मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ
प्रताप सिंह और एचडी देवेगौडा को छोड़ दें तो देश के प्रधानमंत्रियों में से अधिकतर
के पास राज्य सरकार का नेतृत्व करने का अनुभव नहीं रहा। राज्य का मुख्यमंत्री होना
भले ही प्रधानमंत्री पद के लिए महत्वपूर्ण न होता हो, पर राज्य का नेतृत्व करना एक
खास तरह का अनुभव दे जाता है, खासकर तब जब केंद्र और राज्य की सरकारें अलग-अलग
मिजाज की हों। इस बात को हाल में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने हाल में
रेखांकित किया। नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप जो समय बिताया उसका
काफी हिस्सा केंद्र-राज्य रिश्तों से जुड़े टकरावों को समर्पित था।
संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के
अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए मोदी ने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया वह
यह थी कि इस देश को केवल दिल्ली के हुक्म से नहीं चलाया जा सकता। सारे देश को
चलाने का एक फॉर्मूला नहीं हो सकता। पहाड़ी राज्यों की अपनी समस्याएं हैं और
मैदानी राज्यों की दूसरी। तटवर्ती राज्यों का एक मिजाज है और रेगिस्तानी राज्यों
का दूसरा। क्या बात है कि देश का पश्चिमी इलाका विकसित है और पूर्वी इलाका
अपेक्षाकृत कम विकसित? लम्बे समय से देश मजबूत केंद्र और
सत्ता के विकेंद्रीकरण की बहस में संलग्न रहा है। पर विशाल बहुविध, बहुभाषी,
बहुरंगी देश को एकसाथ लेकर चलने का फॉर्मूला सामने नहीं आ पाया है। केंद्र की नई
सरकार देश को नया शासन देने के साथ इस विमर्श को बढ़ाना चाहती है, तो यह शुभ लक्षण
है।
केंद्र-राज्य मंचों में राजनीति
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा, ‘राज्यों
और केंद्र को सामंजस्यपूर्ण टीम इंडिया के रूप में काम करना चाहिए। सरकार, राष्ट्रीय
विकास परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद जैसे मंचों को पुन: सशक्त
बनाएगी।’ अब तक का अनुभव है कि इन मंचों पर मुख्यमंत्री
अनमने होकर आते हैं। अक्सर आते ही नहीं। राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय
विकास पर हावी रहती है। हाल के वर्षों में योजना आयोग के आँकड़ों को इस प्रकार
घुमा-फिराकर पेश करने की कोशिश की जाती थी, जिससे लगे कि विकास का गुजरात मॉडल
विफल है। पिछले दो साल में जबसे तृणमूल कांग्रेस ने यूपीए से हाथ खींचा है बंगाल
को 22 हजार करोड़ रुपए के ब्याज की माफी का मसला राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार और यूपीए के बीच विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने
की बात राजनीतिक गलियारों में गूँजती रही।
हमारे संविधान में केंद्रीय और समवर्ती
सूची के अनेक बिंदु केंद्र-राज्य रिश्तों में जटिलता पैदा करते हैं। इनमें सबसे
ज्यादा जटिल है कानून-व्यवस्था का मामला। राष्ट्रीय सुरक्षा केंद्र का विषय है और
कानून-व्यवस्था राज्य का। हाल के वर्षों में आंतरिक सुरक्षा ने राष्ट्रीय सुरक्षा
से भी ज्यादा महत्व हासिल कर लिया है। यहाँ से केंद्र-राज्य अधिकारों को लेकर
टकराव पैदा होने लगा है। गुजरात में कुछ फर्जी मुठभेड़ों को लेकर सीबीआई के
मुकदमों ने इसके राजनीतिक आयाम को भी खोला है। अब अगले कुछ महीनों में हम इशरत
जहाँ से लेकर सोहराबुद्दीन मामलों मे इसकी झलक देखेंगे। सीबीआई का इस्तेमाल भी
केंद्र-राज्य टकराव का एक बिंदु है।
केंद्रीय मनमर्जी
राज्यों को विशेष पैकेज देने, राजकोषीय
जवाबदेही अधिनियम और संसाधनों पर राज्यों के अधिकार को लेकर पहले से ही विवाद हैं।
हाल में तेलंगाना राज्य के गठन ने केंद्र सरकार की
मनमर्जी को भी रेखांकित किया। क्षेत्रीय असंतुलन केंद्र-राज्य टकराव का अहम बिंदु
है। सवाल है देश का संचालन किस स्तर पर हो और इसकी बागडोर किसके हाथ में हो? अटपटी बात है कि हैदराबाद शहर दो राज्यों की
राजधानी का काम करेगा। आंध्र प्रदेश की सीमा हैदराबाद से कम से कम 200 किलोमीटर
दूर है। आंध्र का पुनर्गठन असहज तरीके से हुआ। सवाल है ऐसा क्यों हुआ?
