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Sunday, August 24, 2014

अनायास नहीं है नियंत्रण रेखा पर घमासान

जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा से जो खबरें आ रहीं है वे चिंता का विषय बनती जा रही हैं। शुक्र और शनिवार की आधी रात के बाद से अर्निया और रघुवीर सिंह पुरा सेक्टर में जबर्दस्त गोलाबारी चल रही है। इसमें कम से कम दो नागरिकों के मरने और छह लोगों के घायल होने की खबरें है। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने भारत की 22 सीमा चौकियों और 13 गाँवों पर जबर्दस्त गोलाबारी की है। पुंछ जिले के हमीरपुर सब सेक्टर में भी गोलाबारी हुई है। उधर पाकिस्तानी मीडिया ने भी सियालकोट क्षेत्र में भारतीय सेनाओं की और से की गई गोलाबारी का जिक्र किया है और खबर दी है कि उनके दो नागरिक मारे गए हैं और छह घायल हुए हैं। मरने वालों में एक महिला भी है।
सन 2003 का समझौता होने के पहले नियंत्रण रेखा पर भारी तोपखाने से गोलाबारी होती रहती थी। इससे सीमा के दोनों और के गाँवों का जीवन नरक बन गया था। क्या कोई ताकत उस नरक की वापसी चाहती है? चाहती है तो क्यों? बताया जाता है कि सन 2003 के बाद से यह सबसे जबर्दस्त गोलाबारी है। भारतीय सुरक्षा बलों ने इस इलाके की बस्तियों से तकरीबन 3000 लोगों को हटाकर सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा दिया है। अगस्त के महीने में नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की बीस से ज्यादा वारदात हो चुकी हैं। अंदेशा इस बात का है कि यह गोलाबारी खतरनाक स्तर तक न पहुँच जाए।
सुरंग किसलिए?
भारतीय सुरक्षा बलों ने इस बीच एक सुरंग का पता लगाया है जो सीमा के उस पार से इस पार आई है। इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान की और से घुसपैठ की कोशिशें खत्म नहीं हुईं हैं। आमतौर पर सर्दियों के पहले घुसपैठ कराई जाती है। बर्फबारी के बाद घुसपैठ कराना मुश्किल हो जता है। दो-एक मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई नागरिक रास्ता भटक जाए या कोई जानवर सीमा पार कर जाए, पर उतने पर भारी गोलाबारी नहीं होती। आमतौर पर फायरिंग कवर घुसपैठ करने वालों को दिया जाता है ताकि उसकी आड़ में वे सीमा पार कर जाएं। अंदेशा इस बात का है कि पाकिस्तान के भीतर एक तबका ऐसा है जो अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का इंतज़ार कर रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में वहाबी ताकत पुनर्गठित हो रही है। कहीं यह उसकी आहट तो नहीं?

क्यों हो रही है यह गोलाबारी? इस वक्त ऐसी क्या बात हो गई है कि सीमा पर वारदातें बढ़ गई हैं? इसी महीने पाकिस्तान ने बीएसएफ के उस जवान को सौंपा था, जिसे चेनाब नदी की तेज धारा बहाकर पाकिस्तान ले गई थी। उसे पाकिस्तान रेंजर्स ने पकड़ लिया था। पर उसकी वापसी राज़ी-खुशी हो गई थी। किसी तरह की कटुता नहीं हो पाई। सब ठीक रहता तो कल 25 अगस्त को भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच पहली बातचीत होती, जिससे रिश्तों को सामान्य करने की राह खुलती। पर 18 अगस्त को भारत ने उस बातचीत के रद्द होने की घोषणा की। उसके साथ ही सीमा पर तनाव और बढ़ गया है। उधर पाकिस्तान के भीतर राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही है। नवाज शरीफ के सामने कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी हो रहीं हैं। अभी कहना मुश्किल है कि इसका रिश्ता पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से है या नहीं।
गरदन काट संस्कृति
यह घटनाक्रम आज का नहीं है, बल्कि 18 महीने से चल रहा है। जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच सन 2003 में जो समझौता हुआ था, वह दस साल तक अमल में आया। पर कोई खास बात हुई है कि पिछले 18 महीनों से लगातार कुछ न कुछ हो रहा है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल जनवरी में भारत के दो सैनिकों की हत्या के बाद उनकी गरदन काटे की है। इससे देश भर में गुस्से की लहर दौड़ गई थी। सामान्य नागरिकों की तरह सैनिकों के मन में भी नाराजगी है। उस वक्त भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम सिंह ने कहा था कि इस कार्रवाई का बदला हम उचित समय और स्थान पर लेंगे। इस साल जनवरी में  उन्होंने कहा कि पड़ोसी नियम से चलेगा तो हम भी नियमों के मुताबिक चलेंगे, लेकिन अगर वह नियमों को तोड़ेगा तो हम भी नियमों से बंधे नहीं रहेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि बदला ले लिया गया है। जनरल सिंह ने यह बात तब कही जब वे भारतीय सेना की फायरिंग में 10 पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने की जानकारी दे रहे थे। फिर पिछले साल ही अगस्त के पहले सप्ताह में नियंत्रण रेखा पर पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या ने मामला और उलझाया। तब से अब तक घटनाएं लगातार हो ही रहीं हैं। 

