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Sunday, April 26, 2015

सारी तोहमत राजनीति पर ही क्यों?

तकरीबन तीन साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने राजनीति के संदर्भ में भारतीय व्यवस्था को लकवा मार जाने के रूपक का इस्तेमाल किया था। उसके दो-तीन साल पहले से हमारा मीडिया भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों से पटा पड़ा था। ऐसा माहौल बन रहा था कि देश में सब चोर हैं। संयोग से उन्हीं दिनों अन्ना हजारे के आंदोलन ने सिर उठाना शुरू किया था। हमारे सनसनीखेज मीडिया ने माहौल को बिगाड़कर रख दिया। इस कीचड़ के छींटे मीडिया पर भी पड़े हैं। लोकतंत्र के हरेक स्तम्भ की साख पर सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता है?

राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था जादू की छड़ी से नहीं चलती। उसमें सुधार का भी एक नियम है, जिसमें समय लगता है। उसके पहले आप यह भी देखें कि क्या शिक्षा का स्तर वह है जो स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य है? क्या मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं जो स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था का संचालन करें? हमारे भीतर भी तो खामियाँ हैं। मतलब यह नहीं कि हम पूरी व्यवस्था को बेईमान और चोर साबित कर दें। खराबियों और खामियों के ऐतिहासिक कारण हैं जिन्हें ठीक होने में समय लगेगा।
राजनीति अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाने की कला है। भारत जैसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अंतर्विरोध पाए जाते हैं, इस कला की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। हमारे यहाँ राजनीति की कमी भी नहीं है, बल्कि इफरात है। फिर भी हाल के वर्षों में सबसे ज्यादा फज़ीहत उसकी हुई है। हम राजनैतिक दलों से निराश हों, हताश हों और उनके तौर-तरीकों के निन्दक हों तब भी राजनीति-विहीन समाज नारकीय होगा। राजनीति में समाज की श्रेष्ठतम और निकृष्टतम शक्तियाँ साथ-साथ चलतीं हैं। श्रेष्ठ समाज में श्रेष्ठ शक्तियाँ आगे होती हैं। हमें तय करना है कि हमारा समाज कैसा हो। जनता निराश है तो वह चुनाव के दौरान लम्बी कतारें लगाकर वोट देने क्यों जाती है? जनता को उससे उम्मीद है, जो पूरी नहीं हो पाती। हमें उम्मीदों के पूरे न हो पाने के कारणों को समझना चाहिए।
इन दिनों जब हम भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर बहस कर रहे हैं एक बड़े अख़बार में खबर छपी है कि चीन के लोग मानते हैं कि भारत के विकास के सामने सबसे बड़ा अड़ंगा है लोकतंत्र। पिछले दो वर्षों में कई चीनी अख़बारों ने इस आशय की टिप्पणियाँ की हैं कि भारत का छुट्टा लोकतंत्र उसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण है। यह उपदेश उस देश से आ रहा है जहाँ लोकतंत्र नहीं है। सन 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। क्या भारत में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की निरंकुश राजनीतिक व्यवस्था है। क्या हमें भी वैसी व्यवस्था चाहिए? सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं। कोड़े डर पैदा करते हैं। हमें डरपोक नहीं समझदार लोकतंत्र चाहिए।
13 मई 2012 को हमारी संसद की साठवीं सालगिरह के मौके पर बुलाई गई विशेष बैठक में अपने लोकतंत्र को लेकर जो विमर्श हुआ था उसकी याद करें। छह दशकों में डेढ़ साल की इमरजेंसी के अपवाद को छोड़ कर भारत में संसदीय लोकतंत्र की निरंतरता बनी रही है। लेकिन कई कारणों से संसद की प्रतिष्ठा में कमी आई है। एक नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि अपने प्रतिनिधियों पर इस प्रतिष्ठा को कायम करने के लिए दबाव बनाएं। क्या हम वोट देते वक्त राजनीति की पवित्रता को आधार बनाते हैं? क्या हम अपने प्रतिनिधि को पत्र लिखकर या टेलीफोन करके या किसी और तरीके से सलाह देते हैं? जब आप अपने नागरिक-कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे तो अपने प्रतिनिधि से क्यों उम्मीद रखते हैं?
सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया। सन 2011 में वहाँ की संसद ने देश की संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया।
दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया। यह एक जागरूक राजनीति का उदाहरण है। हम अपने यहाँ महिला आरक्षण की बात करते हैं, जो पूरा नहीं होता। आइसलैंड दुनिया का अकेला देश है जहाँ केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले राजनीतिक दल का जन्म हुआ। अब उस दल की जरूरत नहीं रही। वहाँ आरक्षण के बगैर महिलाओं को तीस से चालीस फीसदी प्रतिनिधित्व मिल जाता है। अपने न्यूज़ चैनलों की कवरेज पर ध्यान दें तो आपको कभी राजस्थान के, कभी झारखंड के या कभी उत्तराखंड के किसी चैनल पर कोई व्यक्ति या समूह सीधे न्याय करता दिखाई पड़ता है। किसी सरकारी अधिकारी के कपड़े फाड़ती महिला, चोरों, लुटेरों और बलात्कारियों का मुँह काला करके अपमानित करती भीड़ दिखाई पड़ती है। लगभग इतने ही वीभत्स विवरण पुलिस कार्रवाई के दिखाई पड़ते हैं।
ये बातें बताती हैं कि हम अराजकता के दौर में हैं। पर यह एक दौर है। इसे न तो सामान्य कहा जा सकता है और न यह कि सारे लोग चोर हैं। जब आप पुलिस, प्रशासन और राजनीति के करीब जाएंगे तो जितने कारण निराश होने के मिलेंगे उससे कई गुना उत्साह बढ़ाने वाले भी मिलेंगे। जो कुछ हासिल होना है, वह इसी व्यवस्था के प्रस्थान बिन्दु से होगा। इसे बेहतर बनाएं, सुधारें और बदलें। जनता भी निरंकुश होती है। सुकरात को ज़हर देने वाली व्यवस्था डायरेक्ट डेमोक्रेसी से निकली थी। पिछले दिनों पूर्वोत्तर के एक इलाके से खबर आई कि हजारों की भीड़ ने एक युवक को जेल से निकाल कर मार डाला। भीड़ का अन्याय कम खतरनाक नहीं। हमें जितने अच्छे नेताओं की ज़रूरत है, उतने ही अच्छे नागरिकों की भी है। कृपया अच्छे नागरिक बनें, अच्छी राजनीति अपने आप आपके सामने आएगी। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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