लम्बे अरसे से
हिमालयी क्षेत्र में महा-- भूकम्प का अंदेशा है। कहना मुश्किल है कि यह वही
भूकम्प था या इससे बड़ा भूकम्प और आएगा। धरती के नीचे टेक्टोनिक प्लेटों के लगातार
जमा होते तनाव के कारण यह भूकम्प अनिवार्य था। पिछले डेढ़ सौ साल में हिमालय
क्षेत्र में चार बड़े भूकम्प आए हैं। पर जिस इलाके में इस बार आया है वहाँ एक अरसे
से कोई बड़ी घटना नहीं हुई थी। भूकम्प को टाला नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले
नुकसान को सीमित किया जा सकता है। दूसरे उससे हम कुछ सीख भी सकते हैं। प्राकृतिक
आपदा कई तरीकों से सामने आती है। कोई भी प्राकृतिक परिघटना आपदा तभी बनती है जब हम
उसपर काबू करने की कोशिश करते हैं। दूसरी ओर प्रकृति के अनुरूप हम खुद को ढालें तो वह हमारी मित्र है।
हिमालय में आए इस
बार के भूकम्प को हम कई तरीके से देख सकते हैं। यह समझने की ज़रूरत है कि हिमालय
क्षेत्र क्यों भूकम्प के लिहाज़ से संवेदनशील है। हम इस क्षेत्र की प्राकृतिक
सम्पदा के संरक्षण के बारे में करते क्या हैं। तीसरे प्राकृतिक आपदा के वक्त हम
करते क्या हैं। इस बात को समझना होगा कि ऐसे में जान-माल का ज्यादातर नुकसान
भूकम्प के कारण नहीं गलत निर्माण-योजना के कारण होता है। अकसर इसके मूल में
भ्रष्टाचार होता है। सन 2013 की उत्तराखंड त्रासदी में जो बिल्डिंगें ताश के
पत्तों की तरह पानी में बह गईं वे क्यों और किस प्रक्रिया से बनीं? दिल्ली-एनसीआर में जहाँ
आठ मंजिला बिल्डिंग बननी चाहिए वहाँ बिल्डरों ने बारह और चौदह मंजिलें तक बना लीं।
अनुमति देने वालों ने दी। यह कहानी उत्तर भारत के तमाम शहरों की है।
पहाड़ी इलाकों
में इस भ्रष्टाचार की पोल सन 2013 की आपदा में खुली। हमारे पास आधुनिक मौसम विभाग
है, आपदा के समय काम करने
वाली मशीनरी है,
प्रकृति से जुड़ी
सुविचारित इंजीनियरी का बंदोबस्त है, काफी बड़ा वैज्ञानिक समुदाय है, जनता से जुड़ी राजनीति है, धार्मिक आस्था से जुड़ी बड़ी जनसंख्या है। इन
सबके ऊपर है एक ऊर्जावान मीडिया और संचार व्यवस्था। उत्तराखंड ने इन सबकी पोल एक
साथ खोल दी। आपदा का वह रूप कुछ और था और इस बार का रूप कुछ और है, पर काफी समानता
है। शनिवार को आए भूकम्प के बाद बिहार में कई तरह की अफवाहें फैलीं। खासतौर से
ह्वाट्सएप और ट्विटर पर इस आशय के संदेश भेजे गए कि अभी कितने बजकर कितने मिनट पर
फिर से झटके लगने का अंदेशा है। इन अंदेशों के कारण लोग-बाग़ रात-रात भर घर से
बाहर रहे। यहाँ मीडिया की भूमिका भी उजागर हुई।
मार्च 2011 में
जापान में सुनामी आई थी। जापान ने उसका जिस तरीके से सामना किया उसे भी देखिए। जापान
के आपदा-प्रबंधन के पीछे उसकी समृद्धि और श्रेष्ठ टेक्नॉलजी का भी हाथ है। पर यह
समृद्धि भी उसने अपने कौशल से हासिल की है किसी से भीख में नहीं ली। वह दुनिया का