सीमा पार कर सिर काट देने वाली बर्बरता के प्रकरण करगिल युद्ध के बाद सुनाई पड़े हैं। उस लड़ाई में कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व में छह सदस्यों वाले गश्ती दल को पाकिस्तानी सैनिकों ने काकसर सेक्टर के पास पकड़ लिया था। कालिया और उनके साथियों को 22 दिनों तक यातना दी गई, उनकी हत्या की गई और फिर उनके क्षत-विक्षत शव भारतीय सेना को सौंप दिए गए। इस लड़ाई के सात महीने बाद फरवरी 2000 में भारतीय सेना का इस बर्बरता से फिर सामना हुआ। पाकिस्तान की बॉर्डर एक्शन टीम (बैट) ने राजौरी जिले के नौशेरा इलाके में घात लगाकर सात भारतीय सैनिकों को मार डाला। तब भारतीय सैनिकों ने एक जवान का सिर कटा पाया। बताया जाता है कि रिपोर्ट से सैनिक का सिर कटे होने की बात हटा दी गई। बाद में पकड़े गए एक आतंकवादी से पूछताछ में पता चला कि पाकिस्तान में सैनिक दुश्मन के सिर को ट्रॉफी जैसा मानते हैं। भारतीय सैनिकों के साथ की गई बर्बरता की पुष्टि यूट्यूब पर जारी किए गए एक वीडियो से भी ही।

बॉर्डर एक्शन टीम
बैट के भेस में पाकिस्तानी स्पेशल सर्विसेज ग्रुप (एसएसजी) के कमांडो का एलओसी पार कर आना और भारतीय सैनिकों को मारकर चले जाना बगैर किसी योजना के सम्भव नहीं। सेना के एक अधिकारी कहते हैं कि बैट के हमले भावनाओं के आवेग में नहीं होते। वे नियंत्रण रेखा का अध्ययन करके कमजोर स्थलों की पहचान करने के बाद ही होते हैं। हर बात को जोड़ा नहीं जा सकता, पर पाकिस्तानी जेहादी प्रतिष्ठान के सोच-समझ को समझा जा सकता है। गर्दन काटने जैसी मध्य युगीन बर्बरता उनकी रणनीति है। सन 2001 में पाकिस्तान में अमेरिकी पत्रकार वॉल स्ट्रीट जरनल के रिपोर्टर डैनियल पर्ल का अपहरण कर सिर कलम कर दिया गया था। हाल में इस्लामी खिलाफत (स्टेट) के लोगों ने एक अमेरिकी पत्रकार जेम्स फोले की गर्दन काटकर हत्या की। यह उसी क्रूरता और बर्बरता की परिचायक है, जिसका प्रतिनिधित्व पाकिस्तानी जेहादी प्रतिष्ठान करता है। इराक से इन दिनों गर्दनें काटने की खबरें लगातार आ रहीं हैं। 

नवम्बर 2003 में दोनों देशों के बीच जो समझौता हुआ था, वह नियंत्रण रेखा के दोनों ओर रहने वाले ग्रामीणों के लिए राहत का संदेश लेकर आया था। नीलम घाटी के इलाके में इस गोलाबारी से जीवन नरक हो गया था। तब से यह समझौता चला आ रहा है। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद से नियंत्रण रेखा पर चौकसी भी बढ़ा दी गई थी। भारतीय सेना का कहना है कि जम्मू-कश्मीर के दक्षिणी हिस्से में नियंत्रण रेखा पार करके आतंकवादी कश्मीर आते हैं। 26/11 के बाद सीमा रेखा पर अतिक्रमण बढ़ा है। पिछले साल अतिक्रमण के 196 मामले हुए, सन 2012 में इनकी संख्या 93, 2011 में 61 और 2010 में 57 थी।

