युवाल हरारी, हिब्रू यूनिवर्सिटी, यरुसलम.
विज्ञान और टेक्नोलॉजी में हो रही प्रगति के बरक्स इंसानी भविष्य पर एक बेहद दिलचस्प और विचारोत्तेजक लेख पेश है. हिंदी में ऐसे लेखों का सर्वथा अकाल है. लेखक प्रो. युवाल हरारी इतिहास पढ़ाते हैं. उनकी पुस्तक 'शेपियंस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ ह्यूमनकाइंड' इन दिनों धूम मचाए हुए है. उनकी किताब का विषय है मनुष्य का इतिहास जिसमें वे एक जैविक शरीर के रूप में इंसान के इतिहास को देखते हैं और फिर उसकी विविध क्रांतियों मसलन कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और पचास साल पुरानी सूचना क्रांति के प्रभावों का विवेचन करते हैं. इस बायो-इंजीनियरी ने मनुष्योत्तर सायबॉर्ग को जन्म दिया है जो अमर है. लगता है यह मनुष्य को पीछे छोड़ देगा. इस रोचक लेख का अनुवाद किया है आशुतोष उपाध्याय ने.
..................................................................................
जैसे-जैसे 21वीं सदी अपने पांव पसार रही है, इंसान के सिर पर उसकी कीमत ख़त्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है. क्योंकि बुद्धिमत्ता और चेतना का अटूट गठबंधन टूटने के कगार पर है. अभी हाल तक उच्च मेधा को अति विकसित चेतना का ही एक पहलू समझा जाता था. केवल चेतन जीव ही ऐसे काम करते पाए जाते थे जिनके लिए अच्छे खासे दिमाग की ज़रूरत पड़ती थी- जैसे शतरंज खेलना, कार चलाना, बीमारियों का पता लगा लेना या फिर लेख लिख पाना. मगर आज हम ऐसी नई तरह की अचेतन बुद्धिमत्ता विकसित कर रहे हैं जो इस तरह के कामों को इंसानों से कहीं ज्यादा बेहतर कर सकती है.
इस परिघटना ने एक अनूठे सवाल को जन्म दिया है- दोनों में कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है, बुद्धिमत्ता या चेतना? जब तक ये दोनों साथ-साथ चल रहे थे, यह सवाल दार्शनिकों के वक्त बिताने का एक बहाना भर था. लेकिन 21वीं सदी में यह सवाल एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा बन गया है. और इस बात को अब खासी तवज्जो दी जा रही है कि कम से कम आर्थिक नज़रिए से बुद्धिमत्ता अपरिहार्य है, जबकि चेतना का कोई ख़ास मोल नहीं.
हाड़-मांस के टैक्सी ड्राइवर का चेतन अनुभव गूगल की स्वचालित कार की तुलना में बेशक अतुलनीय रूप से गहरा होगा. गूगल की कार कुछ भी महसूस नहीं करती. लेकिन व्यवस्था एक टैक्सी ड्राइवर से महज इतना चाहती है कि वह जल्द से जल्द, सुरक्षित और सस्ते से सस्ते में सवारी को एक स्थान से दूसर स्थान तक पहुंचा दे. और जल्द ही गूगल की स्वचालित कार यह काम किसी इंसानी ड्राइवर के मुकाबले कहीं बेहतर करेगी. यही बात मैकेनिकों, वकीलों, सैनिकों, डॉक्टरों, अध्यापकों और यहां तक कि कम्प्यूटर इंजीनियरों के बारे में भी कही जा सकती है.
तब ये फालतू हो चुके लोग क्या करेंगे? यह कोई नया सवाल नहीं है. औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से ही लोगों को डर सताने लगा था कि यांत्रिकीकरण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा करेगा. ऐसा हुआ नहीं क्योंकि जैसे-जैसे पुराने पेशे प्रचलन से बाहर होते गए, नए-नए पेशे जन्म लेते रहे और इंसानों में कोई न कोई बात ऐसी बची रही जिसके कारण वे खुद को मशीनों से उन्नीस साबित कर पाए. मगर यह प्रकृति का नियम नहीं था.
इंसानों में दो तरह की बुनियादी क्षमताएं होती हैं: शारीरिक क्षमताएं और संज्ञानात्मक क्षमताएं. पिछली दो सदियों में मशीनों ने शारीरिक क्षमताओं के मामले में इंसानों को पीछे छोड़ दिया, इंसान ज्यादातर संज्ञानात्मक कार्यों की ओर केन्द्रित होते चले गए. जरा सोचिये क्या होगा जब इस मामले में भी कम्प्यूटरी अल्गोरिथम हमें पछाड़ देंगे.
