सोमवार से शुरू होने
वाला बजट सत्र मोदी सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा साबित होगा। उसके राजनीतिक पहलुओं
के साथ-साथ आर्थिक पहलू भी हैं। पिछले साल मई में नई सरकार बनने के एक महीने बाद
ही पेश किया गया बजट दरअसल पिछली सरकार के बजट की निरंतरता से जुड़ा था। उसमें
बुनियादी तौर पर नया कर पाने की गुंजाइश नहीं थी। इस बार का बजट इस माने में मोदी
सरकार का बजट होगा। एक सामान्य नागरिक अपने लिए बजट दो तरह से देखता है। एक उसकी
आमदनी में क्या बढ़ोत्तरी हो सकती है और दूसरे उसके खर्चों में कहाँ बचत सम्भव है।
इसके अलावा बजट में कुछ नई नीतियों की घोषणा भी होती है। इस बार का बजट बदलते भारत
का बजट होगा जो पिछले बजटों से कई मानों में एकदम अलग होगा। इसमें टैक्स रिफॉर्म्स
की झलक और केंद्रीय योजनाओं में बदलाव देखने को मिलेगा। एक जमाने में टैक्स बढ़ने
या घटने के आधार पर बजट को देखा जाता था। अब शायद वैसा नहीं होगा।
इस बार के बजट में
व्यवस्थागत बदलाव देखने को मिलेगा। योजना आयोग की समाप्ति और नीति आयोग की स्थापना
का देश की आर्थिक संरचना पर क्या प्रभाव पड़ा इसका पहला प्रदर्शन इस बजट में देखने
को मिलेगा। पहली बार केंद्रीय बजट पर राज्यों की भूमिका भी दिखाई पड़ेगी। पिछली
बार के बजट से ही केंद्रीय योजनाओं की राशि कम हो गई थी, जो प्रवृत्ति इस बार के
बजट में पूरी तरह नजर आएगी। चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप अब राज्यों
के पास साधन बढ़ रहे हैं। पर केंद्रीय बजट में अनेक योजनाओं पर खर्च कम होंगे।
आर्थिक सर्वेक्षण का भी नया रूप इस बार देखने को मिलेगा। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार
अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बनाई
है। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले में अर्थ-व्यवस्था का विवेचन होगा। साथ ही
इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले
वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।
महंगाई और रोजगार दो
सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं। इन दोनों बातों से जुड़ी नीतियाँ समस्या के अलग-अलग
पहलुओं को रेखांकित करती हैं। आर्थिक नीति को उसके अंतर्विरोधों में देखने की
जरूरत है। हरेक बजट के अंतर्विरोधी पहलू होते हैं। किसी के लिए अच्छा बजट दूसरे के
लिए खराब भी हो सकता है। हमें फिलहाल ऐसे बजट की जरूरत है जो आर्थिक संवृद्धि और
रोजगार के अवसर बढ़ाए। साथ ही महंगाई पर लगाम लगाकर रखे। इसके लिए बजट के अलावा
कुशल प्रशासनिक मशीनरी और प्रभावशाली नियमों की जरूरत भी होगी।
आँकड़ों की भाषा में
देखें तो महंगाई में वृद्धि रुकी है। यानी मुद्रास्फीति की दर लगभग शून्य पर आ गई
है। यह थोक वस्तुओं की कीमत के आधार पर है। सामान्य व्यक्ति को खाद्य वस्तुओं की
महंगाई ज्यादा परेशान करती है। उसमें कोई सुधार नहीं है। मुद्रास्फीति में कमी भी
खासतौर से पेट्रोलियम की अंतरराष्ट्रीय कीमतें गिरने के कारण है। यह अस्थायी
गिरावट है। अलबत्ता इसकी मदद से भारत सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित
करने में मदद मिली है, पर सामान्य नागरिक को सिवा पेट्रोल की कीमतों में मामूली
कमी होने के अलावा कोई बड़ी राहत नहीं मिली है।
पिछले कुछ वर्षों में
पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि होने के कारण अन्य वस्तुओं की कीमतें जो बढ़ीं थी
