पाँच राज्यों के चुनाव की प्रक्रिया में तीन राज्यों में मतदान का काम पूरा हो चुका है। अच्छी खबर यह है कि तीनों जगह मतदान का प्रतिशत बढ़ा है। यह सच है कि मणिपुर में परम्परा से अच्छा मतदान होता रहा है, पर इन दिनों यह प्रदेश जातीय हिंसा और लम्बे ब्लॉकेड के बाद मतदान कर रहा था। इसी तरह उत्तराखंड में मौसम का खतरा था। उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश और गोवा में भी बेहतर मतदान होगा। इस बेहतर मतदान का मतलब क्या निकाला जाए? सामान्यतः हम मानते हैं कि ज्यादा वोट या तो समर्थन में पड़ता है या विरोध में। यानी जनता निश्चय की भूमिका में आती है। हमारी चुनाव प्रक्रिया में पाँच साल बाद एक मौका मिलता है जब जनता अपनी राय रखती है। वह राय भी समर्थन या विरोध के रूप में कभी-कभार व्यक्त होती है। वर्ना आमतौर पर बिचौलियों की मदद से पार्टियाँ वोट बटोरती हैं। पूरे परिवार और अक्सर पूरे मोहल्ले का वोट एक प्रत्याशी को जाता रहा है। जाति और धर्म भी चुनाव जीतने के बेहतर रास्ते हो सकते हैं, यह पिछले तीन दशक में देखने को मिला। और यह प्रवृत्ति खत्म नहीं हो रही, बल्कि बढ़ रही है।
चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, पर लोकतंत्र की एकमात्र निशानी नहीं। चुनाव के मार्फत भी अनेक अलोकतांत्रिक काम हो सकते हैं। इसलिए महत्वपूर्ण है चुनाव का वस्तुनिष्ठ और सार्थक होना। यह सार्थकता किस तरह की हो सकती है, इस पर बात करने के पहले हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि लोग वोट क्यों देते हैं। और यह भी कि सामान्य व्यक्ति के जीवन में सरकार की भूमिका क्या है। और यह भी कि कौन से लोग राजनीति में शामिल होते हैं, क्यों होते हैं और वे क्या भूमिका निभाते हैं?
जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें परिणाम किस तरह के आएंगे और किसकी सरकार बनेगी, इस किस्म के कयास काफी पहले से लग रहे हैं। परिणाम आने तक कयास जारी रहेंगे। उत्तर प्रदेश में इन दिनों आरोपों-प्रति आरोपों का दौर चल रहा है। हर पार्टी जातीय, साम्प्रदायिक और अन्य संकीर्ण मुहावरों का इस्तेमाल कर रही है। इन बातों को विचारधारा के गुलाबी लिफाफे में इस तरीके से पेश किया जा रहा है गोया यह सब जनता के लिए है। हर पार्टी जनता को एक तरफ जनता साबित करती है वहीं दूसरी तरफ उसे वोट बैंक मानकर गुलाबी लिफाफा थमाने की कोशिश करती है। तब क्या माना जाए? कि जनता अपनी जातीय चेतना, साम्प्रदायिक कामना और संकीर्ण हितों के लिए वोट करती है? और यह वोट इसीलिए बढ़ रहा है?
वोट बढ़ने के पीछे काफी लोग एंटी इनकम्बैंसी देखते हैं। यानी सरकार के प्रति नाराज़गी। इसका मतलब है लोग सरकार की जातीय संरचना के बाद भी उससे कुछ कामों की अपेक्षा करते हैं। हाल के वर्षों में सामाजिक न्याय के नाम पर सरकारी नौकरियों में जातीय बंधुओं की भरती की उम्मीदें बढ़ीं थीं। पर कितनी सरकारी नौकरियाँ हैं? आर्थिक उपार्जन का काफी बड़ा बाज़ार गैर-सरकारी है। लोगों को आने-जाने के लिए सड़कें चाहिए, बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल चाहिए, इलाज के लिए अस्पताल वगैरह-वगैरह। पर चुनाव में इन बातों का ज़िक्र सबसे कम होता है। होता भी है तो भावनाएं भड़काने के लिए। कोई ऐसी योजना पेश नहीं करता कि यह काम कैसे होगा। और न जनता को प्रशासनिक बही-खाता पढ़ना आता है कि पूछे कि यह काम क्यों नहीं हुआ। उसके बीच ऐसे ग्रुप भी नहीं बने हैं जो सामूहिक रूप से अपने हितों पर विचार करें।