अकेला देश है जिसने एटम बमों का वार झेला। यह देश हर साल कम से कम एक हजार
भूकम्पों का सामना करता है। सुनामी की पहली खबरें मिलने के बाद जापान सरकार की
पहली प्रतिक्रिया थी, हम माल के नुकसान
को गिन ही नहीं रहे हैं। हमें सबसे पहले अपने लोगों की जान की फिक्र है।
पिछले पचास साल
में जापान ने भूकम्पों का सामना करने के लिए अद्भुत काम किए हैं। 1960 के बाद से
जापान हर साल 1 सितम्बर को विध्वंस-निरोध दिवस मनाता है। 1923 में 1 सितम्बर को
तोक्यो शहर में वह विनाशकारी भूकम्प आया था। इस रोज जापानी लोग प्राकृतिक आपदा से
बचने का ड्रिल देश भर में करते हैं। यह ड्रिल उनके बच्चे-बच्चे के दिल-दिमाग पर
काफी गहराई से छपा है। स्कूल में जाते ही बच्चों को सबसे पहले दिन यही सिखाया जाता
है कि भूकम्प आए तो क्या करें। उनके पास इमारतों के निर्माण की सर्वश्रेष्ठ
टेक्नॉलजी है। 1995 के कोबे भूकम्प के बाद वहां गगनचुम्बी इमारतें इस तरह की बनने
लगीं हैं, जो भूकम्प के दौरान लहरा जाएं, पर गिरें नहीं। फाइबर रिइनफोर्स्ड पॉलीमर की भवन सामग्री का
इस्तेमाल बढ़ रहा है जो कपड़े की तरह नरम और फौलाद जैसी मजबूत होती है। इन्हें
पुलों और बहुमंजिला इमारतों के कॉलमों में इस्तेमाल किया जा रहा है।
जापान
मेटियोरोलॉजिकल केन्द्र भूकम्पों को निरंतर दर्ज करते हैं। जैसे ही वे जोखिम की
सीमा का कम्पन दर्ज करते हैं, पूरे देश को
अलर्ट हो जाता है। बुलेट ट्रेन, बसों, कारों और तमाम सार्वजनिक स्थानों पर लगी
डिवाइसें ऑटोमेटिक काम करने लगतीं हैं। बुलेट ट्रेन के ब्रेक अपने आप लगते हैं।
एनएचके के राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क पर अपने आप वॉर्निंग फ्लैश होती है। शहरों में
लगीं वेंडिंग मशीनें खुल जाती हैं मुफ्त पानी, ड्रिंक या खाद्य सामग्री मिल सके। पूरा देश राहत में जुटता
है। उन्हें हड़बड़ी मचाने के बजाय शांत रहने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। गूगल
का पीपुल्स फाइंडर टूल बनने के काफी पहले जापान ने राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में
लोगों को एक-दूसरे को खोजने में मदद देने वाला डेटा बेस तैयार कर लिया था। जापान
में आपदा प्रबंधन की कॉटेज इंडस्ट्री है। वहाँ घड़ी जैसे उपकरण मिलते हैं, जो बता देते हैं कि भूकम्प की तीव्रता क्या है
और क्या करना चाहिए। ऐसे जैकेट मिलते हैं, जो तम्बू या स्ट्रेचर का काम कर सकें।
हिमालय
अपेक्षाकृत नया पहाड़ है। भूकम्प के लिहाज से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है और
रहेगा भी। धरती की प्लेटों में हलचल हो रही है वे एक-दूसरे से टकरा रही हैं। इस
खिसकाव और टकराने से ऊर्जा निकलती है। यह ऊर्जा अंदर सिमटकर रह जाती है जब यह बाहर
निकलती है तो भूकंप आते हैं। यदि यह बार-बार छोटे भूकम्पों के रूप में निकले तो
खतरा कम रहता है। एक बार निकले तो तीव्रता ज्यादा हो सकती है। पिछले छह-सात दशक