वे जस की तस हैं या और ज्यादा बढ़ीं हैं। वैश्विक मंदी जारी है। अभी तक चीन की
अर्थव्यवस्था में तेजी का रुख था। अब उसमें भी गिरावट का रुख है। पहली बार ऐसा लग
रहा है कि इस साल से भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी का रुख पकड़ेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था
में तेजी आने के कारण रोजगारों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। परिस्थितियाँ ठीक
रहीं तो अगले दस साल भारत के लिए अच्छे हैं। पर उसके पहले कई बड़े किन्तु-परन्तु
हैं।
मोदी सरकार के आने के
बाद कुछ बातें सकारात्मक हुई हैं। सरकार असमंजस की शिकार नहीं है। वह खुलकर और
जल्द फैसले कर रही है। उसके ज्यादातर फैसले यूपीए सरकार के फैसलों से मिलते-जुलते
हैं, पर उनमें संशय नहीं है। यूपीए सरकार दुविधा में रहती थी। इस सरकार के साथ
दुविधा नहीं है। एनडीए सरकार भी यूपीए सरकार की तरह सब्सिडी को खत्म करने और
आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने और निवेशकों को प्रोत्साहन देने की दिशा में सक्रिय
है। देश के सामने नई तकनीक को अपनाने की चुनौती है, जो व्यवस्था को कुशल बनाने में
भी कारगर है। इसके अलावा तेज शहरीकरण की जरूरत भी है। इसके समांतर शिक्षा,
स्वास्थ्य, आवास और पर्यावरण से जुड़े सवाल हैं।
गाँव छोड़कर शहरों में
तेजी से आ रही आबादी के लिए रोजगार चाहिए। ज्यादातर रोजगार शारीरिक श्रम से जुड़े
होने चाहिए। ऐसे रोजगार विनिर्माण और इंफ्रास्ट्रक्चर में ही सम्भव हैं। इसलिए
पहला काम इन क्षेत्रों में निवेश का है। इन क्षेत्रों में पैसा लगाने वाले निवेशक
श्रम कानूनों में बदलाव भी चाहते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि मजदूरों के हितों
का परित्याग कर दिया जाए। पूँजी निवेश को प्रोत्साहन देने का मतलब क्रोनी
कैपिटलिज्म को बढ़ावा देना भी नहीं है।
मध्य वर्ग की निगाहें
प्रत्यक्ष कर यानी आयकर पर रहती हैं। कराधान सरकार की कमाई का सबसे प्रमुख जरिया
है। पिछले कुछ साल से हम कर-व्यवस्था में सुधार के काम कर रहे हैं। बड़े कर
सुधारों के लिए आम बजट एक अच्छा मौका होता है। निवेशकों को आकर्षित करने के लिए भी
कर-प्रणाली में सुधार चाहिए। विदेशी निवेशक भारत में कारोबार करने से भागते हैं।
उन्हें लगता है कि यहां कई तरह के कराधान और कारोबार से संबंधित जटिल कानून हैं। हमारे
यहाँ कॉरपोरेट टैक्स की दरें भी काफी ऊँची हैं।
बजट में टैक्स रिफॉर्म के
साथ राजस्व में वृद्धि के तरीकों की जरूरत है। भारत सरकार वस्तु एवं सेवा कर
(जीएसटी) और प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) को लागू करने की दिशा में प्रयास कर रही
है। देखना है कि इस बजट में इस दिसा में क्या घोषणा की जाती है। देश में आयकर देने
वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, किंतु यह संख्या कुल आबादी की तीन फीसदी भी नहीं है। इसका
मतलब है कि काफी बड़ी संख्या में नागरिक अब भी टैक्स नहीं दे रहे हैं। वैश्विक
संस्थाओं का अनुमान है कि भारत में करोड़पतियों की संख्या सवा दो लाख से ज्यादा
है, पर सरकारी आँकड़ों में यह संख्या 42 हजार के आसपास ही है। यानी बड़ी आमदनी
वाले काफी लोग टैक्स नेट के बाहर हैं या कम टैक्स देते हैं।
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