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Sunday, June 15, 2014

राष्ट्रीय सुरक्षा और पाकिस्तान का सवाल

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से यह सप्ताह खासा सरगर्म रहा और उम्मीद है कि यह सरगर्मी कायम रहेगी। पिछले रविवार को भारत आए चीनी विदेश मंत्री यांग यी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की। चीनी राष्ट्रपति के विशेष दूत बन आए यांग के साथ सीमा विवाद और व्यापार असंतुलन घटाने समेत द्विपक्षीय संबंधों के हर मुद्दे पर बात हुई। इस बात से अभी कोई बड़ा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, पर स्टैपल्ड वीज़ा के मामले में चीन का अपने रुख पर कायम रहना भारत के लिए चिंता का विषय है। शायद इसीलिए विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने चीनी विदेशमंत्री से साफ स्वरों में कहा कि हम एक चीन को स्वीकार करते हैं तो चीन को भी एक भारत की मर्यादा को स्वीकार करना चाहिए। वस्तुतः चीन के साथ भारत के रिश्ते दो धरातलों पर हैं। एक द्विपक्षीय व्यापारिक रिश्ते हैं और दूसरे पाकिस्तान, खासकर कश्मीर से जुड़े मामले। स्टैपल्ड वीज़ा का मसला कश्मीर-मुखी है।

संयोग से इस हफ्ते जम्मू-कश्मीर सीमा पर फिर से शुरू हुई गोलाबारी ने भारतीय प्रेक्षकों का ध्यान खींचा है। तीन हफ्ते पहले ही नई सरकार ने अपना काम शुरू किया है और सबसे पहले शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का स्वागत करके नई पहल की है। ऐसे में इस गोलाबारी का मतलब क्या है? यह मात्र संयोग है या इसके पीछे कोई संदेश छिपा है। क्या यह संयोग रक्षामंत्री अरुण जेटली की जम्मू-कश्मीर यात्रा से जुड़ा हुआ है? क्या यह उसी तरह है जैसे नवाज शरीफ की दिल्ली यात्रा के ठीक पहले अफगानिस्तान में हेरात स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ था? उस हमले के पीछे पाकिस्तानी संगठन लश्करे तैयबा का हाथ था। लश्करे तैयबा के प्रमुख हफीज़ सईद ने नवाज शरीफ को हिदायत दी थी कि वे दिल्ली यात्रा पर न जाएं। इतना ही नहीं पिछले हफ्ते कराची के नागरिक हवाई अड्डे पर हुए आतंकी हमले के फौरन बाद इन्हीं हफीज सईद ने आरोप लगाया कि यह हमला मोदी सरकार ने कराया है, जबकि उस हमले की जिम्मेदारी तहरीके पाकिस्तान के एक धड़े ने ली थी। इसका मतलब साफ है कि पाकिस्तान के भीतर एक ताकत ऐसी है, जो किसी कीमत पर भारत से रिश्तों को सामान्य नहीं होने देगी। सवाल है कि क्या वहाँ की सेना भी उसके साथ है?

पिछले गुरुवार से जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर शुरू हुई गोलाबारी आखिरी खबरें मिलने तक जारी थी। दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद यह पहली गोलाबारी है। और यह खासतौर से तब हुई, जब रक्षामंत्री अरुण जेटली कश्मीर के दौरे पर थे और प्रधानमंत्री मोदी नए विमानवाहक पोत विक्रमादित्य का निरीक्षण कर रहे थे। चार दिन बाद रूसी उप प्रधानमंत्री दिमित्री रोगोजिन भारत यात्रा पर आ रहे हैं। इस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार रक्षा से जुड़े कुछ मामलों पर बड़े फैसले करने वाली है। प्रधानमंत्री नौसेनाध्यक्ष और थलसेनाध्यक्ष के साथ लम्बे विचार-विमर्श कर चुके हैं। जल्द ही वे तीनों सेना प्रमुखों के साथ भी बैठक करने जा रहे हैं। इसी दौरान चीनी सीमा पर एक नई स्ट्राइक कोर तैनात करने के बारे में कुछ बड़े फैसले भी होने वाले हैं।

