पिछले एक हफ्ते
में श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी आक्रामक नजर आ रही है। यह
आक्रामकता संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह है। सबसे महत्वपूर्ण है सोनिया गांधी का
सड़क पर उतरना। यह पहला मौका है जब सोनिया गांधी सड़क पर उतरी हैं। केवल सड़क पर
ही नहीं सामने आकर नेतृत्व कर रही हैं। इसके कई कारण हैं। पहला कारण कांग्रेस की
बदहाली है। अपने इतिहास में पार्टी सबसे ज्यादा संकट से घिरी नजर आती है। कांग्रेस
का आक्रामक होना इसलिए स्वाभाविक लगता है। पर सोनिया क्यों, राहुल क्यों नहीं? क्या पार्टी ने कोई और
प्लान बनाया है? इसका जवाब समय देगा। बहुत सी बातों के जवाब समय के आवरण में छिपे हैं। अलबत्ता इतना दिखाई पड़ रहा है कि कांग्रेस अपनी पराजित छवि को दुरुस्त करके मैदान में वापसी करेगी।
संयोग है कि
कांग्रेस की आक्रामकता के बरक्स भाजपा दबाव में हैं। उधर आम आदमी पार्टी अपने
अंतर्विरोधों से घिर गई है। कांग्रेस की जमीन इन दोनों ने ही छीनी है। कुछ लोग
मानते हैं कि मनमोहन सिंह के घिरने से सोनिया गांधी या कांग्रेस का नेतृत्व घिर
गया है। शायद अब कोयला और टूजी मामलों की वास्तविक कथा सामने आने वाली है। फिलहाल
ऐसा भी नहीं लगता। बल्कि लगता यह है कि कोयला मामले में मनमोहन सिंह के घिरने से
कांग्रेस को उबरने में मदद मिलेगी। लगभग उसी तरह जैसे शाह आयोग के कारण इंदिरा
गांधी को उबरने का मौका मिला था। जिस मामले में मनमोहन सिंह को अभियुक्त बनाया गया
है, उसके लिए आग्रह सीबीआई का नहीं था। सरकार की इच्छा होती तो वह सीबीआई के
मार्फत दबाव बनाती। पर मनमोहन सिंह को अदालत ने अभियुक्त बनाया है।
अदालती समन जारी
होने के बाद सोनिया गांधी ने 24 अकबर रोड से मनमोहन सिंह के मोती लाल नेहरू मार्ग
तक जो मार्च निकाला वह कई मानों में अभूतपूर्व था। कांग्रेस ने इसका दो तरह से
फायदा उठाने की कोशिश की है। एक तो उन्हें आशा है कि मनमोहन सिंह साफ निकलेंगे और
पार्टी को इसका फायदा मिलेगा। दूसरे इसे लेकर सरकार को घेरा जा सकता है। पार्टी ने
सरकार पर ‘जानबूझकर खामोशी’ बरतने का आरोप लगाया।
मनमोहन सिंह
मामले से कांग्रेस को बजाय नुकसान होने के फायदा मिलेगा। सीबीआई मानती है कि हिंडाल्को
मामले में मई 2005 से अक्तूबर 2005 के बीच पीएमओ और कोयला मंत्रालय के बीच की सारी
प्रक्रिया पारदर्शी थी और कार्यपालिका ने अपने विवेक का जो इस्तेमाल किया उसमें
अपराध नहीं था। अंततः फैसला अदालत को करना है, पर यदि मनमोहन सिंह आरोप मुक्त हुए
तो कांग्रेस को कोयला घोटाले से जुड़े दूसरे मामलों से भी सांकेतिक मुक्ति मिल
जाएगी। एक तरह से कांग्रेस को यह बेहतरीन मौका मिला है जिसका पूरा लाभ वह उठाना
चाहती है। सोनिया गांधी की आक्रामकता के पीछे बड़ा कारण यही नजर आता है।
पिछले साल संजय
बारू और नटवर सिंह की किताबों का निशाना सीधे-सीधे नेहरू-गांधी परिवार था। माना
जाता है कि यूपीए-1 और 2 के दौर में मनमोहन सिंह को सामने रखकर शासन संचालन खुद
नेहरू-गांधी परिवार ने किया। वास्तव में ऐसा था या नहीं इसके बारे में तभी कुछ बात
सामने आ सकती है जब मनमोहन सिंह खुद कुछ कहें। पर मनमोहन सिंह ने खुद कोई बात नहीं
कही। पिछले साल मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह की किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण' में केवल व्यक्तिगत बातें थीं। ऐसी कोई बात नहीं थी जो राजनीति पर रोशनी डाले।
हाँ पिछले साल 5 अगस्त के टाइम्स
