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Wednesday, April 1, 2015

‘आप’ को 'आधा तीतर-आधा बटेर' मनोदशा से बाहर आना होगा

दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नई सम्भावनाओं की शुरुआत थी. पर नेतृत्व की नासमझी ने उन सम्भावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए अब हमें कुछ घटनाओं का इंतज़ार करना होगा. यह त्रासद कथा पहले भी कई बार दोहराई गई है. अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य में उनकी भूमिका क्या होने वाली अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे सैद्धांतिक मतभेद नहीं व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.

दिल्ली में 49 दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गई थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी माँगने के बाद पार्टी दुबारा मैदान में आई तो सफल बना दिया? दिल्ली में उसे मिली सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहती थी. दूसरे भाजपा के विजय रथ को भी रोकना चाहती थी. पर जनता बार-बार उसकी नादानियों को सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब जब एक के बजाय दो आप सामने होंगी? फिलहाल दोनों निष्प्राण हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर पर चढ़कर बोलेगा.
 
इस पार्टी के पीछे अरविन्द केजरीवाल, संजय सिंह, योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनन्द कुमार एंड कम्पनी की परिकल्पना थी. पर वे निमित्त मात्र थे. असली वे ताकत जनता की थी, जो इसका इंतजार कर रही थीं. पर अप्रत्याशित सफलता से जन्मे अंतर्विरोधों का भार पार्टी सहन नहीं कर पाई. वैकल्पिक राजनीति की उसकी योजना भी सुपरिभाषित नहीं है. वह घूम-फिरकर उन्ही नुस्खों पर वापस लौट रही है जो दूसरी पार्टियाँ अपनातीं हैं.

आम आदमी पार्टी की अपील इस बात में थी कि वह मुख्यधारा की राजनीति से अलग है. इसका दावा करना एक बात है और उसे साबित करना दूसरी बात है.  आंतरिक लोकतंत्र और उसकी आंदोलनकारी भूमिका के कारण उसके अंतर्विरोध उजागर हो रहे हैं. आंदोलनकारी संगठन की संरचना और राजनीतिक दल की संरचना में बुनियादी फर्क है. कमान-कंट्रोल, निर्णय पद्धति और विवादों के निस्तारण की व्यवस्था के बरक्स दोनों प्रकार के संगठन अलग-अलग तरीकों से चलते हैं. आंदोलनकारी संगठन में कई नेता हो सकते हैं, पर सत्ता की राजनीति में नेतृत्व का एक क्रम होता है.

आप के भीतरी मतभेदों के बारे में पूरी जानकारी हमारे पास नहीं हैं. पर यह बात शीशे की तरह साफ है कि अविश्वास गहरे तक बैठा है. यह अविश्वास और धड़ेबाजी मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में भी है. पर उन्होंने समाधान सीख लिया है. 1993 में पीवी नरसिंहराव ने चुनाव के सहारे पार्टी की कार्य समिति चुनी, जिसमें बहुसंख्यक सदस्य ऐसे आ गए जो नरसिंहराव के मनमाफिक नहीं थे. उन्होंने चुनाव रद्द कर दिया. यह कहते हुए कि समाज के दुर्बल वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. इसी तरह सन 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के पहले कई तरह के पापड़ बलने पड़े थे. पर पार्टी एक बनी है.

आप नई राजनीति का नाम लेकर आई है. यह फर्क नजर भी आना चाहिए. आम प्रतिक्रिया है कि यह दूसरे दलों की तरह सामान्य पार्टी बनकर रह गई है. शायद उनसे भी ज्यादा खराब. पर पार्टी के बागी यह बात तब कह रहे हैं जब वे बाहर हो गए हैं. बावजूद इसके वे कह रहे हैं कि जोड़ेंगे, न तोड़ेंगे. सुधरेंगे और सुधारेंगे. अब उन्हें अगले कदम के बारे में सोचना पड़ रहा है. प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने 14 अप्रैल को अपने समर्थकों की एक बैठक बुलाई है. योगेन्द्र का कहना है कि 'आप' भावना को जीवित रखना है. वे इसे कैसे जीवित रखेंगे? सत्ता की राजनीति की चुनौतियाँ उन्हें भी उसी तरह घेरेंगी जैसे केजरीवाल को घेरा.

यह पार्टी सैद्धांतिक रूप से सुविचारित पार्टी नहीं है. इसमें शामिल नौजवान जय प्रकाश आंदोलन में शामिल नौजवानों से कुछ अलग हैं. वक्त भी बदला हुआ है. इसमें आईटी क्रांति के नए टेकीहैं, अमेरिका में काम करने वाले एनआरआई हैं, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुम्बई के नए प्रोफेशनल. काम-काजी लड़कियाँ और गृहणियाँ भी. और गाँवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान. सत्तर के दशक में भारत के नौजवानों के मन में समाजवाद का जो रोमांच था, वह आज नहीं है. जल-जंगल-जमीन-खेत-खलिहान-औद्योगिक मजदूर और सद्यः विकसित सर्विस सेक्टर से जुड़े टेकी, प्रोफेशनलों की उम्मीदों को यह आंदोलन एकसाथ लेकर चल रहा था. यह मुश्किल संकल्प है. कई तरह की प्रवृत्तियाँ इस आंदोलन को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहीं है. उनमें टकराव होना ही था. आज हो गया नहीं तो कल होता.