यह विचार कि इंसानों के पास हमेशा एक ऐसी विलक्षण क्षमता मौजूद रहेगी जो अचेतन अल्गोरिथम की पहुंच से बाहर होगी, एक खुशफहमी से ज्यादा कुछ नहीं. यह समझ उस परंपरागत अवधारणा पर आधारित है जो मानती है कि बुद्धिमत्ता और चेतना अवश्यम्भावी रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. लाखों सालों के उद्विकास के दौरान यह दलील संभव है काम कर गयी हो, मगर अब ऐसा कतई नहीं. विज्ञान फंतासियों पर आधारित फिल्मों में दिखाई जाने वाली मनुष्य और कम्पूटरों की लड़ाइयों में विजय हमेशा मनुष्यों की होती है. क्योंकि यह मान लिया जाता है कि हम मनुष्यों में कुछ जादुई चिंगारी होती है जिसे कम्प्यूटर न तो समझ सकते हैं और न ही हासिल कर सकते हैं. यह सोच आत्मा पर एकेश्वरवादी आस्था की विरासत की देन है.
जब तक हम यह मानते रहे कि इंसानों के आत्मा होती है, इस बात पर विश्वास करना बहुत आसान था कि आत्मा के पास चंद ऐसी जादुई शक्तियां होती हैं जो कम्प्यूटरी अल्गोरिथम की पहुंच से हमेशा बाहर रहेंगी. लेकिन विज्ञान आत्माओं में विश्वास नहीं करता. मौजूदा वैज्ञानिक मान्यता का निचोड़ तीन सरल सिद्धांतों में निकाला जा सकता है:
1. होमो शेपियंस सहित कोई भी जीव प्रकृति द्वारा गढ़ा गया कार्बनिक अल्गोरिथम है, लाखों वर्षों के उद्विकास के दौरान जिसे प्राकृतिक चयन ने आकार दिया है.
2. जिस गति से प्राकृतिक चयन कार्बनिक अल्गोरिथम का विकास करता है, कम्पूटर वैज्ञानिक उससे कहीं ज्यादा तेज़ी से अकार्बनिक अल्गोरिथम तैयार का सकते हैं.
3. यह मान लेने का कोई आधार नहीं कि कार्बनिक अल्गोरिथम कुछ ऐसे विशिष्ट काम कर सकते हैं जिन्हें दोहराने या कमतर साबित करने में अकार्बनिक अल्गोरिथम कभी कामयाब नहीं होंगे. आखिर अल्गोरिथम तो अल्गोरिथम ही हैं. जब तक गणित काम करता है, इस बात से क्या कोई फर्क पड़ता है कि अल्गोरिथम कार्बन में प्रकट होते हैं या सिलिकन में या फिर प्लास्टिक में?
यकीनन, आज की तारीख़ में कई ऐसे काम हैं जिनमें कार्बनिक अल्गोरिथम अकार्बनिकों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करते हैं. लेकिन यह सिर्फ समय का मामला है. विशेषज्ञों ने पहले भी बार-बार घोषणाएं कीं- चाहे वह शतरंज का मामला हो, चेहरों की पहचान या फिर कार चलाने का, कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनमें अकार्बनिक अल्गोरिथम "हमेशा" पीछे ही रहेंगे. लेकिन उनका "हमेशा" एक या दो दशक से ज्यादा उम्र का साबित नहीं हो सका. ऐसा हुआ तो फिर लोग क्या करेंगे? कुछ जानकार कहते हैं कि हर आदमी कलाकार बन जाएगा. लेकिन कोई वजह नहीं कि कलात्मक रचनाओं के मामले में भी अकार्बनिक अल्गोरिथम कमतर साबित होंगे.
जीव विज्ञान के मुताबिक कला भी किसी आत्मा या परमात्मा की देन नहीं बल्कि कार्बनिक अल्गोरिथम का परिणाम है. अगर ऐसा है तो अकार्बनिक अल्गोरिथम भी कलाकारी में सिद्धहस्त क्यों नहीं हो सकते. पहले ही ऐसे कम्प्यूटर प्रोग्राम बन चुके हैं जो किसी संगीत का फिल्म के चलने या न चलने की, हाड़-मांस से बने समीक्षक की तुलना में ज्यादा सटीक भविष्यवाणी कर सकते हैं. और तो और कुछ कम्यूटर प्रोग्राम तो ऐसा संगीत तक रच सकते हैं जो श्रोताओं को मनुष्य जनित संगीत जितना ही दिलकश लगता है.
