पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को होने वाली सचिव स्तर की
वार्ता अचानक रद्द होने के बाद दो तरह की बातें दिमाग में आती हैं। पहली यह कि
भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार इन रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम
करना चाहती है। दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के
मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार इन
बातों से घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस
में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे जल्दबाज़ी में यह फैसला किया होगा? भारत सरकार हुर्रियत नेताओं के साथ
पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। औपचारिक विरोध दर्ज भी
हुआ, पर बैठकें रद्द नहीं हुईं। जब हम दक्षिण एशिया में विकास और बदलाव की बात
करते हैं तब कश्मीर जैसे मसलों को उनपर हावी नहीं होना चाहिए। भारत-पाकिस्तान
रिश्तों को अब कश्मीर से हटकर भी देखा जाना चाहिए।
मार्च 1993 में हुर्रियत की स्थापना के बाद से पाकिस्तान
सरकार और हुर्रियत के बीच लगातार संवाद चलता रहा है। मई 1995 में पाकिस्तानी
राष्ट्रपति फारूक लेघारी जब दक्षेस बैठक के लिए दिल्ली आए तो इनसे मिले। सन 2001
में जब परवेज़ मुशर्रफ आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आए तब मिले, अप्रैल 2005 में वे
फिर मिले। अप्रैल 2007 में दिल्ली आए पाक प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज इनसे मिले। कई
मौकों पर इनकी पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात होती रहती है। हुर्रियत नेता 23 मार्च
को होने वाले पाकिस्तान दिवस में शामिल होने के लिए दिल्ली आते हैं। 15 अप्रैल
2005 को भारतीय विदेश सचिव श्याम सरन से सवाल किया गया था कि दिल्ली में भारतीय प्रधानमंत्री
से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की मुलाक़ात पर
भारत को क्या कोई समस्या है? उन्होंने कहा “हम लोकतांत्रिक देश हैं। हमें इस तरह की मुलाक़ातों से कोई
दिक़्क़त नहीं।”
सोमवार की सुबह विदेश सचिव सुजाता सिंह ने पाकिस्तान के
उच्चायुक्त अब्दुल बासित को आगाह कर दिया था कि वे अलगाववादी नेताओं से न मिलें,
वरना 25 अगस्त की बैठक रद्द कर दी जाएगी। इसके बावजूद उच्चायुक्त का अलगाववादियों
से मिलना जितना विस्मयकारी है उतना ही विस्मयकारी है बैठक का रद्द होना। तब क्या
माना जाए कि भारत सरकार ने जल्दबाज़ी में फैसला नहीं किया है, बल्कि मोदी सरकार
पाकिस्तान के रिश्तों में कोई नई लक्ष्मण रेखा खींचना चाहती है।
अलगाववादियों के मुलाकात करने या न करने से इस मसले में कोई
बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब हम अपने प्रकट सिद्धांत से हटें। भारत
सरकार 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप ही अब कश्मीर पर कोई समझौता करना
चाहती है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा के बाद जारी लाहौर घोषणापत्र
में यह बात कही गई है। सन 2001 और 2005 में परवेज़ मुशर्रफ के साथ बातचीत के बाद
दोनों देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ गए थे। यूपीए सरकार ने पाकिस्तान के साथ
कम्पोज़िट बातचीत की जो प्रक्रिया शुरू की है उसमें कश्मीर मसले को किनारे रखा गया
है। उसमें व्यापारिक सम्पर्क, रेल और सड़क, नदियों के पानी से जुड़े विवाद,
सांस्कृतिक, सामुदायिक और वैज्ञानिक-तकनीकी सहयोग तथा वीज़ा और पारगमन के मसले
बातचीत में शामिल हैं। इस सारे मामलों में अब तक काफी प्रगति हो जाती, पर 26
नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए हमले ने तमाम शांति प्रक्रियाओं पर विराम लगा दिया।
इन रिश्तों की अब एक बड़ी शर्त यह है कि मुम्बई पर हमले के दोषियों को जल्द से
जल्द सज़ा मिले।