हम दो प्रकार की सामाजिक स्थितियों के बीच हैं। एक तरफ हमारा समाज सामंती विचारों से घिरा है। जातीय भेद-भाव और शोषण आज भी कायम है और दूसरी ओर बाजार व्यवस्था हावी है। वोट माँगते वक्त राजनीति इन दोनों का सहारा लेती है। पर चुनाव एक ऐसा उत्पाद है जिसकी कोई गारंटी-वॉरंटी नहीं। एक बार चुनाव जीत जाने के बाद प्रत्याशी अपने इलाके का रुख करेगा या नहीं कोई नहीं कह सकता। और न कोई संवैधानिक व्यवस्था है जो इसकी गारंटी दे। फिर भी मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है। इसका क्या मतलब निकाला जाए? कि जनता को यह सब रास आ रहा है। या वह नाराज़ होकर वोट देने निकल पड़ी है।
भारतीय व्यवस्था में वोट देना उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हो गया था। यह अंग्रेजों की देन है। पूरी प्रशासनिक व्यवस्था हमें अंग्रेजों ने दी है। 1952 से अब तक लोकसभा चुनावों में हमारा वोट औसत 55 से 60 से आस पास रहता है। 1984 में यह सबसे ज्यादा था 63.56 प्रतिशत और 2004 में सबसे कम था 48.74 प्रतिशत। लगता है 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति का वोट था। सन 2004 के चुनाव परिणाम को लोग एंटी इनकम्बैंसी वोट मानते हैं। इंडिया शाइनिंग के खिलाफ। पर यह इतिहास का न्यूनतम प्रतिशत था। दरअसल कारण अनेक होते हैं। सबसे बड़ा कारण फसल और पर्व होते हैं। स्कूलों की परीक्षाएं और मौसम भी।
हाल में मतदान को लेकर जागरूकता बढ़ाने की जो कोशिशें हुईं हैं, वह भी बड़ा कारण है। साथ ही बढ़ती साक्षरता भी एक बड़ा कारण है। ये दोनों कारण चुनाव को सार्थक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। वोट का प्रतिशत केवल सरकार से नाराज़गी या समर्थन में ही नहीं बढ़ा है, बल्कि वोट देने के लिए मीडिया के अभियान के कारण भी बढ़ा है। यह शुभ लक्षण है, पर केवल वोट बढ़ाने से क्या होगा? इसका महत्व तब है जब चुनाव में मुद्दे महत्वपूर्ण बनें। नीतियाँ सामने आएं और उन पर सार्वजनिक चर्चा हो।
सरकारी नीतियों के पहले चुनाव की पद्धति पर भी बात होनी चाहिए। हम एक अरसे से चुनाव सुधारों की बात करते रहे हैं, पर उस दिशा में बढ़ नहीं पा रहे हैं। हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि लोकसभा के शीतकालीन सत्र में चुनाव सुधार बिल नहीं आ पाया। हमारी व्यवस्थामें राजनीतिक प्रश्न हावी हैं। चुनाव सुधार राजनीतिक प्रश्न नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल चुनाव आयोग की सख्तियों को पसंद नहीं करता। हाल में राइट टु रिजेक्ट को लेकर चर्चा शुरू हुई है। मुख्य चुनाव आयुक्त को यह सम्भावना आकर्षक लगती है। पर क्या हमारा राजनीतिक तंत्र इस पर चर्चा करना चाहेगा? आमतौर पर तीन या चार कोणीय मुकाबले में ऐसा प्रत्याशी जीतता है, जिसे अपने इलाके के कुल मतदाताओं में से 10 फीसदी के वोट भी नहीं मिलते। बहुसंख्यक वोट उसके खिलाफ होते हैं। पर वह अपनी जीत को जनादेश कहता है।
चुनाव मुद्दों पर नहीं चुनावी गणित के सहारे जीते जाते हैं। यह गणित इलाके के प्रभावशाली व्यक्तियों और समूहों के जोड़-घटाने से तैयार होता है। इसमें पैसा और बाहुबल दोनों काम करते हैं। और जो इन्हें साध लेता है जीतता वही है। राजनीतिक व्यवस्था के दो चेहरे हैं। एक दिखाने का और दूसरा वास्तविक। इस मुख और मुखौटे का फर्क चुनाव के दौरान नज़र आता है। पार्टियाँ और प्रत्याशी केवल नाम के लिए मुद्दों और जनता के सवालों पर बात करते हैं। हम मतदाता की नाराज़गी और खुशी को लेकर बात करते हैं, पर वोट के ठेकेदार एक मुश्त ढुलाई की कीमत तय करते हैं। इस अर्थ में चुनाव का रिश्ता लोकतंत्र से नहीं रहता। ऐसा न होता तो बड़े-बड़े अपराधी चुनाव लड़ने की हिम्मत न करते।