19वीं सदी में जहां औद्योगिक क्रान्ति ने भारी तादाद मजदूरों का एक नया वर्ग- यानी शहरी मजदूर वर्ग- पैदा किया था. 21वीं सदी में भी एक "दूसरी औद्योगिक क्रांति" बड़ी संख्या आर्थिक रूप से अनुपयोगी लोगों का वर्ग पैदा कर सकती है. नई तकनीकों की कृपा से इन लोगों को ठीक ढंग से पालना-पोसना और संतुष्ट रखना संभवतः आसान होगा. दवाओं की सही मात्र और कम्प्यूटर गेम यह कारनामा कर दिखाएंगे. इस तरह इन लोगों को ज़बरन ख़त्म करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. व्यवस्था इन लोगों को धीमे-धीमे विलुप्त हो जाने का इंतजाम कर देगी.
इस संभावना के बावजूद एक बड़ा सवाल बचा रह जाता है कि क्या चेतना का ऐसा कोई मूलभूत मूल्य है जिसका बुद्धिमत्ता से कोई लेना देना नहीं. राजनीतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान इस सवाल को ज्यादा तवज्जो नहीं देते. जीव विज्ञान और समाज विज्ञान, दोनों ही बुद्धिमत्ता और निर्णय लेने की प्रक्रिया पर भारी निवेश करते हैं, मानो जीवन सिर्फ बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने तक सीमित हो. इन दिनों हर तरह मस्तिष्क का बोलबाला है. दूसरी ओर मन और चेतना को दूसरे दर्जे का उत्पाद मान लिया गया है.
लेकिन सच तो यही है कि हम सचमुच नहीं जानते कि चेतना आखिर है क्या. हालांकि जीव विज्ञान में इस बात को रूढ़ि की तरह मान लिया गया है कि चेतना भी कार्बनिक अल्गोरिथम की पैदावार है, लेकिन किसी को पता नहीं कि यह होता कैसे है. यह एक रूढ़ मान्यता भर है. इस मान्यता की आलोचनात्मक परीक्षा न सिर्फ 21वीं सदी की सबसे बड़ी वैज्ञानिक चुनौती है, बल्कि सबसे ज़रूरी राजनीतिक और आर्थिक परियोजना भी.
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
विज्ञान और टेक्नोलॉजी में हो रही प्रगति के बरक्स इंसानी भविष्य पर एक बेहद दिलचस्प और विचारोत्तेजक लेख पेश है. हिंदी में ऐसे लेखों का सर्वथा अकाल है. लेखक प्रो. युवाल हरारी इतिहास पढ़ाते हैं. उनकी पुस्तक 'शेपियंस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ ह्यूमनकाइंड' इन दिनों धूम मचाए हुए है. उनकी किताब का विषय है मनुष्य का इतिहास जिसमें वे एक जैविक शरीर के रूप में इंसान के इतिहास को देखते हैं और फिर उसकी विविध क्रांतियों मसलन कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और पचास साल पुरानी सूचना क्रांति के प्रभावों का विवेचन करते हैं. इस बायो-इंजीनियरी ने मनुष्योत्तर सायबॉर्ग को जन्म दिया है जो अमर है. लगता है यह मनुष्य को पीछे छोड़ देगा. इस रोचक लेख का अनुवाद किया है आशुतोष उपाध्याय ने.
..................................................................................
जैसे-जैसे 21वीं सदी अपने पांव पसार रही है, इंसान के सिर पर उसकी कीमत ख़त्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है. क्योंकि बुद्धिमत्ता और चेतना का अटूट गठबंधन टूटने के कगार पर है. अभी हाल तक उच्च मेधा को अति विकसित चेतना का ही एक पहलू समझा जाता था. केवल चेतन जीव ही ऐसे काम करते पाए जाते थे जिनके लिए अच्छे खासे दिमाग की ज़रूरत पड़ती थी- जैसे शतरंज खेलना, कार चलाना, बीमारियों का पता लगा लेना या फिर लेख लिख पाना. मगर आज हम ऐसी नई तरह की अचेतन बुद्धिमत्ता विकसित कर रहे हैं जो इस तरह के कामों को इंसानों से कहीं ज्यादा बेहतर कर सकती है.
