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Friday, October 26, 2012

कांग्रेस को रक्षात्मक नहीं, आक्रामक बनना चाहिए

नितिन गडकरी संकट में आ गए हैं। उन्हें अब फिर से अध्यक्ष बनाना मुश्किल होगा। उनके लिए यह संकट केजरीवाल ने पैदा किया या कांग्रेस ने या पार्टी के भीतर से ही किसी ने यह अभी समझ में नहीं आएगा, पर राजनीति का खेल चल रहा है। हमारी सब से बड़ी उपलब्धि है लोकतंत्र। और लोकतंत्र को दिशा देने वाली राजनीति। पर राजनीति के अंतर्विरोध लगातार खुल रहे हैं। मीडिया के शोर पर यकीन करें तो लगता है कि आसमान टूट पड़ा है, पर इस शोर-संस्कृति ने मीडिया को अविश्वसनीय बना दिया है। हम इस बात पर गौर नहीं कर रहे हैं कि दुनिया के नए देशों में पनप रहे लोकतंत्रों में सबसे अच्छा और सबसे कामयाब लोकतंत्र हमारा है। इसकी सफलता में राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनों की भूमिका है। बेशक दोनों में काफी सुधार की सम्भावनाएं हैं। फिलहाल कांग्रेस पार्टी पर एक नज़र डालें जो आने वाले समय के लिए किसी बड़ी रणनीति को तैयार करती दिखाई पड़ती है। 

हिमाचल और गुजरात के चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस पार्टी के सामने राजनीतिक मुहावरे खोजने और क्रमशः बढ़ती अलोकप्रियता को तोड़ निकालने की चुनौती है। अरविन्द केजरीवाल ने फिलहाल कांग्रेस और भाजपा दोनों को परेशान कर रखा है। भाजपा ने नितिन गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाने के लिए संविधान में संशोधन कर लिया था, पर केजरीवाल ने फच्चर फँसा दिया है। शुरू में जो मामूली बात लगती थी वह गैर-मामूली बनती जा रही है। 4 नवम्बर को हिमाचल में मतदान है और वीरभद्र सिंह ने मीडिया से पंगा मोल ले लिया है। कांग्रेस ने फौरन ही माफी माँगकर मामले को सुलझाने की कोशिश की है, पर चुनाव के मौके पर रंग में भंग हो गया। हिमाचल में सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह तीनों अभियान पर निकले हैं। शायद चुनाव के मौके पर कांग्रेस के लिए असमंजस पैदा करने के लिए ही वीरभद्र को उकसाया गया होगा, पर उन्हें उकसावे में आने की ज़रूरतही क्या थी? दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों की सूचियाँ देर से ज़ारी हुईं है। सोनिया गांधी के जवाब में नरेन्द्र मोदी भी हिमाचल आ रहे हैं। हिमपात होने लगा है। अचानक बढ़ी ठंड ने प्रदेश के बड़े हिस्से को आगोश में लेना शुरू कर दिया है। हिमाचल के परिणाम से बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है, पर कांग्रेस को इस समय छोटी-छोटी और प्रतीकात्मक सफलताएं चाहिए। हिमाचल में भी और उससे ज्यादा गुजरात में। हिमाचल और गुजरात दोनों जगह मुकाबला सीधा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच। इस वक्त दोनों पार्टियाँ विवादों के घेरे में हैं। इन दो राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, पर अगले लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या राष्ट्रीय दलों की पराजय होने वाली है।
गुजरात में आचार संहिता को लेकर चुनाव आयोग काफी सख्ती बरत रहा है। नवरात्र के दौरान राजनीतिक नेताओं और प्रत्याशियों के उत्सवों में आरती आचार संहिता के दायरे में आ गई। दूसरी ओर छात्रों को मुफ्त लैपटाप देने के कांग्रेस का वादा आचार संहिता की नज़र हो गया। 3 अक्टूबर को चुनावों की घोषणा के साथ ही राज्य में आचार संहिता लागू हो गई है। आयोग के निर्देश पर काग्रेस ने अपनी वेबसाइट से लैपटाप की ऑनलाइन बुकिंग बंद कर दी है। लैपटाप के लिए राज्यभर से करीब साढे़ तीन लाख आवेदन कांग्रेस को मिल चुके हैं। लकी ड्रॉ के जरिए कांग्रेस 50 छात्रों को लैपटाप देने वाली थी, जिस पर साढे़ तेरह लाख रुपए खर्च होने थे। उधर नरेन्द्र मोदी ने ब्रिटिश सरकार के साथ रिश्ते कायम करने के बाद अमेरिका से भी उम्मीद जताई है। गुजरात का चुनाव बीजेपी के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण होने वाला है, क्योंकि मोदी इस बार जीते तो वे गुजरात में नहीं रुकेंगे। अमेरिका और ब्रिटेन के  सहारे वे अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि बनाने की कोशिश करेंगे। वे जापान और चीन जैसे देशों के साथ पहले भी सम्पर्क में हैं।

खबर है कि अगले रविवार को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल होने वाला है। तृणमूल कांग्रेस के छह मंत्रियों के हटने, डीएमके के ए राजा और दयानिधि मारन की जगह किसी के न आने और विलास राव देशमुख के निधन के बाद खाली पड़े पद को भरने के लिए इसे होना ही है। इस बार का बदलाव पूरी तरह कांग्रेस का मामला है। समाजवादी पार्टी और बसपा की कोई योजना सरकार में शामिल होने की नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव में पीए संगमा के पक्ष में प्रचार करने के कारण शायद अगाथा संगमा बाहर हो जाएं। इस बार के बदलाव में राहुल गांधी के सरकार में शामिल होने की सम्भावना भी है। राहुल ही नहीं पार्टी अपने कुछ और युवा नेताओं को सामने लाए।