दूसरी ओर स्थितियाँ सामान्य बनाने की कोशिशों के तहत नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों के बीच व्यापार शुरू हुआ है। लोगों का आना-जाना बढ़ा है। भारत और पाकिस्तान के बीच अभी अच्छी तरह से कारोबारी रिश्ते बने ही नहीं हैं। रुपयों के लेन-देन की कोई बैंक-प्रणाली विकसित नहीं हुई है इसलिए कश्मीर में ज्यादातर व्यापार बार्टर की शक्ल में हैं। फिर भी वह तेजी से बढ़ रहा है। पर जेहादी तत्व इसे विफल करना चाहते हैं। आपको याद होगा कि जब 26 मई को नवाज शरीफ नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आना चाहते थे, तब हाफिज सईद ने कहा था कि इसका परिणाम आपको भुगतना होगा। क्या वास्तव में कोई छिपी ताकत है जिसे हम देख नहीं पा रहे हैं?

असली ताकत है सेना और जेहादी

पाकिस्तान एक्सप्रेस ट्रिब्यून में साबिर नज़र का कार्टून
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ इस वक्त अपने जीवन के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान और धर्मगुरु ताहिर अल कादरी के समर्थकों ने तकरीबन दस रोज़ से राजधानी इस्लामाबाद में डेरा डाल रखा है। संसद का घेराव जारी है। प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। सरकार संकट में है। वहां क्यों पैदा हुए ऐसे हालात और किस तरफ जा रहा है पाकिस्तान। इसी पर स्पेशल रिपोर्ट-पाकिस्तान में उथल पुथल। दोनों नेताओं ने 14 अगस्त को लाहौर से आजादी का मार्च शुरु किया था। सरकारी कोशिशों के बावज़ूद 16 अगस्त को प्रदर्शनकारियों का काफिला इस्लामाबाद पहुंच गया। पाकिस्तान में अराजकता या अस्थिरता का असर भारत पर भी पड़ता है। इमरान खान की पार्टी के अलावा पाकिस्तानी संसद के ज्यादातर नवाज़ शरीफ के साथ हैं। पर देखना यह है कि सेना और जेहादी प्रतिष्ठान किसके साथ है।

सेना के दबाव में सरकार और इमरान खान के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत के लिए मध्यस्थता शुरू हो गई है। सेना ने औपचारिक रूप से बयान देकर अपनी उपस्थिति का परिचय दिया है। यानी कि वह अब भी सबसे महत्वपूर्ण ताकत है। पिछले साल जब नवाज शरीफ ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की शपथ ली थी तब देश के 67 साल के इतिहास में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी-एक सरकार से दूसरी सरकार तक सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। उस वक्त ऐसा लगा था कि देश की सत्ता अब पूरी तरह लोकतांत्रिक सरकार के हाथ में आ गई है। सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ और नवाज़ शरीफ़ की मुलाक़ात के बाद सेना के जनसंपर्क विभाग की ओर से बयान जारी किया गया। उसके बाद प्रदर्शनकारियों के रुख में नरमी आई।

अटकल इस बात की भी है कि इमरान और कादरी के पीछे से सेना का हाथ है। सवाल यह है कि पाकिस्तान के जेहादियों और सेना की कश्मीर के बाबत क्या धारणा है? इनमें से कोई भारत के नजरिए से देखता भी है या नहीं? पाकिस्तान सेना इन दिनों देश के पश्चिमोत्तर में विद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। दो साल पहले जारी सेना के एक परिपत्र में भारत को दुश्मन नम्बर एक की सूची से हटाकर जेहादियों को नम्बर एक शत्रु घोषित किया गया था। पर इस फैसले के साथ अनेक किन्तु-परन्तु जुड़े हैं। पाकिस्तानी जेहादी प्रतिष्ठान की ताकत पीछे कश्मीर-एजेंडा भी है। जैशे मोहम्मद, हिज्बे मुजाहिदीन और लश्करे तैयबा का घोषित लक्ष्य कश्मीर है। पाकिस्तान सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष इनका साथ देती है।