इस परिघटना ने एक अनूठे सवाल को जन्म दिया है- दोनों में कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है, बुद्धिमत्ता या चेतना? जब तक ये दोनों साथ-साथ चल रहे थे, यह सवाल दार्शनिकों के वक्त बिताने का एक बहाना भर था. लेकिन 21वीं सदी में यह सवाल एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा बन गया है. और इस बात को अब खासी तवज्जो दी जा रही है कि कम से कम आर्थिक नज़रिए से बुद्धिमत्ता अपरिहार्य है, जबकि चेतना का कोई ख़ास मोल नहीं.
हाड़-मांस के टैक्सी ड्राइवर का चेतन अनुभव गूगल की स्वचालित कार की तुलना में बेशक अतुलनीय रूप से गहरा होगा. गूगल की कार कुछ भी महसूस नहीं करती. लेकिन व्यवस्था एक टैक्सी ड्राइवर से महज इतना चाहती है कि वह जल्द से जल्द, सुरक्षित और सस्ते से सस्ते में सवारी को एक स्थान से दूसर स्थान तक पहुंचा दे. और जल्द ही गूगल की स्वचालित कार यह काम किसी इंसानी ड्राइवर के मुकाबले कहीं बेहतर करेगी. यही बात मैकेनिकों, वकीलों, सैनिकों, डॉक्टरों, अध्यापकों और यहां तक कि कम्प्यूटर इंजीनियरों के बारे में भी कही जा सकती है.
तब ये फालतू हो चुके लोग क्या करेंगे? यह कोई नया सवाल नहीं है. औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से ही लोगों को डर सताने लगा था कि यांत्रिकीकरण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा करेगा. ऐसा हुआ नहीं क्योंकि जैसे-जैसे पुराने पेशे प्रचलन से बाहर होते गए, नए-नए पेशे जन्म लेते रहे और इंसानों में कोई न कोई बात ऐसी बची रही जिसके कारण वे खुद को मशीनों से उन्नीस साबित कर पाए. मगर यह प्रकृति का नियम नहीं था.
इंसानों में दो तरह की बुनियादी क्षमताएं होती हैं: शारीरिक क्षमताएं और संज्ञानात्मक क्षमताएं. पिछली दो सदियों में मशीनों ने शारीरिक क्षमताओं के मामले में इंसानों को पीछे छोड़ दिया, इंसान ज्यादातर संज्ञानात्मक कार्यों की ओर केन्द्रित होते चले गए. जरा सोचिये क्या होगा जब इस मामले में भी कम्प्यूटरी अल्गोरिथम हमें पछाड़ देंगे.
यह विचार कि इंसानों के पास हमेशा एक ऐसी विलक्षण क्षमता मौजूद रहेगी जो अचेतन अल्गोरिथम की पहुंच से बाहर होगी, एक खुशफहमी से ज्यादा कुछ नहीं. यह समझ उस परंपरागत अवधारणा पर आधारित है जो मानती है कि बुद्धिमत्ता और चेतना अवश्यम्भावी रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. लाखों सालों के उद्विकास के दौरान यह दलील संभव है काम कर गयी हो, मगर अब ऐसा कतई नहीं. विज्ञान फंतासियों पर आधारित फिल्मों में दिखाई जाने वाली मनुष्य और कम्पूटरों की लड़ाइयों में विजय हमेशा मनुष्यों की होती है. क्योंकि यह मान लिया जाता है कि हम मनुष्यों में कुछ जादुई चिंगारी होती है जिसे कम्प्यूटर न तो समझ सकते हैं और न ही हासिल कर सकते हैं. यह सोच आत्मा पर एकेश्वरवादी आस्था की विरासत की देन है.
जब तक हम यह मानते रहे कि इंसानों के आत्मा होती है, इस बात पर विश्वास करना बहुत आसान था कि आत्मा के पास चंद ऐसी जादुई शक्तियां होती हैं जो कम्प्यूटरी अल्गोरिथम की पहुंच से हमेशा बाहर रहेंगी. लेकिन विज्ञान आत्माओं में विश्वास नहीं करता. मौजूदा वैज्ञानिक मान्यता का निचोड़ तीन सरल सिद्धांतों में निकाला जा सकता है:
1. होमो शेपियंस सहित कोई भी जीव प्रकृति द्वारा गढ़ा गया कार्बनिक अल्गोरिथम है, लाखों वर्षों के उद्विकास के दौरान जिसे प्राकृतिक चयन ने आकार दिया है.
2. जिस गति से प्राकृतिक चयन कार्बनिक अल्गोरिथम का विकास करता है, कम्पूटर वैज्ञानिक उससे कहीं ज्यादा तेज़ी से अकार्बनिक अल्गोरिथम तैयार का सकते हैं.