ऑफ इंडिया में सागरिका घोष के साथ इंटरव्यू में दमन सिंह ने जो कहा उससे लगता था
कि मनमोहन सिंह के पास भी कहने को कुछ है। उन्होंने यह माना कि पार्टी के भीतर
मनमोहन सिंह का विरोध होता था। दमन सिंह ने मनमोहन सिंह के पीवी नरसिम्हाराव और
इंदिरा गांधी के साथ रिश्तों पर तो बोला, पर सोनिया गांधी से जुड़े
सवाल पर वे कन्नी काट गईं और कहा कि यह सवाल उनसे (यानी मनमोहन सिंह से) ही करिए।
संजय बारू ने
लिखा था कि मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से फैसले नहीं कर पाते थे। इसके बाद पूर्व
कोयला सचिव पीसी पारख की किताब 'क्रुसेडर ऑर कांस्पिरेटर:
कोलगेट एंड अदर ट्रूथ' ने यह बताने की कोशिश की
कि कोयला मंत्रालय के कामकाज को प्रधानमंत्री असहाय प्रधानमंत्री की तरह देखते थे।
यह चोट व्यक्तिगत रूप से मनमोहन सिंह पर थी। यह सवाल अपनी जगह है कि किसने उन्हें
असहाय बनाया? 27 सितम्बर 2013 को राहुल गांधी ने जब केंद्र
सरकार के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने की बात कही थी उसी रोज़ संजय बारू का बयान
आया था कि मनमोहन सिंह को इस्तीफा दे देना चाहिए।
पिछले साल 3 जनवरी को मनमोहन सिंह ने अपने आखिरी संवाददाता सम्मेलन में
कहा था, ‘मेरे कार्यकाल के बारे में इतिहासकार फ़ैसला
करेंगे। मैं नहीं मानता कि मैं एक कमजोर प्रधानमंत्री रहा हूं …। राजनीतिक
बाध्यताओं को देखते हुए जो मैं कर सकता था मैंने किया है।’ फिलहाल कोयला मामले में
उनके अदालत के सामने हाजिर होने मात्र से बहुत सी बातें सामने नहीं आ सकतीं।
सोनिया गांधी
किसी योजना के साथ सामने आईं हैं। वे ‘सेक्युलर’
ताकतों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहीं हैं। भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर विरोधी
एकता कायम करने में वे सफल भी हुईं हैं, पर संसद खान और उर्वरक विधेयक पर राज्यसभा
में कांग्रेसी रणनीति काम नहीं कर पाई, क्योंकि राज्य सरकारों को कानून पास करने
में फायदा दिखाई पड़ा। इसी तरह चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्य
सरकारों के पास संसाधन बढ़ने वाले हैं जिसके कारण राज्य सरकारें उत्साहित हैं।
भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के
नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें
विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं। संयोग है कि तीनों विपक्ष की
सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं। अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को
भी समझने की जरूरत है।
इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के दिन फिरने वाले हैं। उसके लिए यह महत्वपूर्ण
समय है। नेतृत्व में बदलाव का समय है, पर राहुल गांधी को लेकर संशय है। दूसरी
चुनौती है चुनाव में सफल होने की। बिहार में इस साल और असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु
और पुदुच्चेरी में अगले साल चुनाव होने हैं। इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश,
उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर की बारी है। अभी तक तो
कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल नहीं लगता। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से
कांग्रेस ने हारना शुरू कर दिया था। उसे यदि वापसी करनी है तो 2017 के चुनावों से
उसे सफल होना होगा। यह काम काफी मुश्किल है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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