में आठ की तीव्रता वाले भूकम्प नहीं आए थे। वैज्ञानिक कहते हैं कि भारतीय और
यूरेशियन प्लेट के नीचे जो एनर्जी जमा है, वह यदि निकली तो हिमालय क्षेत्र में 8.4 तीव्रता के कुछ
भूकम्प अभी और आ सकते हैं। शनिवार का भूकम्प 15 जनवरी 1934 को नेपाल-बिहार में 8.3
की तीव्रता वाले भूकम्प के बाद इस इलाके का दूसरा सबसे तगड़ा भूकम्प था। यों 15
अगस्त 1950 को अरुणाचल और चीन की सीमा पर 8.5 तीव्रता से भूकंप आया था। मीडिया में
प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार हिंदूकुश से अरुणाचल के बीच के हिमालय में कभी 9 की तीव्रता
वाला हाला-डोला आ सकता है।
भू-वैज्ञानिक
प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का कहना है कि उत्तराखंड की धरती में इतना तनाव पैदा हो
गया है कि उसे पूरी तरह निकालने की क्षमता केवल महा-भूकम्पों में ही है। वे भूकम्प
जिनकी प्रबलता 8 से ज्यादा हो। भूकम्प को तो आना ही है, लेकिन कब आना है यह अनिश्चित है। इसलिए भूकम्प
से बचने की तैयारी हमेशा रहनी चाहिए। उनके अनुसार मध्यवर्ती हिमालय में महा-भूकम्प
अन्तिम बार सन् 1505 में आया था और उसके बाद सबसे भारी भूकम्प सन् 1803 में गढ़वाल
में आया था। जब भूकम्प उठते हैं तब उथल-पुथल केवल उसी दरार तक सीमित नहीं रहती, जहाँ से वह पैदा हुआ हो। वरन् उन दरारों पर भी कमोबेश हलचल होती है, जो भूकम्प-भ्रंश से सम्बद्ध हैं। हिमालय की
धरती अगणित भ्रंशों से विदीर्ण है, कटी-फटी है। कभी महा-भूकम्प आया तो सभी दरारें सक्रिय हो जाएंगी।
सन 1962 के चीन-युद्ध
के बाद भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में सैकड़ों किमी सड़कें बगैर
पर्यावरण को ध्यान में रख कर बनाई गईं। चट्टानों को ही नहीं, पेड़ों को भी डाइनामाइट से उड़ाया गया। यह सोचे
बगैर कि भविष्य में इसके कितने खतरनाक परिणाम होंगे। महत्वपूर्ण है कि निर्माण
योजना को पर्यावरण के अनुरूप ढाला जाए। भूकम्प तो आएंगे। हमारी तैयारी ऐसी होनी
चाहिए कि नुकसान नहीं के बराबर हो। देश की राजधानी दिल्ली भी सुरक्षित नहीं है।
विशेषज्ञों के अनुसार दिल्ली के तकरीबन 34 लाख मकानों में से दो प्रतिशत ही बड़े
भूकम्प सहने की स्थिति में हैं।
भूकम्प की तीव्रता
का जान-माल की क्षति से रिश्ता है, पर दूसरे कारण भी नुकसान को तय करते हैं। आबादी
की सघनता और आवासीय इमारतों से भी नुकसान की शिद्दत तय होती है। जापान में अकसर
सात से ज्यादा तीव्रता वाले भूकम्प आते हैं। उनके लिए वह भी बारिश और आँधी-पानी
जैसी एक प्राकृतिक परिघटना है। इस प्रकार की आपदाओं का असर दो-चार दिन नहीं, बरसों
रहता है। अब पुनर्वास की एक दीर्घकालीन प्रक्रिया शुरू होगी। हम कुशल होंगे तो यह
काम बेहतर होगा। बेहतर हो कि आपदा से हम कुछ सीखें।
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