3. यह मान लेने का कोई आधार नहीं कि कार्बनिक अल्गोरिथम कुछ ऐसे विशिष्ट काम कर सकते हैं जिन्हें दोहराने या कमतर साबित करने में अकार्बनिक अल्गोरिथम कभी कामयाब नहीं होंगे. आखिर अल्गोरिथम तो अल्गोरिथम ही हैं. जब तक गणित काम करता है, इस बात से क्या कोई फर्क पड़ता है कि अल्गोरिथम कार्बन में प्रकट होते हैं या सिलिकन में या फिर प्लास्टिक में?
यकीनन, आज की तारीख़ में कई ऐसे काम हैं जिनमें कार्बनिक अल्गोरिथम अकार्बनिकों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करते हैं. लेकिन यह सिर्फ समय का मामला है. विशेषज्ञों ने पहले भी बार-बार घोषणाएं कीं- चाहे वह शतरंज का मामला हो, चेहरों की पहचान या फिर कार चलाने का, कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनमें अकार्बनिक अल्गोरिथम "हमेशा" पीछे ही रहेंगे. लेकिन उनका "हमेशा" एक या दो दशक से ज्यादा उम्र का साबित नहीं हो सका. ऐसा हुआ तो फिर लोग क्या करेंगे? कुछ जानकार कहते हैं कि हर आदमी कलाकार बन जाएगा. लेकिन कोई वजह नहीं कि कलात्मक रचनाओं के मामले में भी अकार्बनिक अल्गोरिथम कमतर साबित होंगे.
जीव विज्ञान के मुताबिक कला भी किसी आत्मा या परमात्मा की देन नहीं बल्कि कार्बनिक अल्गोरिथम का परिणाम है. अगर ऐसा है तो अकार्बनिक अल्गोरिथम भी कलाकारी में सिद्धहस्त क्यों नहीं हो सकते. पहले ही ऐसे कम्प्यूटर प्रोग्राम बन चुके हैं जो किसी संगीत का फिल्म के चलने या न चलने की, हाड़-मांस से बने समीक्षक की तुलना में ज्यादा सटीक भविष्यवाणी कर सकते हैं. और तो और कुछ कम्यूटर प्रोग्राम तो ऐसा संगीत तक रच सकते हैं जो श्रोताओं को मनुष्य जनित संगीत जितना ही दिलकश लगता है.
19वीं सदी में जहां औद्योगिक क्रान्ति ने भारी तादाद मजदूरों का एक नया वर्ग- यानी शहरी मजदूर वर्ग- पैदा किया था. 21वीं सदी में भी एक "दूसरी औद्योगिक क्रांति" बड़ी संख्या आर्थिक रूप से अनुपयोगी लोगों का वर्ग पैदा कर सकती है. नई तकनीकों की कृपा से इन लोगों को ठीक ढंग से पालना-पोसना और संतुष्ट रखना संभवतः आसान होगा. दवाओं की सही मात्र और कम्प्यूटर गेम यह कारनामा कर दिखाएंगे. इस तरह इन लोगों को ज़बरन ख़त्म करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. व्यवस्था इन लोगों को धीमे-धीमे विलुप्त हो जाने का इंतजाम कर देगी.
इस संभावना के बावजूद एक बड़ा सवाल बचा रह जाता है कि क्या चेतना का ऐसा कोई मूलभूत मूल्य है जिसका बुद्धिमत्ता से कोई लेना देना नहीं. राजनीतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान इस सवाल को ज्यादा तवज्जो नहीं देते. जीव विज्ञान और समाज विज्ञान, दोनों ही बुद्धिमत्ता और निर्णय लेने की प्रक्रिया पर भारी निवेश करते हैं, मानो जीवन सिर्फ बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने तक सीमित हो. इन दिनों हर तरह मस्तिष्क का बोलबाला है. दूसरी ओर मन और चेतना को दूसरे दर्जे का उत्पाद मान लिया गया है.
लेकिन सच तो यही है कि हम सचमुच नहीं जानते कि चेतना आखिर है क्या. हालांकि जीव विज्ञान में इस बात को रूढ़ि की तरह मान लिया गया है कि चेतना भी कार्बनिक अल्गोरिथम की पैदावार है, लेकिन किसी को पता नहीं कि यह होता कैसे है. यह एक रूढ़ मान्यता भर है. इस मान्यता की आलोचनात्मक परीक्षा न सिर्फ 21वीं सदी की सबसे बड़ी वैज्ञानिक चुनौती है, बल्कि सबसे ज़रूरी राजनीतिक और आर्थिक परियोजना भी.
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
No comments:
Post a Comment