कांग्रेस के सामने एक जबर्दस्त मेकओवर की चुनौती है। यह काम नेतृत्व और नीतियों दोनों के स्तर पर होना चाहिए। पिछले दो महीने में पार्टी ने आर्थिक मसलों से जुड़े कई बड़े फैसले किए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस निराशा भरे वातावरण में भी आठ फीसदी आर्थिक विकास की बात कर रहे हैं। क्या इस गति से विकास की राजनीति के लिए पार्टी तैयार है? संसद के शीतकालीन सत्र में पार्टी को पेंशन, बैंकिंग, कम्पनी कानून और भूमि अधिग्रहण जैसे विधेयकों को संसद से पास कराना होगा। यह काम भारी चुनौती से भरा है। लोकसभा में सपा और बसपा के समर्थन के बगैर यह काम नहीं हो सकेगा। राज्यसभा में भाजपा की मदद की ज़रूरत भी पड़ सकती है। क्या भाजपा सरकार का समर्थन करेगी? भाजपा ने पूरे मॉनसून सत्र को कोयला मामले तक सीमित कर दिया। उससे क्या उसे कोई बड़ा राजनीतिक लाभ मिला? पर जिस वक्त गुजरात में चुनाव का माहौल होगा, उस वक्त बीजेपी और कांग्रेस की सहमति या टकराव का गहरा राजनीतिक प्रभाव होगा।
कांग्रेस क्या राहुल गांधी में कोई सम्भावना देखती है? बेशक देखती है। ऐसा न होता तो वे हिमाचल में रैलियाँ न करते। हिमाचल में ही नहीं वे पंजाब में पिछली बार हुई हार के कारणों को भी समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस हफ्ते राहुल गांधी ने पंजाब के स्थानीय नेताओं से सम्पर्क साधा है और कुछ को दिल्ली बुलाया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार के बावज़ूद इसे सब मानते हैं कि कांग्रेस ने उम्मीद पैदा की है। स्थानीय नेतृत्व को साथ लेने की ज़रूरत है। पार्टी ने पिछले कुछ साल से गुजरात में काफी सघन काम किया है। हो सकता है कि बीजेपी की सरकार गुजरात में फिर बन जाए, पर सौराष्ट्र क्षेत्र में कांग्रेस अपनी स्थिति सुधार ले तो अगले लोकसभा चुनाव में स्थिति और बेहतर हो सकती है। पार्टी को दूसरे राज्यों में भी स्थानीय प्रश्नों को गहराई से समझना होगा और कृतसंकल्प कार्यकर्ताओं की टीम तैयार करनी होगी। दलित और मुसलमानों के बीच जगह बनाने की कोशिश से कांग्रेस को फायदा मिला है। हाल में राहुल गांधी ने कश्मीर में एक पहल की है। उन्होंने श्रीनगर में देश के नामी उद्योगपतियों को बुलाया। रतन टाटा, कुमार मंगलम बिड़ला, दीपक पारेख, राजीव बजाज आदि श्रीनगर पहुंचे। रतन टाटा ने कहा कि राहुल गांधी ने देश के उद्यमियों के लिए कश्मीर की खिड़की ही नहीं, पूरा दरवाजा खोल दिया है।

राहुल गांधी की राजनीति उद्योग और व्यापार के रास्ते होगी या गरीबी हटाओ के लोकलुभावन नारों से रची-पगी होगी, यह भी दिलचस्पी का विषय है। श्रीनगर में राहुल की एक और पहल भी थी। उन्होंने यूथ कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक श्रीनगर में रखी थी। देश भर के युवक कांग्रेस के नेता श्रीनगर में जुटे थे। राहुल गांधी धीरे-धीरे संगठन के करीब आ रहे हैं। पार्टी का संगठन उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में प्रभावशाली नहीं है, जबकि सीटें इन्हीं राज्यों में सबसे ज्यादा है। बिहार में पार्टी नीतीश सरकार के खिलाफ पोल-खोल दक्षिण में पार्टी के पास आंध्र प्रदेश है, पर लगता है वह उसके हाथ से खिसक रहा है। वाईएसआर का परिवार कांग्रेस के हाथ से निकल गया है, दूसरी ओर तेलंगाना की माँग ने उसके सामने दुविधा खड़ी कर दी है।

कांग्रेस की वैबसाइट में होम पेज पर सोनिया गांधी के वक्तव्य के साथ राहुल गांधी का बुराड़ी सम्मेलन का यह वक्तव्य उध़ृत किया गया है, "भारत में"आम आदमी" वह है जो देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है। चाहे वह गरीब हो अथवा धनी, हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई हो, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, यदि वह देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है तो वह एक"आम आदमी" है। क्या राहुल गांधी के पास इस आम आदमी को देश के सिस्टम से जोड़ने का कोई फॉर्मूला है? तमाम थुक्का-फज़ीहत के बावज़ूद कांग्रेस देश की नम्बर एक पार्टी है। कोई एक खास जातीय या धार्मिक या क्षेत्रीय समूह उसकी ताकत नहीं है, यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। बीजेपी की रणनीति कांग्रेस का स्थानापन्न बनने की थी, जिसमें वह एक हद तक कामयाब हो गई थी। दोनों को ज़रूरत है उस फॉर्मूले की जो देश को भरोसा दिला सके। इस वक्त सबसे बड़ा संकट है राजनीति का अविश्वसनीय होना।

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