विजय मिली। वह विचारधारा की जीत नहीं थी। हमदर्दी की जीत थी, जो 1991 में आंशिक रूप से मिली। उसने अल्पसंख्यक सरकार बनाने में सफलता पाई और 2004 और 2009 के गठबंधनों की मदद से सरकार बनाई। यह कहानी कांग्रेस के निरंतर विलोपन की है, उसके आरोहण की नहीं।
आज कांग्रेस का संकट 1971 के अंतर्विरोधों का संकट है। उस चुनाव ने बाद में ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ वाले मुहावरे को गढ़ने में मदद की। पार्टी के भीतर सत्ता के पारिवारिक हस्तांतरण की परंपरा शुरू हुई, जो टूट नहीं पा रही है। घूम-फिरकर सारी समस्या का हल है परिवार। इंदिरा गांधी ने पहले संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उनके असामयिक निधन के बाद राजीव गांधी को। फिर सन 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और दो महीने बाद ही वे उसका अध्यक्ष बन गईं।
राहुल गांधी और 2019 के चुनाव से पार्टी को काफी उम्मीदें थीं। दोनों मामलों में विफलता के कारण वर्तमान संकट पैदा हुआ है। पार्टी की विफलता तीन कारणों से है। पहला कारण नेतृत्व है। दूसरा समय से संगत राजनीतिक मुहावरे का अभाव और तीसरे युवा पीढ़ी को जोड़ पाने में विफलता। राहुल गांधी युवा नेता के रूप में उभरे नहीं उभारे गए थे। पिछले महीने वे 50 वर्ष के हो गए। राजनीति के लिहाज से वे भले ही अभी युवा हों, पर युवाओं को आकर्षित कर पाने वाली अपील उनके पास नहीं है।
राजनीति में अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए राहुल गांधी जिन तरीकों को अपनाते हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि वे उनके अपने अनुभव से निकले हैं। हाल में उन्होंने कुछ विशेषज्ञों के साथ अंग्रेजी में बातचीत करके वीडियो जारी किए। उनकी बात जनता को समझ में ही नहीं आए, तो उसका फायदा क्या है? हो सकता है कि उन्हें घेरकर खड़े लोग वाह-वाह करें। पर इससे होगा क्या?
हाल में अशोक गहलोत ने सचिन पायलट पर तंज किया, ‘अच्छी अंग्रेजी बोलना, अच्छी बाइट देना और हैंडसम होना सब कुछ नहीं है।’ प्रकारांतर से यह बात राहुल गांधी पर भी लागू होती है। यह सच है कि पार्टी का जमीन से जुड़ाव घटता चला गया है। अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी पर्याप्त ताकतवर भी थे, इस ताकत का इस्तेमाल वे संगठन को बिखरने से बचाने में नहीं कर पाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ का विवाद इसलिए बढ़ता गया, क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व का रसूख खत्म होता चला गया। यही बात राजस्थान पर लागू होती है।
गहलोत और पायलट के झगड़े को रोकने के लिए हाईकमान को हस्तक्षेप करना चाहिए था। विस्मय की बात है कि राज्य की पुलिस अपने उप मुख्यमंत्री की भूमिका की जाँच कर रही है और केंद्रीय नेतृत्व बैठा देख रहा है। इसे देखते हुए लगता है कि यह केवल राजस्थान की समस्या नहीं है, बल्कि दिल्ली की समस्या है। एक तरफ दिल्ली में पायलट की तारीफ हो रही है और दूसरी तरफ गहलोत जी ‘निकम्मा’ बता रहे हैं।
पार्टियों के भीतर गुटबाजी तो होती ही है। बीजेपी के भीतर भी है। कहा जा रहा है कि राजस्थान में बीजेपी का एक धड़ा नहीं चाहता कि सचिन पायलट को सफलता मिले। यह बात दबी इसलिए रह जाती है, क्योंकि नेतृत्व प्रभावशाली है और समस्याओं के समाधान का मिकैनिज्म बना लिया गया है। नेतृत्व कमजोर होगा, तो वहाँ भी अराजकता संभव है। यह अराजकता पार्टियों के भीतर के लोकतंत्र की दुर्दशा को भी बताती है।
हरिभूमि में प्रकाशित
राजस्थान का विवाद जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार के साथ किस तरह जुड़ गया, क्या हमने इसके बारे में सोचा है? महाराष्ट्र में एनसीपी कांग्रेस के साथ हैं, पर वह कब धोखा दे दे, इसका ठिकाना नहीं। हाल में चीन के संदर्भ में शरद पवार ने राहुल गांधी को सचेत किया कि मोदी की आलोचना ठीक नहीं। ये बातें संगठनात्मक कौशल के साथ-साथ वैचारिक भटकाव की ओर भी इशारा कर रही हैं। इनका दूरगामी असर यूपीए के स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
इस साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं और अगले साल बंगाल में। बिहार में जेडीयू ने नारा दिया है 'क्यों करें विचार, ठीकै तो हैं नीतीश कुमार।' राजद और कांग्रेस का गठबंधन मुकाबले में दिखाई ही नहीं पड़ रहा है। हाल में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी को लेकर जो परेशानियाँ पैदा हुईं, उनका लाभ उठाने में भी दोनों पार्टियाँ विफल रहीं। बंगाल में ममता बनर्जी ने बीजेपी के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है और अब वहाँ सीधा मुकाबला है। कांग्रेस और वामपंथी मुकाबले में नहीं हैं। उनकी रणनीति क्या होगी, यह भी स्पष्ट नहीं है।