अपने शपथ ग्रहण समारोह को दक्षिण एशिया सम्मेलन में तबदील
करके नरेन्द्र मोदी ने जो शुरुआत की थी उसकी तार्किक परिणति 25 अगस्त की बैठक थी,
जो भावी बैठकों की तैयारी की योजना बनाने के लिए थी। यह बैठक भारत की पहल पर हो
रही थी। सुजाता सिंह ने अपनी तरफ से बातचीत का कार्यक्रम बनाया था। नवाज शरीफ की
यात्रा से बातचीत के दरवाज़े खुले थे। अब दरवाजे बंद होते नज़र आ रहे हैं। खासकर ऐसे
समय में जब नवाज़ शरीफ़ आंतरिक राजनीति में घिरे हैं। बातचीत से पहले हुर्रियत
नेताओं और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाक़ात की परम्परा को वे तोड़ते तो देश की
राजनीति में उनकी फज़ीहत होती। पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक नेता खुले आम यह
कहने की हिम्मत नहीं रखता कि हुर्रियत नेताओं से संवाद नहीं करेंगे।
माना जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी
के बाद पाकिस्तानी जेहादी कश्मीर की ओर रुख करेंगे। दूसरी और देश आर्थिक संकटों से
घिरा है। जेहादी संस्कृति उसके गले में हड्डी बन गई है। इससे निपटने की जिम्मेदारी
पाकिस्तानी राजनीति की है। नवाज़ शरीफ मई में जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर
का मुद्दा उठाया था और न ही वे हुर्रियत नेताओं से मिले। पाकिस्तान में उनकी आलोचना
भी हुई। हाफिज़ सईद ने खुले आम कहा कि नवाज शरीफ को भारत नहीं जाना चाहिए। कहा जाता
है कि पाकिस्तान की सेना नागरिक सरकार पर हावी है। हमें उनके अंतर्विरोधों को
समझना होगा।
दो साल पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के निवेशकों पर भारत
में लगी रोक हटाई थी। अब पाकिस्तानी निवेशक रक्षा, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के अलावा अन्य
कारोबारों में निवेश कर सकेंगे। यह आर्थिक निर्णय है, पर इसके राजनीतिक पहलू भी
हैं। पाकिस्तान में तबका भारत से रिश्ते बनाने में अड़ंगे लगाता है। पर खेल,
संगीत और कारोबारी रिश्ते दोनों देशों को जोड़ते भी हैं। पाकिस्तान
में अराजक स्थितियों के कारण पूँजी का पलायन हो रहा है। अमेरिका,
यूरोप और दुबई जाने के अलावा भारत आना बेहतर होगा। अनेक
पाकिस्तानी उद्यमी परिवारों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पहले की है। जब तक हमारे
आर्थिक हित नहीं मिलेंगे हम एक-दूसरे की स्थिरता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं बनेंगे।
दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित
करनी होगी। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। सब ठीक रहा तो कभी भारत-पाकिस्तान
की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।
पाकिस्तान-भारत नहीं दक्षिण एशिया के संदर्भ में सोचें।
पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में
कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। इस इलाके के देशों के बीच 65
से 100 अरब डॉलर तक का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ
जुड़े रहे हैं। म्यांमार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया,
अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है। इसकी परम्परागत
कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान को बांग्लादेश,
भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती
है। भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की। पर उसके पहले अपने राजनीतिक
अंतर्विरोधों को सुलझाना होगा। इसकी शुरुआत भारत और पाकिस्तान से ही होगी।
ReplyDeleteसमसामियक विषय पर सार्थक लेखन
भगवान जाने कब ये मुद्दा सुलझेगा ,एक ऐसा नासूर बन गया है जम्मू कश्मीर की जिसे ना तो शरीर से अलग किया जा सकता ,ना ही साथ रखा जा प् रहा है, हमारे पूर्वजो क कुकर्मो का नतीजा वहां की अवाम भुगत रही है
ReplyDeletedexterthetester.blogspot.in