विश्व कप के फाइनल मैच में हमारी टीम नहीं है इसलिए आज वह
जोशो-खरोश नहीं है जो हमारी टीम के होने पर होता। हमारी टीम भी फाइनल में होती तो
खुशी की बात होती, पर वह फाइनल में नहीं है इसलिए कुछ बातों पर ठंडे दिमाग से
सोचने का मौका हमारे पास है। गुरुवार को हुए सेमी फाइनल मैच ने कुछ बातों की और
इशारा किया भी है। मैच के दो दिन पहले से लगभग पूरे देश ने मान लिया था कि विश्व
कप तो अब हमारे हाथों में है। इस समझ को बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने निभाई। तमाम चैनलों ने अपनी दुकानें सज़ा दी थीं और वे अभूतपूर्व तरीके
से कवरेज कर रहे थे। शायद हमारी हार की एक वजह यह भी थी। पूरी टीम पर जीत के लिए
जो दबाव था उसके कारण वह बड़ी गलतियाँ करती गई। जैसे ही टीम हारी इस मीडिया के
तेवर बदल गए। इसने फौरन टीम और उसके कुछ खिलाड़ियों को विलेन बना दिया।
कल तक जिस विराट कोहली और अनुष्का शर्मा को उसने हीरो और
हीरोइन बना रखा था देखते-देखते उन्हें मिट्टी में मिला दिया। इस हार को ‘राष्ट्रीय शर्म’ के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।
काहे की राष्ट्रीय शर्म? क्या हमारी टीम पहली बार हारी है? या भविष्य में वह जीतेगी नहीं? सच यह है कि हमारा
मीडिया धीरे-धीरे ‘राष्ट्रीय शर्म’ का
विषय बनता जा रहा है। केवल क्रिकेट ही नहीं जीवन के किसी भी मामले को बेहद
सनसनीखेज बनाने की प्रवृत्ति उसे अविश्वसनीय और घटिया बनाती जा रही है। टीम जीत
जाती तो खुशी की बात थी, पर हार गई तो यह रोने की बात क्यों है? क्योंकि अब आपको अगले तीन-चीर रोज खेल को तमाशा बनाने का मौका नहीं
मिलेगा? अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने टीम के खेल की
तारीफ की और अपने ट्वीट में लिखा कि खेल में हार और जीत लगी रहती है। हमें शालीनता
के साथ हार को स्वीकार करना चाहिए और देखना चाहिए कि हम क्यों हारे। इसे आक्रामक
राष्ट्रवाद से जोड़ना बंद करके देखना चाहिए कि हम खेल के लिए करते ही क्या हैं।
इस विश्व कप प्रतियोगिता में हमारा पहला मैच ही पाकिस्तान
के साथ था। मीडिया ने उस मैच को ही विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी घटना बना दिया
था। बहरहाल टीम वह मैच जीत गई। उसके बाद हमारी उम्मीदें और बढ़ गईं। मीडिया का
कर्तव्य था कि वह खेल के विविध अंगों का विश्लेषण करता और उम्मीदें उस हद तक ही
जगाता जो पूरी हो सकने वाली थीं। हमारी टीम बेशक अच्छी है र वह विश्व कप जीतने में
समर्थ टीम है, पर खेल में कोई एक टीम हारती भी है। दिक्कत यह है कि अब खेल कम, मनोरंजन ज्यादा है। यह अब आईबॉल्स का खेल है। संस्कृति, मनोरंजन,
करामात, करिश्मा, जादू
जैसी तमाम बातें क्रिकेट में आ चुकी हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं
था।
सन 1983 में जब कपिल देव की टीम ने एकदिनी क्रिकेट का विश्व कप जीता था तब उन्हें इस
बात का एहसास नहीं रहा होगा कि वे दक्षिण एशिया में न सिर्फ खेल बल्कि जीवन, समाज,
संस्कृति और मनोरंजन की परिभाषाएं बदलने जा रहे हैं। बेशक
क्रिकेट उस वक्त भद्र-लोक का खेल था। रेडियो कमेंट्री ने उसे काफी लोकप्रिय बना
रखा था, पर वह सिर्फ खेल था। तब तक वह सफेद कपड़ों में और लाल गेंद से खेला जाता था।
भारत उस वक्त कायदे से टीवी पर लाइव प्रसारण भी बमुश्किल होता था। अब केवल प्रसारण
की ताकत पर यह खेल आपके ड्राइंग रूम से होता हुआ आपके बेडरूम तक पहुँच चुका है।
इसे नकारात्मक तरीके से देखने की जरूरत नहीं है।
खेल को आर्थिक गतिविधियों से जोड़ने का फायदा भी मिला है और