 ‘स्वराजनाम का दस्तावेज विचारधारा के प्रति गहरे विश्वास नहीं जगाता. केजरीवाल मोटे तौर पर मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते हैं और प्रशासन के विकेन्द्रीकरण का समर्थन करते हैं. इस अवधारणा को दिल्ली में सफल करके उन्हें दिखाना है. पार्टी में तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं. एक हैं गांधीवादी, दूसरी समाजवादी और तीसरी पश्चिमी उदारवादी. पार्टी इन तीनों को जोड़ना चाहती है. गांधी, जेपी और लोहिया के समर्थक इस पार्टी में शामिल हैं. संयोग से तीनों आंदोलनकारी नेता रहे. तीनों ने सत्ता में कभी हिस्सेदारी नहीं की. उन्हें नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की राजनीति को भी समझना होगा. यहाँ से विसंगति शुरू होती है. इस फर्क राजनीति को सुपरिभाषित होना चाहिए. साथ ही इसमें शामिल सहयोगियों की एकजुटता चाहिए. एकजुटता नहीं थी, यह बात बार-बार साबित हो रही है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें मिलना भारी पड़ रहा है. ज्यादातर विधायक इनाम चाहते हैं. इसका मतलब है वे उस राजनीति की देन नहीं है जिसका दावा पार्टी कर रही है. यह सब घालमेल है. आप के नाम पर आधा तीतर-आधा बटेर नहीं चलेगा. योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, आनन्द कुमार और अजित झा को जिस नाटकीय तरीके से निकाला गया वह नई राजनीति की गवाही नहीं देता. जिस प्रकार की लोकतांत्रिक पार्टी की कल्पना 'योया-प्रभू-आकु-अझा' की टीम करती हैं वैसी पार्टी बनाएं. यह टीम पैन-इंडिया राजनीति का संकल्प लेकर चल रही है. उस राजनीति के अंतर्विरोध और गहरे साबित होंगे. इस अभियान को विचारधारा के स्तर पर साफ होने के लिए समय चाहिए.

प्रभात खबर में प्रकाशित

2 comments:

  1. जब कोई भी राजनीतिक आंदोलन राजनैतिक दाल के रूप में बदलता है टी ऐसी विसंगतियां आने की संभावनाएं काफी प्रबल हो जाती हैं , विशेष कर उस आंदोलन के कार्य , उद्देश्य , काल एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में , कांग्रेस हही एक आंदोलन ही थी , पर उसने राष्ट्रीय आजादी के लिए लम्बे समय तक आंदोलन किया था , साथ ही उसके नेताओं को राज काज का प्रशिक्षण भी मिला था , इतने लम्बे समय में उसे अनेक शिक्षित, बहुविध विचार धारा के नेता मिले, उन्होंने त्याग भी किया ,लोहिया भी बड़े समाजवादी चिन्तक थे ,''आप'' पार्टी के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है ,केवल भ्रस्टाचार के मुद्दे पर चला आंदोलन , कांग्रेस के अव्यवस्थापूर्ण शासन के रूप में बदल गया , व तंग आई जनता उस से मुक्त होने के लिए इनसे कुछ अपेक्षा रखने लगी युवा वर्ग भी जुड़ गया पर इन नेताओं में परिपक्वता नहीं थी ,अन्ना की भी कोई स्पष्ट व्यापक विचार धारा नहीं थी जिससे केजरीवाल जैसे लोगों का जन्म हुआ अन्ना व रामदेव के कन्धों पर ऊपर चढ़ केजरीवाल आ तो गए लेकिन मध्यवर्गीय समस्याओं के प्रचार से प्रसिद्धि भी पा गए पर इनका वैचारिक दर्शन कुछ भी न हो पाने के कारण आज यह हाल हो रहा है कि सिर फूट रहे हैं , अब जनता को यदि अपेक्षा स्वरुप हल नहीं मिला तो पांच साल धोएगी तो सही लेकिन फिर यह इतिहास की चीज बन जाएगी
    दुर्भाग्य यह रहेगा कि भविष्य में फिर स्वच्छ शासन के नाम पर आने वाले दल व नेताओं का विश्वास जनता नहीं करेगी और हमारे सिर ये दो दल ही सवार रहेंगे व देश का बंटाधार होता रहेगा
    आपके सुन्दर विश्लेषण के लिए आभार

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  2. समस्या नीयत की है.

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