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Sunday, January 4, 2015

‘नीति आयोग’ की राजनीति

नए साल पर सरकार ने योजना आयोग की जगह नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया यानी संक्षेप में नीति आयोग बनाने की घोषणा की है। पहले कहा जा रहा था कि नई संस्था का नाम 'व्यय आयोग' होगा। उसके बाद इसका नाम नीति आयोग सुनाई पड़ा, जिसमें नीति माने पॉलिसी था। अब नीति को ज्यादा परिभाषित किया गया है। मोटे तौर पर यह छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति की घोषणा है। इसका असर क्या होगा और नई व्यवस्था किस रूप में काम करेगी अभी स्पष्ट नहीं है। फिलहाल यह कदम प्रतीकात्मक है और व्यावहारिक रूप से संघीय व्यवस्था को रेखांकित करने की कोशिश भी है। कुछ लोगों ने इसे राजनीति आयोग बताया है। बड़ा फैसला है, जिसके राजनीतिक फलितार्थ भी होंगे। कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि इसका नाम न बदले, भले ही काम बदल जाए।


योजना आयोग को खत्म मोदी सरकार ने किया, पर इसकी शुरुआत यूपीए सरकार ने ही कर दी थी। सन 1991 से लागू उदारीकरण कार्यक्रम राष्ट्रीय निर्माण में निजी क्षेत्र और बाजार की ताकतों को शामिल करने के इरादे से ही शुरू किया गया था। कभी केंद्रीयकृत नियोजन का मतलब कोटा-लाइसेंस राज था। कौन सी कम्पनी कितनी कारें बनाएगी इसका फैसला सरकार कर रही थी। भारत में स्कूटर की बुकिंग के लिए लम्बी लाइनें लगती थीं और भगदड़ में मौतें हुईं थीं। पर पिछले दो दशक से कहानी बदल गई है। अब इसमें बाजार भी शामिल है। देखना यह है कि नई संस्था इसमें नयापन क्या लाएगी और इसका काम किस तरह चलेगी। वार्षिक और पंचवर्षीय योजना होंगी ही नहीं या होंगी तो किस प्रकार की होंगी? किस स्तर पर तैयार होंगी? साधनों की व्यवस्था कौन करेगा वगैरह।

माना जा रहा है कि नई संस्था सरकारी थिंक टैंक का काम करेगी। यानी यहाँ नीति के स्तर पर काम होगा। बाकी काम सरकार करेगी। योजना का विचार मूलतः साम्यवादी देशों से आया है। सबसे पहले 1920 के दशक में सोवियत संघ ने इसकी शुरूआत की थी। चीन में आज भी यह चल रही है, पर चीन ने भी सन 2006 से 2010 की अपनी ग्यारहवीं योजना का नाम बदल कर योजना की जगह दिशा-निर्देश कर दिया। भारत में इस वक्त 2012 से 2017 की योजना का दौर है। उसका भविष्य क्या होगा, यह अब देखना है।

योजना का एक और पहलू हमारी संघीय व्यवस्था से जुड़ा है। अभी तक की योजना व्यवस्था में केंद्र सरकार की ही भूमिका थी। योजना आयोग सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह था। इससे एक प्रकार से यह राजनीतिक संस्था भी बन गई थी। माना यह जाता था कि यह राज्यों और केंद्र के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाएगी, पर व्यवहार में यह भेदभाव का जरिया भी बन गई थी। पसंदीदा और सत्ताधारी दल से जुड़े राज्य फायदे में रहते थे। विरोधी राज्यों को शिकायत रहती थी। देश के अनेक राज्य केंद्र से भी बेहतर काम करते रहे हैं। राजकोषीय घाटे को कम करने में उनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। बावजूद इसके नीति-निर्धारण और साधनों के आवंटन में वे मार खाते रहे। कुशल और अकुशल राज्य अक्सर एक  पलड़े में तोल दिए जाते थे।

राज्यों को उनकी योजना बनाकर केंद्र सरकार दे रही थी जबकि होना इसके उलट चाहिए। यानी गाँव के स्तर पर योजना बननी चाहिए और उसे ऊपर जाना चाहिए। इसके अलावा अलग-अलग इलाकों की जरूरत के हिसाब से काम होना चाहिए। केरल की जरूरत वही नहीं है जो उत्तराखंड की है। बेहतर हो कि राज्यों को केंद्रीय राजस्व में से उनका हिस्सा देकर उन्हें योजना बनाने को बढ़ावा दिया जाए। सिद्धांततः एक राष्ट्रीय विकास परिषद थी, जिसमें राज्यों की हिस्सेदारी होती थी, पर उनकी बात सुनता कौन था?