पर सारी कथा निराशाजनक नहीं है। लोकतंत्र और चुनाव व्यवस्था का व्यावहारिक रूप बहुत आकर्षक न सही, पर जनता की आवाज़ अंततः निर्णयक है। आज कम तो कल ज्यादा होगी। पिछले कुछ चुनावों से अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को चुनाव में धक्का लगा है। इसका कारण है मतदाता का आंशिक रूप से जागरूक होना। मतदाताओं का एक हिस्सा अब खुद को भीड़ नहीं मानता। उसकी तादाद बढ़ रही है। साक्षरता और शिक्षा उसे सबल बनाते हैं। वह कभी पूरी तरह ताकतवर हो पाया तो तमाम खराबियों पर विजय पाई जा सकेगी। हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।
चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, पर लोकतंत्र की एकमात्र निशानी नहीं। चुनाव के मार्फत भी अनेक अलोकतांत्रिक काम हो सकते हैं। इसलिए महत्वपूर्ण है चुनाव का वस्तुनिष्ठ और सार्थक होना। यह सार्थकता किस तरह की हो सकती है, इस पर बात करने के पहले हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि लोग वोट क्यों देते हैं। और यह भी कि सामान्य व्यक्ति के जीवन में सरकार की भूमिका क्या है। और यह भी कि कौन से लोग राजनीति में शामिल होते हैं, क्यों होते हैं और वे क्या भूमिका निभाते हैं?
जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें परिणाम किस तरह के आएंगे और किसकी सरकार बनेगी, इस किस्म के कयास काफी पहले से लग रहे हैं। परिणाम आने तक कयास जारी रहेंगे। उत्तर प्रदेश में इन दिनों आरोपों-प्रति आरोपों का दौर चल रहा है। हर पार्टी जातीय, साम्प्रदायिक और अन्य संकीर्ण मुहावरों का इस्तेमाल कर रही है। इन बातों को विचारधारा के गुलाबी लिफाफे में इस तरीके से पेश किया जा रहा है गोया यह सब जनता के लिए है। हर पार्टी जनता को एक तरफ जनता साबित करती है वहीं दूसरी तरफ उसे वोट बैंक मानकर गुलाबी लिफाफा थमाने की कोशिश करती है। तब क्या माना जाए? कि जनता अपनी जातीय चेतना, साम्प्रदायिक कामना और संकीर्ण हितों के लिए वोट करती है? और यह वोट इसीलिए बढ़ रहा है?
वोट बढ़ने के पीछे काफी लोग एंटी इनकम्बैंसी देखते हैं। यानी सरकार के प्रति नाराज़गी। इसका मतलब है लोग सरकार की जातीय संरचना के बाद भी उससे कुछ कामों की अपेक्षा करते हैं। हाल के वर्षों में सामाजिक न्याय के नाम पर सरकारी नौकरियों में जातीय बंधुओं की भरती की उम्मीदें बढ़ीं थीं। पर कितनी सरकारी नौकरियाँ हैं? आर्थिक उपार्जन का काफी बड़ा बाज़ार गैर-सरकारी है। लोगों को आने-जाने के लिए सड़कें चाहिए, बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल चाहिए, इलाज के लिए अस्पताल वगैरह-वगैरह। पर चुनाव में इन बातों का ज़िक्र सबसे कम होता है। होता भी है तो भावनाएं भड़काने के लिए। कोई ऐसी योजना पेश नहीं करता कि यह काम कैसे होगा। और न जनता को प्रशासनिक बही-खाता पढ़ना आता है कि पूछे कि यह काम क्यों नहीं हुआ। उसके बीच ऐसे ग्रुप भी नहीं बने हैं जो सामूहिक रूप से अपने हितों पर विचार करें।
हम दो प्रकार की सामाजिक स्थितियों के बीच हैं। एक तरफ हमारा समाज सामंती विचारों से घिरा है। जातीय भेद-भाव और शोषण आज भी कायम है और दूसरी ओर बाजार व्यवस्था हावी है। वोट माँगते वक्त राजनीति इन दोनों का सहारा लेती है। पर चुनाव एक ऐसा उत्पाद है जिसकी कोई गारंटी-वॉरंटी नहीं। एक बार चुनाव जीत जाने के बाद प्रत्याशी अपने इलाके का रुख करेगा या नहीं कोई नहीं कह सकता। और न कोई संवैधानिक व्यवस्था है जो इसकी गारंटी दे। फिर भी मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है। इसका क्या मतलब निकाला जाए? कि जनता को यह सब रास आ रहा है। या वह नाराज़ होकर वोट देने निकल पड़ी है।