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी के हाथ में फिर से नेतृत्व सौंपने के बाद कांग्रेस ने शायद भविष्य की राजनीति को लेकर सोचना बंद कर दिया है। आंतरिक लतिहाव केवल राजस्थान में ही नहीं है, दूसरे राज्यों में भी है। पार्टी की समस्या यह नहीं है कि वह सत्ता से बाहर है। आखिर तीन राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य में उसकी सरकार है और दो राज्यों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन में है। इस सत्ता को संभाले रखने वाली संगठनात्मक सत्ता कमजोर है।
राजनीतिक दलों के सामने इससे भी खराब मौके आते हैं। भारतीय जनता पार्टी को 1998 के पहले या उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ को तो कभी केंद्र में सरकार बनाने का मौका नहीं मिला। 1977 में मौका मिला भी था, तो अपने अस्तित्व को मिटाकर। सन 1984 में लोकसभा में दो सीटें हासिल करने वाली पार्टी 1989 में 85 और 1991 में 120 सीटें जीतने में सफल इसलिए हुई कि उसने एक वैचारिक सूत्र को पकड़ा। सही या गलत, पर वह सफल था।
कांग्रेस का वैचारिक सूत्र 1971 के बाद से लगातार कमजोर हुआ है, भले ही 1984 में उसे भारी विजय मिली। वह विचारधारा की जीत नहीं थी। हमदर्दी की जीत थी, जो 1991 में आंशिक रूप से मिली। उसने अल्पसंख्यक सरकार बनाने में सफलता पाई और 2004 और 2009 के गठबंधनों की मदद से सरकार बनाई। यह कहानी कांग्रेस के निरंतर विलोपन की है, उसके आरोहण की नहीं।
आज कांग्रेस का संकट 1971 के अंतर्विरोधों का संकट है। उस चुनाव ने बाद में ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ वाले मुहावरे को गढ़ने में मदद की। पार्टी के भीतर सत्ता के पारिवारिक हस्तांतरण की परंपरा शुरू हुई, जो टूट नहीं पा रही है। घूम-फिरकर सारी समस्या का हल है परिवार। इंदिरा गांधी ने पहले संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उनके असामयिक निधन के बाद राजीव गांधी को। फिर सन 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और दो महीने बाद ही वे उसका अध्यक्ष बन गईं।
राहुल गांधी और 2019 के चुनाव से पार्टी को काफी उम्मीदें थीं। दोनों मामलों में विफलता के कारण वर्तमान संकट पैदा हुआ है। पार्टी की विफलता तीन कारणों से है। पहला कारण नेतृत्व है। दूसरा समय से संगत राजनीतिक मुहावरे का अभाव और तीसरे युवा पीढ़ी को जोड़ पाने में विफलता। राहुल गांधी युवा नेता के रूप में उभरे नहीं उभारे गए थे। पिछले महीने वे 50 वर्ष के हो गए। राजनीति के लिहाज से वे भले ही अभी युवा हों, पर युवाओं को आकर्षित कर पाने वाली अपील उनके पास नहीं है।
राजनीति में अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए राहुल गांधी जिन तरीकों को अपनाते हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि वे उनके अपने अनुभव से निकले हैं। हाल में उन्होंने कुछ विशेषज्ञों के साथ अंग्रेजी में बातचीत करके वीडियो जारी किए। उनकी बात जनता को समझ में ही नहीं आए, तो उसका फायदा क्या है? हो सकता है कि उन्हें घेरकर खड़े लोग वाह-वाह करें। पर इससे होगा क्या?
हाल में अशोक गहलोत ने सचिन पायलट पर तंज किया, ‘अच्छी अंग्रेजी बोलना, अच्छी बाइट देना और हैंडसम होना सब कुछ नहीं है।’ प्रकारांतर से यह बात राहुल गांधी पर भी लागू होती है। यह सच है कि पार्टी का जमीन से जुड़ाव घटता चला गया है। अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी पर्याप्त ताकतवर भी थे, इस ताकत का इस्तेमाल वे संगठन को बिखरने से बचाने में नहीं कर पाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ का विवाद इसलिए बढ़ता गया, क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व का रसूख खत्म होता चला गया। यही बात राजस्थान पर लागू होती है।
गहलोत और पायलट के झगड़े को रोकने के लिए हाईकमान को हस्तक्षेप करना चाहिए था। विस्मय की बात है कि राज्य की पुलिस अपने उप मुख्यमंत्री की भूमिका की जाँच कर रही है और केंद्रीय नेतृत्व बैठा देख रहा है। इसे देखते हुए लगता है कि यह केवल राजस्थान की समस्या नहीं है, बल्कि दिल्ली की समस्या है। एक तरफ दिल्ली में पायलट की तारीफ हो रही है और दूसरी तरफ गहलोत जी ‘निकम्मा’ बता रहे हैं।
पार्टियों के भीतर गुटबाजी तो होती ही है। बीजेपी के भीतर भी है। कहा जा रहा है कि राजस्थान में बीजेपी का एक धड़ा नहीं चाहता कि सचिन पायलट को सफलता मिले। यह बात दबी इसलिए रह जाती है, क्योंकि नेतृत्व प्रभावशाली है और समस्याओं के समाधान का मिकैनिज्म बना लिया गया है। नेतृत्व कमजोर होगा, तो वहाँ भी अराजकता संभव है। यह अराजकता पार्टियों के भीतर के लोकतंत्र की दुर्दशा को भी बताती है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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