अमेरिका ने हाफिज़ सईद पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है, पर पाकिस्तान सरकार ने उसे पकड़ने की कभी कोई कोशिश नहीं की। इस मामले में पाकिस्तान की न्यायपालिका भी जेहादियों के साथ है। जब तक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का शासन रहा पाकिस्तान की न्यायपालिका ने सरकार को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं खोया। ऐसा पाकिस्तान में ही सम्भव हुआ जब एक चुने हुए प्रधानमंत्री को निहायत तकनीकी कारणों से पद छोड़ना पड़ा। दूसरी बात यह कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने एक से ज्यादा बार यह साबित करने की कोशिश की कि देश की सेना नागरिक सत्ता के अधीन है और देश की न्यायपालिका ने इस बात को गलत साबित कर दिया। देश के राजदूत हुसेन हक्कानी को इस आरोप में हटना पड़ा कि उन्होंने अमेरिकी सरकार तक इस बात की गुहार लगाने की कोशिश की थी कि कहीं फौज तख्ता पलट न कर दे। पाकिस्तान की नागरिक सरकार अमेरिका के साथ रिश्ते बनाकर रखती है क्योंकि उसे देश चलाने के लिए पैसा अमेरिका से मिलता है, पर उसे कट्टरपंथी समूहों के साथ भी रिश्ते बनाकर रखने पड़ते हैं। दिफा-ए-पाकिस्तान काउंसिल नाम से 14 कट्टरपंथी संगठनों का समूह अमेरिकी झंडे जलाकर अपने इरादे ज़ाहिर कर चुका है। दिफा-ए-पाकिस्तान नाम से जो नया गठबंधन खड़ा हुआ है, वह धीरे-धीरे अल-कायदा की शक्ल लेता जा रहा है। अमेरिका के लिए यह परेशानी का नया सबब है। सच यह है कि सीरिया से लेकर इराक तक हर जगह पाकिस्तानी लड़ाके शामिल हैं।

ऐसा कहा जाता है कि सन 2007 में पाकिस्तान, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात के दबाव में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने परवेज़ मुशर्रफ ने बेनज़ीर भुट्टो की वापसी को स्वीकार कर लिया था। इसके तहत 5 अक्टूबर 2007 को नेशनल रिकांसिलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) जारी किया गया। इसका औपचारिक अर्थ था कि भाईचारा बढ़ाने के लिए कुछ बातों को भुला दिया जाए। कानूनी अर्थ यह था कि 1 जनवरी 1986 से 12 अक्टूबर 1999 के बीच कानूनी कार्रवाइयाँ, मुकदमे वगैरह वापस ले लिए जाएंगे। पर यह काम अधूरा रह गया। देश की सुप्रीम कोर्ट ने एनआरओ को खारिज कर दिया और अब परवेज मुशर्रफ खुद फँस गए हैं। बहरहाल पिछले महीने पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी अमेरिका यात्रा पर गए और वहाँ के राष्ट्रपति जो बिडेन से मिले तब कई तरह की अटकलें लगाई गईं कि वे पाकिस्तानी सेना पर अंकुश लगाने की माँग लेकर या इस अंदेशे को व्यक्त करने आए हैं कि सेना फिर से सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है। संयोग है कि इमरान खान के आंदोलन के खिलाफ ज़रदारी इस वक्त नवाज़ शरीफ के साथ खड़े हैं। लगता है कि पाकिस्तान में सत्ता-समीकरण परिभाषित हो रहे हैं। समीकरण जो भी हों उनका सीधा असर कश्मीर पर पड़ेगा।

कट्टरपंथ के खिलाफ पाकिस्तान में छोटा सा मध्यवर्ग भी है जो खासा कमज़ोर है। हालांकि कट्टरपंथियों के हौसले बढ़े हैं, पर भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधारने की कोशिशें भी हुई हैं। इसकी वजह है देश का कारोबारी वर्ग। भारत और अमेरिका पाकिस्तान के भीतर एक ऐसे राजनीतिक वर्ग और सिविल सोसायटी के उदय की कामना कर रहे हैं, जो कट्टरपंथ से लड़ सके। नवाज़ शरीफ भी इसी कारोबारी समूह से आते हैं। देश की लोकतांत्रिक सरकार इस काम को कर सकती है, पर उसे सेना और कट्टरपंथियों की जकड़बंदी से बाहर आना होगा। दिक्कत यह है कि कट्टरपंथियों के सामने खुलकर आने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। नवाज शरीफ में नहीं और इमरान खान में भी नहीं।

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