हाल के वर्षों में कॉरपोरेट
रेस्पंसिबिलिटी अधिनियम से लेकर नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर, नेटग्रिड, बीएसएफ
अधिनियम और साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी कानून जैसे सवालों को लेकर केंद्र-राज्य
विवाद खड़े हुए। खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर गुजरात के अलावा तमिलनाडु, पंजाब,
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक ने आपत्तियाँ दर्ज कराईं। अभी गुड्स एंड सर्विसेज़
टैक्स का मामला राज्यों के कारण रुका पड़ा है।
आतंकी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमला
होता है। इसलिए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह देखना चाहिए। मोदी सरकार आतंकवाद के
खिलाफ लड़ाई को प्राथमिकता दे रही है, पर उसने एनसीटीसी और नेटग्रिड का विरोध
किया। इस सिलसिले में मोदी ने गैर-कांग्रेस मुख्यमंत्रियों का अलग समूह बनाने में
कामयाबी हासिल कर ली थी। माओवाद या सीमा पार से आए आतंकवाद से निपटने के लिए तमाम
राज्यों की पुलिस को दूसरे राज्यों के साथ समन्वय करना होगा। इसमें कहीं न कहीं केंद्र
की भूमिका होगी। यह सामान्य डकैती और अपराध का मामला नहीं है। दूसरे आतंकवादी हमला
हवाई मार्ग से या समुद्री मार्ग से भी हो सकता है जैसा कि न्यूयॉर्क और मुम्बई में
हुआ। संविधान निर्माताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि कभी ऐसी स्थिति आएगी।
नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर
(एनसीटीसी) की ज़रूरत 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद महसूस की गई थी।
इसके साथ ही राष्ट्रीय जाँच एजेंसी बनाने का फैसला भी हुआ। 26/11 के बाद अफरा-तफरी में जब दिसम्बर 2008 में अवैधानिक गतिविधि कानून में
संशोधन किया जा रहा था बहस तब होनी चाहिए थी। यह संशोधन सिर्फ एक दिन की बहस के
बाद 11
दिसम्बर 2008 को
पास कर दिया गया था। लोक सभा में जिस वक्त इसे पेश किया गया था तब सदन में 50 सदस्य उपस्थित थे। इसे पास करते वक्त
विपक्षी सदस्यों ने प्रतिवाद तब नहीं किया था।
क्षेत्रीय स्वार्थ
ऐसा नहीं कि राजनीति केवल केंद्र की ओर
से होती है। देश में पुलिस सुधार केवल केंद्र और राज्यों के बीच सहमति न बन पाने
के कारण रुका पड़ा है। पिछले साल केंद्र सरकार ने खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की
अनुमति दी तो कई राज्यों ने शुरू में ही घोषणा कर दी कि हम इसे लागू नहीं करेंगे।
भारतीय जनता पार्टी इसके विरोध में है। अब सवाल है कि क्या वह इस नीति को चलने
देगी या नहीं। इस नीतिगत असमंजस के कारण खुदरा बाजार में विदेशी निवेश हुआ भी नहीं
है।
सन 1993 में 73वें और 74 वें संविधान
संशोधन के माध्यम से जब देश में पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हो रही थी, तब भी
यह सवाल उठा था कि यह व्यवस्था किस के अधीन होगी। केंद्र के या राज्य के? भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती
है। केंद्र, राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र। संविधान संशोधन
के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया है। संविधान के अनुच्छेद 268
से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था
परिभाषित की गई है। देश की अर्थव्यवस्था पंचवर्षीय योजनाओं और वार्षिक बजटों के
आधार पर चलती है। योजना आयोग इस योजना-व्यवस्था का नियामक है। आर्थिक संसाधनों के
संग्रहण और वितरण की व्यवस्था जटिल होने के साथ स्थिर नहीं है। इसमें निरंतर बदलाव
चल रहे हैं।
विशेष राज्यों की अवधारणा
चौथी पंचवर्षीय योजना के पहले हमारे
यहाँ साधनों के वितरण की पारदर्शी व्यवस्था नहीं थी। 1969 में प्रसिद्ध
समाजशास्त्री डीआर गाडगिल ने एक फॉर्मूला बनाया जिसके तहत राज्यों को दी जाने वाली
60 प्रतिशत राशि जनसंख्या के आधार पर 10 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय पर, 10 प्रतिशत टैक्स वसूली के प्रयत्नों पर, 10 प्रतिशत सिंचाई और बिजली परियोजनाओं पर और
10 प्रतिशत विशिष्ट समस्याओं के आधार पर तय की गई। विशेष राज्यों की अवधारणा भी
तभी बनी। 1980 में इस फॉर्मूले में संशोधन हुआ। पांचवें वित्त आयोग ने तीन राज्यों
को विशेष राज्य का दर्जा दिया- असम, नगालैंड
और जम्मू-कश्मीर। तब से विशेष राज्य की अवधारणा ने जन्म लिया है। संविधान के
अनुच्छेद 280 के तहत भारत के राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करते हैं। इस
संरचनात्मक योजना में कुछ परेशानियां हैं। वित्त आयोग के अलावा हमारे यहाँ योजना
आयोग है, जो व्यावहारिक रूप से प्रभावशाली है। पर संघीय
रिश्तों की बागडोर केंद्र के हाथ में है। उसे रहना भी चाहिए, पर केंद्र को दादा
नहीं बंधु बनकर रहना होगा। यही देश के हित में है।
राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप में इस आलेख के सम्पादित अंश प्रकाशित
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