इन बातों का क्या जम्मू-कश्मीर की गोलाबारी से कोई रिश्ता है? रिश्ता हो या न हो, पर देश के भीतर राजनीतिक नेता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इसके पहले सीमा पर गोलाबारी को लेकर शोर मचाने वाले भाजपा नेता अब खामोश क्यों हैं? वे क्यों नहीं कड़ी कार्रवाई की बात कर रहे हैं? संयोग है कि लगभग इसी किस्म की बातें पाकिस्तान में भी हो रही हैं। वहाँ के मीडिया में पिछले दो हफ्ते से खबर थी कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भारत यात्रा से संतुष्ट नहीं हैं। भारत में उन्हें अपमानित किया गया वगैरह। शायद यही कारण था कि उन्होंने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि वे अपनी यात्रा से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

पाकिस्तान में एक तबका इस बात को जोरदार ढंग से उठा रहा है कि नवाज शरीफ ने भारत आकर कश्मीर का मसला नहीं उठाया और उन्होंने हुर्रियत ते नेताओं से मुलाकात भी नहीं की। सम्भव है कि सेना या सेना का एक तबका इस बात सो नाराज हो और उसकी प्रतिक्रिया नियंत्रण रेखा की गतिविधियों में दिखाई पड़ती हो। सामान्यतः पाकिस्तान की तरफ से जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ कराने के लिए भी फायरिंग का सहारा लिया जाता है। पर इस वक्त महत्वपूर्ण है इसकी टाइमिंग।
जम्मू-कश्मीर में पिछले दो साल से गोलाबारी बढ़ी है, अन्यथा यह लम्बे समय तक रुकी रही। सन 2003 में दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा के आसपास के गाँवों में जीने का माहौल बनाने का समझौता किया था। उसके पहले नियंत्रण रेखा पर जीवन नरक समान था। 

माना जा रहा है कि इस साल अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के बाद पाकिस्तानी जेहादी गिरोह कश्मीर में फिर से खूनी खेल खेलना चाहते हैं। पिछले साल जम्मू के किश्तवाड़ इलाके में उसी तरह जातीय सफाए की योजना थी जैसे श्रीनगर से पंडित भगाए गए थे। अलबत्ता यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी के उदय के बाद से जम्मू में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी। भविष्य में इस मसले का राजनीतिकरण भी होगा।


पिछले साल जनवरी के पहले हफ्ते में भारतीय सैनिकों की गर्दन काटे जाने के बाद से लगातार ऐसी घटनाएं हो रहीं हैं। अज़मल कसाब और अफज़ल गुरु की फाँसी और पाकिस्तानी जेल में सरबजीत सिंह की हत्या और उसके बाद जम्मू के कोट भलवाल जेल में पाकिस्तानी कैदी सनाउल्लाह की हत्या का दोनों देशों पर असर अलग-अलग पड़ा। पाकिस्तान में वह चुनाव का साल था। इस साल भारत में चुनाव हुए हैं। मोदी सरकार ठंडे मिजाज से सुरक्षा मसलों पर कदम रख रही है। कोई जरूरी नहीं कि वह कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करे। 

हमें कुछ समय पाकिस्तानी गतिविधियों पर भी नजर रखनी होगी। कराची हवाई अड्डे पर हमले के बाद से वहाँ की जनता भी दहशत में है। लगभग मुम्बई पर हुए हमले के अंदाज में हुई इस कार्रवाई की परिणति भयावह है। इसमें दो राय नहीं कि वहाँ का जेहादी प्रतिष्ठान बहुत ताकतवर है, पर वह अपराजेय है ऐसा मान लेना उचित नहीं।
हरिभूमि में प्रकाशित

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