कांग्रेस के सामने फिलहाल तीन चुनौतियाँ हैं। पहली नेतृत्व की। दूसरी संसदीय रणनीति की। और तीसरी दीर्घकालीन राजनीति से जुड़ी राजनीति की। जितना समझा जा रहा है संकट उससे भी ज्यादा गहरा है। पार्टी के एक असंतुष्ट नेता जगमीत सिंह बराड़ ने इसका संकेत दे दिया है। हालांकि उन्होंने अपनी बात कह कर वापस भी ले ली। पर राजनीति में बातें इतनी आसानी से वापस नहीं होतीं। जो कह दिया सो कह दिया। उन्होंने राहुल और सोनिया गांधी को दो साल की छुट्टी लेने की सलाह दी थी, जिसे बाद में अपने तरीके से समझा दिया। वे पहले ऐसे कांग्रेसी नेता हैं, जिन्होंने गांधी परिवार को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन पद छोड़ने की सलाह दी। उनकी बात का मतलब जो हो, पार्टी आला कमान ने भी पहली बार विरोधों को स्वीकार किया है। नेतृत्व के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ों के बीच गांधी परिवार के क़रीबी जनार्दन द्विवेदी ने माना कि कार्यकर्ताओं की आवाज़ को तवज्जोह देना चहिए। संवाद दोनों तरफ से हो।
इसे कांग्रेस के आत्म मंथन की शुरुआत तभी माना जा सकता है, जब औपचारिक से विमर्श हो। किसी कार्यकर्ता का बोलना और उसे चुप करा लेना अनुशासन से जुड़ी घटना भर बनकर रह जाता है। कार्यकर्ता के रोष को अनुशासनहीनता माना जा सकता है या विमर्श का मंच न होने की मजबूरी। दिक्कत यह है कि व्यवस्थित विमर्श और अनुशासनहीनता की रेखा खींच पाना भी काफी मुश्किल है। इसीलिए एके एंटनी समिति औपचारिक नहीं है। उसकी सिफारिशों की शक्ल भी औपचारिक नहीं होगी।
पिछले हफ्ते सबसे सरगर्म खबर प्रियंका गांधी को लेकर थी। गुरुवार को कांग्रेस प्रवक्ता शोभा ओझा ने कहा कि पार्टी चाहती है कि गांधी परिवार के सभी तीनों सदस्य नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालें। हर कोई चाहता है कि गांधी परिवार के सभी सदस्यों को राजनीति में आना चाहिए। हम चाहते हैं कि तीनों पार्टी की कमान संभालें। उसके पहले ऑस्कर फर्नांडिस ने प्रियंका गांधी को बड़ी जिम्मेदारी की सलाह देकर धमाका किया था। पार्टी के सामने खड़े संकट का एक समाधान शायद यह सोचा गया होगा, पर इसका मतलब यह निकाला गया कि पार्टी के भीतर तख्ता पलट होने वाला है। यह मतलब पार्टी के भीतर भी निकाला गया और बाहर भी। अरुण जेटली ने कहा कि कांग्रेस के राजमहल में बगावत की खबरें हैं।
प्रियंका को फौरन इन अटकलों पर सफाई देनी पड़ी। शुक्रवार को उनकी तरफ से जारी बयान में कहा गया, 'कांग्रेस पार्टी में मेरे पद संभालने के बारे में लगातार लगाई जा रहीं अटकलें ठीक नहीं हैं। जिस तरीके से यह मुद्दा उठाया गया, वह भी गलत है।' प्रियंका ने उन अटकलों को खत्म करने की कोशिश की, जिनमें कहा गया था कि वे कांग्रेस महासचिव का पद संभाल सकती हैं या उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस का चीफ बनाया जा सकता है। ऐसी कोई सम्भावना होगी तो वह फिलहाल सम्भव नहीं, क्योंकि नुकसान राहुल को होगा।
