पृष्ठ

Tuesday, October 23, 2012

अपने सवालों पर क्यों खामोश हो जाता है मीडिया

जिन्दल स्टील की ओर से ज़ी न्यूज़ के खिलाफ की गई शिकायत की जाँच चल रही है। जाँच के नतीज़े किस तरह सामने आएंगे, अभी कहना मुश्किल है, पर मुख्यधारा के मीडिया में इस सवाल पर चुप्पी है। लगभग ऐसी ही चुप्पी नीरा राडिया मामला उठने पर देखी गई थी। बेशक यह एक शिकायत है और किसी भी पक्ष को लेकर कोई बात नहीं कही जा सकती, पर सामान्य जानकारियाँ तो सामने लाई जा सकती हैं। अपने से जुड़े जितने भी मामले आए, जिनमें पेड न्यूज़ का मामला भी है, हमारा मीडिया खामोश हो जाता है। खामोश रहकर सुविचारित बात कहना उसकी फितरत नहीं है। केजरीवाल, गडकरी, सलमान खुर्शीद, रॉबर्ट वडरा और अंजली दमनिया के मामले सामने हैं। इधर पायनियर में सपन दासगुप्ता ने एक लेख लिखा है जो ध्यान खींचता है। उनके लेख का यह अंश महत्वपूर्ण हैः-

"The media didn’t react to the JSPL sting with the same measure of breathless excitement that greets every political corruption scandal because it is aware that this is just the tip of the iceberg. A thorough exploration of the media will unearth not merely sharp business practices but even horrifying criminality....
"Since the Press Council of India chairman Justice (retired) Markandey Katjuis desperate to make a mark, he would do well to suo moto establish a working group to inquire into journalistic ethics. He could travel to a small State in western India where there persistent rumours that those who claim to be high-minded crusaders arm-twisted a Chief Minister into bankrolling an event as the quid pro quo for not publishing an investigation into some dirty practices.
"The emphasis these days is on non-publishing. One editor, for example, specialised in the art of actually commissioning stories, treating it in the proper journalistic way and even creating a dummy page. This dummy page would be sent to the victim along with a verbal ‘demand notice’. Most of them paid up. This may be a reason why this gentleman’s unpublished works are thought to be more significant than the few scribbles that reached the readers and for which he received lots of awards."

सपन दासगुप्ता एक नए चलन की ओर ध्यान दिला रहे हैं। वह है खबर न छापना। उन्होंने एक सम्पादक का ज़िक्र किया है जो किसी के बारे में पड़ताल कराते हैं, फिर उसके बारे में  एक पेज बनवाते हैं। फिर उस डमी पेज को सम्बद्ध व्यक्ति के पास भिजवाते हैं। माँग पूरी होने पर पेज रुक जाता है। ऐसा कितना होता है पता नहीं, पर अखबारों और टीवी स्टिंग के किस्से बताते हैं कि खोजी पत्रकारिता का एक रूप अब खोज-खबर पर ढक्कन लगाना हो गया है। हाल के वर्षों में हमारे मीडिया की साख को सबसे जबर्दस्त धक्का लगा है। पेड न्यूज़ के चलन के पीछे मालिकों का हाथ भी था। इसमें केवल पत्रकार होते तो उनके बारे में कुछ कहा भी जाता। यानी रोग ज्यादा बड़ा है। अफसोस इस बात का  है कि इसका ज़िक्र भी नहीं होता। हाल में आईबीएन-सीएनेन के राजदीप सरदेसाई ने एक ट्वीट किया,“Behind every successful neta is a real estate co, sugar mill, mining co, education baron”, इसके जवाब में कांग्रेस सांसद मिलिन्द देवड़ा का ट्वीट आया, “Not newspaper/news channel?” पत्रकार निर्भीक तब होते थे, जब वे फक्कड़ थे। तब उन्हें इतना सीधा जवाब नहीं मिलता था। अब वे भी शीशे के घरों में रहने लगे हैं। 

सपन दासगुप्ता का लेख
ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के नाम सुधीर चौधरी का पत्र
कोयला घोटाले में मीडिया मालिक
कोलगेट में मीडिया हाउस
चार मीडिया हाउसों पर उंगलियाँ

No comments:

Post a Comment