कुछ नुकसान भी हुआ है। खासतौर से हॉकी और फुटबॉल जैसे खेलों को नुकसान भी हुआ है,
जिनपर हम अब कम ध्यान देते हैं। इसके पीछे कारोबार जगत का बड़ा हाथ है। पर सबसे
बड़ा कारण तो टीम को मिली सफलता है। सामान्य दर्शक को सफलता और हीरो चाहिए।
राष्ट्रीय-अभिमान,
उन्माद और मौज-मस्ती के लश्कर इसके सहारे बढ़ते गए हैं।
इसके सहारे विकसित हुई हैं गीत-संगीत, कलाएं और जीवन-शैली। इसे
अच्छा या बुरा जो भी कहें वह जैसा हो सकता है वैसा है।
फटाफट क्रिकेट ने खेल के मैदान से ज्यादा हमारी जिंदगियों
को बदल डाला है। क्रिकेट की खबरें, क्रिकेट के विज्ञापन।
बॉलीवुड के अभिनेता,
अभिनेत्री क्रिकेट में और सारे देश के नेता क्रिकेट में।
मैच फिक्सिंग वगैरह को भी इसमें शामिल कर लें तो सारे अपराधी क्रिकेट में और सारे
अपराध क्रिकेट में। इस खेल की लोकप्रियता ने राजनीति और राजनय के दरवाजे भी खोले।
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते कितने भी बिगड़े हों, पर हमारे टीवी पर वसीम
अकरम, रमीज़ राजा,
शोएब अख्तर और दूसरे पाकिस्तानी खिलाड़ी जब आते हैं तब हम
उन्हें बड़े प्यार से सुनते हैं। क्रिकेट में पैसा, इज्जत
और शोहरत है। अक्सर खिलाड़ी का एक छक्का उसे शोहरत के दरवाजे पर खड़ा कर देता है।
क्रिकेट को मिले कारोबारी समर्थन के फायदे भी हैं। इसके
कारण हमारे गाँवों और कस्बों की प्रतिभाएं सामने आई हैं। बच्चों के मन में बेहतर
करने की इच्छा है। क्रिकेट के बाद कारोबार जगत ने हॉकी, कबड्डी, फुटबॉल और
बैडमिंटन जैसे खेलों की तरफ भी ध्यान दिया है। खेल केवल मनोरंजन नहीं है। यह
स्वस्थ शरीर के अलावा स्वस्थ समाज की निशानी भी है। यह हमें अनुशासित बनाता है और
ऊर्जा के सकारात्मक इस्तेमाल के रास्ते खोलता है। खेल का सबसे बड़ा सूत्र है
नियमों को पालन करना और अनुशासन। एक प्रकार से यह बेहतर नागरिक बनाने की पाठशाला
भी है। क्या हम इसे इसी रूप में ले रहे हैं?
खेल हमें प्रतिभा का सम्मान करने की प्रेरणा देता है भले ही
वह विपक्षी टीम में हो। वह हमें योजना बनाकर काम करने का रास्ता दिखाता है। अंधा
नहीं बनाता। गुरुवार की शाम कुछ लोगों ने प्रतीक रूप में टीवी सेट तोड़े। उसे
सिवाय नासमझी के कुछ और नहीं कहा जा सकता। भारत एक विशाल ताकत के रूप में उभर रहा
है। खेल के मैदान में भी वह ताकत बनेगा, पर तभी जब हम शांत, संतुलित और समझदारी का
परिचय देंगे।
हरिभूमि में प्रकाशित
kuch sudhar hona chahiye
ReplyDeleteमीडिया ने तो लीग मैच होते ही भारत को विश्व विजेता बनाना शुरू कर दिया था ,और सेमीफइनल के पहले तो उसने निश्चित कर दिया था कि कप हमारा ही है , फाइनल के लिए धोनी की टीम को उसके प्लान की कोई खबर नहीं थी लेकिन ये चैनल इस प्रकार डैम थोक रहे थे व दवा कर रहे थे कि धोनी ने क्या योजना बनाई है कौनसा आदि आदि मीडिया का काम खबर देना , उन पर उचित विचार विमर्श करना है वह भी केवल दिन में एक या दो बार परन्तु इन्होने तो 24 घंटे ही इस पर झकना शुरू कर दिया , यहाँ तक इस दौरान देश में कोई भी घटना घटित हुई सीमा पर क्या हुआ , अन्तराष्ट्रीय राजनीती में क्या क्या घाट गया उसे परवाह नहीं थी इतना हाइप दे कर लोगों की अपेक्षाओं को बढ़ा दिया और परिणाम सामने था अब हार के बाद छाती पीटना, मातम मनाना ,व उसका पोस्टमार्टम करना उनका दूसरा उद्देश्य बन गया कुल मिला कर यह सब मीडिया का ही करा धरा है ,अन्यथा टीमें और भी हारती हैं उन पर कोई स्यापा नहीं किया जाता
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