बहरहाल दिसम्बर में सरकार ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक इस सिलसिले में बुलाई थी और उनके सामने नई संस्था के प्रारूप को रखा गया था। नई व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर और क्षेत्रीय स्तर पर गवर्निंग काउंसिल होंगी, जिनमें राज्यों के मुख्यमंत्री भी होंगे। इसकी शक्ल और काम करने के तरीके के बारे में आने वाला समय ही बताएगा, पर आने वाले बजट में इसकी छाप दिखाई देगी, क्योंकि अब योजनागत और गैर-योजनागत खर्चों का फर्क नजर नहीं आएगा।

योजनागत और गैर-योजनागत व्यय में अंतर को खत्म करने की सिफारिश रंगराजन समिति ने की थी, जिसकी शुरूआत पिछले साल पी चिदंबरम के बजट से ही हो गई थी। उस बजट में तमाम केंद्र प्रायोजित योजनाओं को राज्य सरकारों को हस्तांतरित कर दिया गया था। राज्यों को धनराशि के आवंटन में योजना आयोग की भूमिका पहले से ही कम हो गई। अब चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार है, जिसके सुझाव 1 अप्रैल 2015 से लागू होंगे और 31 मार्च 2020 तक लागू रहेंगे। इस प्रकार मोदी सरकार का पहला बड़ा अध्याय खुलेगा।

योजना आयोग की स्थापना जवाहर लाल नेहरू ने की थी लेकिन इसके रूपांतरण की बुनियाद साल 1991 में बनी कांग्रेस सरकार ने ही डाली थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यक्ति और विचारक के रूप में नेहरूवादी विरोधी के रूप में उभरे हैं। उन्होंने पिछले साल लाल किले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने पहले संदेश में योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा करके व्यवस्था-परिवर्तन के साथ-साथ प्रतीक रूप में अपने नेहरू विरोध को भी रेखांकित किया था। मोदी ने कहा था कि योजना आयोग अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। उसकी जगह नई संस्था की ज़रूरत है।

यह सिर्फ संयोग नहीं था कि दिसम्बर में बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में उन्होंने मनमोहन सिंह को खास तौर से उद्धृत किया। आर्थिक उदारीकरण का श्रेय मनमोहन सिंह को जाता है, जिसे नेहरूवादी रास्ते से हटने की शुरुआत कहा जाता है। मनमोहन सिंह बरसों से इसको पुनर्परिभाषित करने की बात करते रहे थे। अपने विदाई भाषण में भी उन्होंने लगातार खुल रही अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका की समीक्षा करने की सलाह दी थी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी आयोग के पुनर्गठन की बात थी।


योजना आयोग संविधान से निर्मित संस्था नहीं थी। साल 1950 में इसकी स्थापना कार्यकारिणी की फैसले से हुई थी। नीति आयोग भी संवैधानिक संस्था नहीं होगी, बल्कि योजना आयोग की तरह ही उसका गठन भी होगा। योजना आयोग के न रहने का मतलब यह भी नहीं कि नियोजन या प्लानिंग की भूमिका खत्म हो जाएगी। हाँ उसकी दिशा बदलेगी, पर अभी उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। हमारे यहाँ संविधान सम्मत वित्त आयोग की व्यवस्था है। वित्त आयोग संवैधानिक संस्था है लेकिन लंबे अरसे से योजना आयोग उसके मुकाबले ज्यादा प्रभावशाली संस्था रही है। इस दोहराव का निपटारा भी शायद अब होगा। 
हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. शायद कुछ तो बदलाव आएगा, व योजना आयोग जो बिना योजना के ही निर्मित था और अब अपनी उपयोगिता खो चूका था व सफ़ेद हठी बन गया था ,उसमें भी परिवर्तन आएगा राज्यो को प्रतिनिधित्व भी अब इस नीति आयोग की अपनी विशेषता होगी। कब्ग्रेस्स व विपक्ष को हर बात पर विरोध करने के बजाय उसे व उसकी क्रियाओं पर ध्यान देना चाहिए जरुरी नहीं कि कांग्रेस ने उसे नियुक्त किया था तो वह गलतिविहीन था और यह पार्टी कभी गलती नहीं करती यह क्यों भूल रही है कि उसने गलतियां की थी इस लिए सत्ता से बाहर आना पड़ा था। विरोध के लिए विरोध कांग्रेस के प्रति जनता का विरोध बढ़ा देगा

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