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Monday, June 29, 2020

सिर्फ फौज काफी नहीं चीन से मुकाबले के लिए

लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ मुठभेड़ के बाद देश के रक्षा विभाग ने एलएसी पर तैनात सैनिकों के लिए कुछ व्यवस्थाओं में परिवर्तन किए हैं। सेना को निर्देश दिए गए हैं कि असाधारण स्थितियों में अपने पास उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करें। खबर यह भी है कि रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों के लिए सुरक्षा उपकरण तथा बुलेटप्रूफ जैकेट बनाने वाली कंपनियों से संपर्क किया है और करीब दो लाख यूनिटों का आदेश दिया है। इस बीच पता लगा कि ऐसे उपकरण बनाने वाली बहुसंख्यक भारतीय कंपनियाँ इनमें लगने वाली सामग्री चीन से मँगाती हैं।

क्या हम चीनी सैनिकों से रक्षा के लिए उनके ही माल का सहारा लेंगे? हम यहाँ भी आत्मनिर्भर नहीं हैं? नीति आयोग के सदस्य और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के पूर्व प्रमुख वीके सारस्वत ने चीन से आयात की नीति पर पुनर्विचार करने की सलाह दी है। पीएचडी चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने भी रक्षा सचिव को इस आशय का पत्र लिखा है। बात पहले से भी उठती रही है, पर अब ज्यादा जोरदार तरीके से उठी है।

स्वदेशी कवच

इस सिलसिले में आर्मी डिजाइन ब्यूरो ने ‘सर्वत्र कवच’ नाम से एक आर्मर सूट विकसित किया गया है, जो पूरी तरह स्वदेशी है। उसमें चीनी सामान नहीं लगा है। गत 23 दिसंबर को तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने इसे विकसित करने पर मेजर अनूप मिश्रा को उत्कृष्टता सम्मान भी प्रदान किया था। इस कवच के फील्ड ट्रायल चल रहे हैं, इसलिए फिलहाल हमें चीनी सामग्री वाले कवच भी पहनने होंगे। साथ ही अमेरिका और यूरोप से सामग्री मँगानी होगी, जिसकी कीमत ज्यादा होगी।
सब मानते हैं कि हमें अपनी क्षमता का विकास करना चाहिए और जहाँ तक हो सके स्वदेशी सामग्री से काम चलाना चाहिए। रक्षा उपकरणों के मामले में खासतौर से। ऐसा समय भी आ सकता है, जब विदेशी सामग्री की सप्लाई रुक जाए या रोक दी जाए। अलबत्ता दुनिया में बहुत कम देश ऐसे हैं, जहाँ पूरी सामग्री अपने यहाँ उपलब्ध हो। यह बात वैश्वीकरण की अवधारणा के उलट है। दुनियाभर में राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों के बढ़ने के साथ-साथ यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या कोई पूर्ण आत्मनिर्भर हो सकता है? बहरहाल इस वक्त अमेरिकी राष्ट्रवाद बनाम चीनी राष्ट्रवाद का टकराव है।

भारत-चीन टक्कर के इस दौर में सामरिक से ज्यादा देश की आर्थिक-तकनीकी सामर्थ्य के सवाल हैं। इस टकराव ने महाशक्ति के रूप में उभरते भारत की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाई है। ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध थिंक-टैंक लोवी इंस्टीट्यूट ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में सक्रिय वैश्विक शक्तियों का आकलन करते हुए भारत को चौथे नंबर की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति माना है। शक्ति का यह आकलन करने के लिए 100 सूचकांकों का इस्तेमाल किया गया है। सबसे ऊपर अमेरिका, फिर चीन फिर जापान और उसके बाद भारत। भारत की ताकत के अंतर्विरोधी आयाम इन सूचकांकों में देखे जा सकते हैं। इस चौथे नंबर की ताकत के भी अंतर्विरोध हैं।

पावर गैप!

आर्थिक रिश्तों में भारत का स्थान आठवाँ और रक्षा नेटवर्क में छठा है। यानी विदेश नीति अभी संशय की स्थिति में है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मामले में भी हम पीछे हैं। इन मामलों में अमेरिका, चीन और जापान के अलावा सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया हमसे ऊपर हैं। इसके विपरीत भावी संसाधनों की दृष्टि से उसका स्थान तीसरा है। जीडीपी की अच्छी संभावनाओं पर देश की शक्ति काफी हद तक निर्भर है। जिन देशों ने अपनी क्षमता से कम हासिल किया है उसे ‘पावर गैप’ विश्लेषण द्वारा प्रकट किया गया है। इसमें भारत का स्थान 25 देशों की सूची में 17 वें स्थान पर है। बांग्लादेश से एक स्थान नीचे और मंगोलिया के बराबर।

भारत कभी बहुत बड़ी ताकत लगता है और कभी एकदम मामूली। जो महत्व मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। हाल में डोनाल्ड ट्रंप ने जी-7 का विस्तार करके जी-11 बनाने का सुझाव दिया है। इसमें भारत को शामिल करने का प्रस्ताव भी है, पर इस प्रस्ताव के पीछे चीन को किनारे करने की कोशिश ज्यादा है, भारत को शामिल करने की इच्छा कम। पिछले हफ्ते भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सीट मिली जरूर है, पर स्थायी सीट को लेकर कई तरह के अड़ंगे हैं। भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी के जी-4 का दावा है, पर चीन इस दावे को रोकने में कामयाब है। भारत के विपरीत चीन ने अपनी आर्थिक, सामरिक और राजनयिक सामर्थ्य का बेहतर इस्तेमाल किया है।