भारतीय व्यवस्था में वोट देना उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हो गया था। यह अंग्रेजों की देन है। पूरी प्रशासनिक व्यवस्था हमें अंग्रेजों ने दी है। 1952 से अब तक लोकसभा चुनावों में हमारा वोट औसत 55 से 60 से आस पास रहता है। 1984 में यह सबसे ज्यादा था 63.56 प्रतिशत और 2004 में सबसे कम था 48.74 प्रतिशत। लगता है 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति का वोट था। सन 2004 के चुनाव परिणाम को लोग एंटी इनकम्बैंसी वोट मानते हैं। इंडिया शाइनिंग के खिलाफ। पर यह इतिहास का न्यूनतम प्रतिशत था। दरअसल कारण अनेक होते हैं। सबसे बड़ा कारण फसल और पर्व होते हैं। स्कूलों की परीक्षाएं और मौसम भी।
हाल में मतदान को लेकर जागरूकता बढ़ाने की जो कोशिशें हुईं हैं, वह भी बड़ा कारण है। साथ ही बढ़ती साक्षरता भी एक बड़ा कारण है। ये दोनों कारण चुनाव को सार्थक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। वोट का प्रतिशत केवल सरकार से नाराज़गी या समर्थन में ही नहीं बढ़ा है, बल्कि वोट देने के लिए मीडिया के अभियान के कारण भी बढ़ा है। यह शुभ लक्षण है, पर केवल वोट बढ़ाने से क्या होगा? इसका महत्व तब है जब चुनाव में मुद्दे महत्वपूर्ण बनें। नीतियाँ सामने आएं और उन पर सार्वजनिक चर्चा हो।
सरकारी नीतियों के पहले चुनाव की पद्धति पर भी बात होनी चाहिए। हम एक अरसे से चुनाव सुधारों की बात करते रहे हैं, पर उस दिशा में बढ़ नहीं पा रहे हैं। हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि लोकसभा के शीतकालीन सत्र में चुनाव सुधार बिल नहीं आ पाया। हमारी व्यवस्थामें राजनीतिक प्रश्न हावी हैं। चुनाव सुधार राजनीतिक प्रश्न नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल चुनाव आयोग की सख्तियों को पसंद नहीं करता। हाल में राइट टु रिजेक्ट को लेकर चर्चा शुरू हुई है। मुख्य चुनाव आयुक्त को यह सम्भावना आकर्षक लगती है। पर क्या हमारा राजनीतिक तंत्र इस पर चर्चा करना चाहेगा? आमतौर पर तीन या चार कोणीय मुकाबले में ऐसा प्रत्याशी जीतता है, जिसे अपने इलाके के कुल मतदाताओं में से 10 फीसदी के वोट भी नहीं मिलते। बहुसंख्यक वोट उसके खिलाफ होते हैं। पर वह अपनी जीत को जनादेश कहता है।
चुनाव मुद्दों पर नहीं चुनावी गणित के सहारे जीते जाते हैं। यह गणित इलाके के प्रभावशाली व्यक्तियों और समूहों के जोड़-घटाने से तैयार होता है। इसमें पैसा और बाहुबल दोनों काम करते हैं। और जो इन्हें साध लेता है जीतता वही है। राजनीतिक व्यवस्था के दो चेहरे हैं। एक दिखाने का और दूसरा वास्तविक। इस मुख और मुखौटे का फर्क चुनाव के दौरान नज़र आता है। पार्टियाँ और प्रत्याशी केवल नाम के लिए मुद्दों और जनता के सवालों पर बात करते हैं। हम मतदाता की नाराज़गी और खुशी को लेकर बात करते हैं, पर वोट के ठेकेदार एक मुश्त ढुलाई की कीमत तय करते हैं। इस अर्थ में चुनाव का रिश्ता लोकतंत्र से नहीं रहता। ऐसा न होता तो बड़े-बड़े अपराधी चुनाव लड़ने की हिम्मत न करते।
पर सारी कथा निराशाजनक नहीं है। लोकतंत्र और चुनाव व्यवस्था का व्यावहारिक रूप बहुत आकर्षक न सही, पर जनता की आवाज़ अंततः निर्णयक है। आज कम तो कल ज्यादा होगी। पिछले कुछ चुनावों से अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को चुनाव में धक्का लगा है। इसका कारण है मतदाता का आंशिक रूप से जागरूक होना। मतदाताओं का एक हिस्सा अब खुद को भीड़ नहीं मानता। उसकी तादाद बढ़ रही है। साक्षरता और शिक्षा उसे सबल बनाते हैं। वह कभी पूरी तरह ताकतवर हो पाया तो तमाम खराबियों पर विजय पाई जा सकेगी। हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।
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