तकरीबन सभी राज्यों से बगावत की खबरें हैं। जगमीत सिंह बरार के पहले अनेक नेता अपने विरोध को किसी न किसी रूप में व्यक्त कर चुके हैं। मई में लोकसभा चुनाव में पराजय की खबरें आने के बाद मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त, सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे नेताओं ने इस विरोध की सौम्य तरीके से शुरूआत की थी। केरल के वरिष्ठ नेता मुस्तफा और राजस्थान के विधायक भंवरलाल शर्मा ने इसी बात को कड़वे ढंग से कहा। पार्टी की केरल शाखा ने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ प्रस्ताव पास करने की तैयारी कर ली थी, जिसे अंतिम क्षण में रोका गया। बिहार के किशनगंज से सांसद मौलाना असरारुल हक ने चुनाव से पहले सोनिया गांधी की जामा मस्जिद के शाही इमाम के साथ हुई मुलाकात की आलोचना की। एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि सोनिया को ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए था। हालांकि बरार की तरह हक भी बाद में अपने बयान से पलट गए।
बहरहाल इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि नेतृत्व के प्रति नाराजगी काफी गहराई तक है। पार्टी नेतृत्व ने शुरू के दिनों में आलोचना को सुनने के बजाय जवाब देना शुरू कर दिया था। पार्टी यदि अनुशासनात्मक कार्रवाई करेगी तो आग और भड़केगी। खासतौर से हरियाणा, महाराष्ट्र और असम में विरोध काफी तीखा है। इस साल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों में हार के बाद सोनिया गांधी और ज्यादा असुरक्षित होंगी। अभी हमला सीधे उनपर नहीं है, बल्कि राहुल गांधी पर है। राहुल गांधी ने लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने के बजाय अपना हाथ खींच कर बड़ी गलती की। उन्होंने नेतृत्व तो नहीं सम्हाला अपने बैठने के लिए पीछे की सीट चुनी है। पर पिछले बुधवार को अचानक उन्होंने लोकसभा में अपने तेवर तीखे कर लिए और पीछे की सीट से उठकर सदन के फर्श (वैल) पर उतर आए। पर इस तरह की छिटपुट बातों से काम नहीं होता। उन्हें संसदीय राजनीति में सक्रिय होना है तो होमवर्क के साथ आना होगा।
हालांकि लोकसभा में कांग्रेस निष्प्राण हो गई है, पर राज्यसभा में उसकी ताकत उतनी कम नहीं है। उसके पास 65 सीटें हैं। सरकार को काम करने के लिए कांग्रेस की मदद की जरूरत होगी। पार्टी ने इंश्योरेंस बिल को लेकर कड़ा रुख अपनाया है। पर इस ताकत का इस्तेमाल करने के लिए भी पार्टी को दीर्घकालीन समझदारी को अपनाना होगा। इंश्योरेंस बिल को लेकर पार्टी के भीतर दो तरह की राय काम कर रही है। फिलहाल यह बिल इस सत्र में पास नहीं होगा। नरेंद्र मोदी सितंबर में अमेरिका की यात्रा पर जाने के पहले इस बिल को पास कराना चाहते थे, ताकि अमेरिकी प्रशासन से कह सकें कि आर्थिक उदारीकरण का काम हमने तेज कर दिया है।
हालांकि इंश्योरेंस बिल यूपीए सरकार ने ही लोकसभा से पास कराया था, पर अब वह इसका राजनीतिक लाभ लेना चाहेगी। पर क्या उसे इसका लाभ मिलेगा? विपक्ष इस बिल को प्रवर समिति के पास भेजने की मांग कर रहा है। और अब सरकार ने भी इसे पास कराने पर जोर देना बंद कर दिया है। फिलहाल मोदी सरकार पश्चिमी देशों के सामने यह साबित करने में सफल हो गई है कि हम तो बदलाव करना चाहते हैं, पर देश की आंतरिक राजनीति अभी इसके लिए तैयार नहीं।
हरिभूमि में प्रकाशित
समस्या
ReplyDeleteसमस्या यह है की अधिकतर नेताओं के लिए प्राधिम्कता वह स्वंय हैं फिर उनका परिवार फिर उनकी जाति धर्म पार्टी.. देश की लिए कौन सोचता है.
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