चीनी पूँजी का खेल

लद्दाख प्रकरण के बाद देश में चीनी माल का बहिष्कार करने का अभियान चल रहा है। ऐसे अभियानों को जनता का भावनात्मक समर्थन मिलता है, पर व्यावहारिक धरातल पर इनमें दम नहीं होता। अक्सर ऐसे अभियान आत्मघाती होते हैं। एक तो यह नकारात्मक है। इसके पीछे सामर्थ्य बढ़ाने की कामना कम, चीनी प्रभाव रोकने की कोशिश ज्यादा है। दूसरे लोग इसकी गहराई तक जा नहीं पाते। हाल में एक वीडियो वायरल हो रहा था, जिसमें वक्ता बता रहा है कि पश्चिमी देशों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मुक्त व्यापार की अवधारणाओं की आड़ में भी चीन ने प्रभाव बढ़ाया है। इसके पीछे उसके पूँजी निवेश का हाथ है। अमेरिका और यूरोप में प्रभाव बढ़ाने का उसका तरीका अलग है और छोटे अविकसित देशों का अलग।

अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की विशेषज्ञ एलिसा आयर्स ने हाल में लिखा है कि चीनी प्रभाव को रोकना है, तो उसके पूँजी निवेश पर नजर रखनी चाहिए। वैसे ही जो काम अमेरिका में कमेटी ऑन फॉरेन इनवेस्टमेंट (सीएफआईयूएस) करती है। हाल में भारत सरकार ने पड़ोसी देशों से होने वाले निवेश की प्रक्रिया पर पुनर्विचार शुरू किया है। उदीयमान टेलीकॉम सेक्टर में चीनी तकनीक को रोकने की कोशिशें शुरू हुई हैं। शायद 5-जी कार्यक्रम में चीनी तकनीक पर रोक लगे। यह काम आसान नहीं है। भारतीय कंपनियों को इससे घाटा होगा। भारत और चीन के बीच बड़े स्तर पर कारोबारी रिश्ते बन चुके हैं। दोनों देश ब्रिक्स के सदस्य हैं और चीनी पहल पर शुरू हुए एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) में दूसरे नंबर पर भारत की पूँजी लगी है। भारत हाल में शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य भी बना है।

अर्थव्यवस्था के छिद्र
चीनी सहयोग की ज्यादातर गतिविधियाँ 2014 के बाद शुरू हुई हैं। उस साल तक भारत में चीन का निवल निवेश 1.6 अरब डॉलर था। ज्यादातर निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर में था, जिसमें चीन की सरकारी कंपनियाँ काम कर रही थीं। इसके अगले तीन साल में यह निवेश बढ़कर पाँच गुना करीब 8 अरब डॉलर का हो गया। निवेश में महत्वपूर्ण बदलाव था सरकारी कार्यक्रमों से हटकर उसका बाजार के मार्फत आना, जो चीन के निजी क्षेत्र की देन था। सरकारी आँकड़ों से वास्तविक निवेश का पता नहीं लग पाता है। खासतौर से निजी क्षेत्र के निवेश का पता नहीं लग पाता। एक तो तकनीकी क्षेत्र की सभी कंपनियों के आँकड़े नहीं मिलते, दूसरे जो निवेश किसी तीसरे देश, मसलन सिंगापुर वगैरह के मार्फत आता है, उसका तो जिक्र भी नहीं होता।

अमेरिकी रिसर्च ग्रुप ब्रुकिंग्स के एक पेपर में अनंत कृष्णन ने भारत में चीनी की जानकारी देते हुए बताया है कि उदाहरण के लिए चीन की दूरसंचार कंपनी शाओमी ने सिंगापुर स्थित अपनी सहायक कंपनी की ओर से 50.4 करोड़ (3,500 करोड़ रुपये) का जो निवेश किया, उसका जिक्र सरकारी दस्तावेजों में नहीं होगा। इस पेपर में कहा गया है कि भारत में चीनी निवेश सरकारी दस्तावेजों में उपलब्ध राशि से करीब 25 फीसदी ज्यादा है। यह बहुत मोटा अनुमान है, निवेश इससे भी ज्यादा हो सकता है। जब घोषित परियोजना और उसपर होने वाले भविष्य के निवेश को भी जोड़ लिया जाए, तो यह राशि तिगुनी यानी 26 अरब डॉलर से ऊपर हो जाएगी।

ग्रीनफील्‍ड यानी एकदम नई परियोजनाओं में और वर्तमान उपक्रमों को हासिल करने या उनके विस्तार पर चीनी कंपनियों ने कम से कम 4 अरब डॉलर का निवेश किया है। चीन ने खासतौर से फार्मास्युटिकल और टेक्नोलॉजी सेक्टर की कंपनियों और टेक्नोलॉजी स्टार्टअप्स पर निवेश किया है। तमाम ऐसी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं हैं, जो स्वीकृति का इंतजार कर रही हैं। उनके लिए करीब 15 अरब डॉलर के निवेश का वायदा भी किया है। इस पेपर के लेखक ने लिखा है कि देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अनेक रास्ते हैं, जिसके कारण एफडीआई की पूरी तस्वीर साफ नहीं हो पाती है। वास्तविक सूचना चीन सरकार के पास है, पर वह यह जानकारी देती नहीं। चीन के सरकारी उद्यमों और निजी क्षेत्र के उद्यमों के बीच की रेखा धुँधली है। चीनी विदेश और रक्षा नीति इस आर्थिक रणनीति के पीछे-पीछे चलती है। इसपर ध्यान दीजिए।
नवजीवन में प्रकाशित

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