गणतंत्र दिवस के दो दिन बाद मणिपुर में भारी मतदान हुआ और आज शहीद दिवस पर पंजाब और उत्तराखंड मतदान करेंगे। इसके बाद उत्तर प्रदेश का दौर शुरू होगा। और फिर गोवा। राज्य छोटे हों या बड़े परीक्षा लोकतांत्रिक प्रणाली की है। पिछले 62 साल में हमने अपनी गणतांत्रिक प्रणाली को कई तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरते देखा है। पाँच राज्यों के इन चुनावों को सामान्य राजनीतिक विजय और पराजय के रूप में देखा जा सकता है और सत्ता के बनते बिगड़ते समीकरणों के रूप में भी। सामान्यतः हमारा ध्यान 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों या चुनाव के मौके पर व्यवस्था के वृहत स्वरूप पर ज्यादा जाता है। मौज-मस्ती में डूबा मीडिया भी इन मौकों पर राष्ट्रीय प्रश्नों की ओर ध्यान देता है। राष्ट्रीय और सामाजिक होने के व्यावसायिक फायदे भी इसी दौर में दिखाई पड़ते हैं। हमारी यह संवेदना वास्तविक है या पनीली है, इसका परीक्षण करने वाले टूल हमारे पास नहीं हैं और न इस किस्म की सामाजिक रिसर्च है। बहरहाल इस पिछले हफ्ते की दो-एक बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, क्योंकि वह हमारे बुनियादी सोच से जुड़ी है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने कहा, पेड़ को हितना मत हिलाओ कि वह गिर पड़े। राष्ट्रपति का यह आग्रह किससे है? जनता से, सरकार से या राजनीतिक व्यवस्था से? यह संदेश है या अंतर्मंथन की अपील? उसके एक रोज पहले अन्ना हजारे ने कहा था, अब सिर्फ तमाचा ही एकमात्र रह गया है। अन्ना हजारे क्या कहना चाहते हैं? क्या उन्हें जनता की ताकत पर भरोसा नहीं रह गया है? या वे व्यवस्था से इतना निराश हैं कि अब कुछ हो नहीं सकता? क्या जनता भी ऐसा ही सोचती है? सोचती है तो चुनाव में उसके फैसले दिखाई क्यों नहीं पड़ते? सिर्फ चुनाव के सहारे व्यवस्था बदल देने की धारणा के समर्थक कितने लोग हैं? हमारे चुनाव लोकतांत्रिक एक ओर जनता की अपेक्षाओं को दिखाते हैं वहीं लोकतंत्र के हर तरह के ढोंग भी हमें वहाँ दिखाई पड़ते हैं। लोकतंत्र का यह पेड़ जो फल देता है, क्या हम उससे संतुष्ट हैं? संतुष्ट नहीं हैं तो इसे कितना हिलाएं कि यह गिरे भी नहीं और फल भी देता रहे?
किसी ने कहा, लोकतंत्र कोई जादू की छड़ी नहीं है। बदलाव दो दिन में नहीं होता। शिक्षा, जागरूकता और सिस्टम्स को विकसित होने में समय लगता है । कुछ चीजों के लिए इंतज़ार करना होता है। यह बात भी ठीक है, पर यह भी तो देखना होगा कि सही रास्ते पर जा रहे हैं या नहीं। दूसरों को उपदेश देने के साथ हमें अपने आप को देखने की ज़रूरत भी होती है। जब तक आप शीशा नहीं देखते तब तक चेहरे पर हाथ नहीं जाता। राष्ट्रपति ने जो कहा, वह सरकार का पक्ष है। सरकार चाहती है कि सिस्टम को सुरक्षित रहना चाहिए। आखिर काम करने के लिए उसे ताकतवर होना चाहिए। पर इसके माने सिविल सोसायटी को नामंज़ूर करना नहीं है।
सिविल सोसायटी माने अन्ना हज़ारे नहीं हैं। और लोकतंत्र माने केवल सरकारें चुनना नहीं है। हम जिन सिस्टम्स की बात कर रहे हैं उनमें जनता को कहीं न कहीं होना चाहिए। चुनाव की पूरी प्रक्रिया को गौर से देखें तो आपको नज़र आ जाएगा कि चुनाव लड़ने वालों में से अधिकतर लोग अच्छे सेल्समैन की तरह अपना माल बेचना चाहते हैं। उसके बाद काम की कोई गारंटी-वॉरंटी नहीं देते। किसी एक पार्टी की बात नहीं है। सभी पार्टियाँ उन फॉर्मूलों को आजमाती हैं जिन्हें हम खुले आम गलत मानते हैं। हमने यह मान लिया है कि चुनाव जीतना भले लोगों के बस में नहीं है। पूरी व्यवस्था अदृश्य माफिया चलाते हैं, जिन्हें हम पहचानते हैं, पर उनका विरोध नहीं कर सकते।
इसलिए अन्ना हजारे को लगे कि चाँटे के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है तो गलत क्या है? अन्ना हज़ारे विचारक नहीं हैं। उनके पास सामान्य आंदोलनों का अनुभव है। उनके पीछे कुछ लोग जुटे तो इसलिए कि उन्हें भरोसा था कि शायद दबाव बने। दबाव बना भी, पर यह व्यवस्था बहुत ताकतवर है और अनुभवी भी। चाँटा एक प्रकार की हिंसा है। वैसी ही जैसी नक्सली करते हैं। नक्सली राजनीति भी इस व्यवस्था से निराशा का परिणाम है। कुछ लोग राजनीति को धूर्तता का पर्याय मानते हैं। राजनीति इस व्यवस्था को संचालत करने का कौशल है। वह सामाजिक स्थितियों पर निर्भर करती है। इसमें लोकमत की भूमिका होती है। तमाम अंतर्विरोधी मसलों पर विवेकशील दृष्टिकोण से लोकमत बनता है। यह भी सिस्टम का हिस्सा है, भले ही वह संस्थागत नहीं है। मीडिया उसका महत्वपूर्ण वाहक है, बशर्ते वह अपनी भूमिका अदा करे।
लोकतंत्र तमाम तरह की ताकतों को एकत्र होने का मौका देता है। अच्छों को भी और खराब को भी। राजनीति में भी समाज के श्रेष्ठतम और निकृष्टतम दोनों तत्व होते हैं। लोकतंत्र की दूसरी ताकत है आज़ादी। आज़ादी के भी अंतर्विरोध हैं। हम मानते हैं कि हमें कुछ भी बोलने की आज़ादी है। पर ऐसी आज़ादी बहुत से लोगों की आज़ादी को छीन लेती है। बहुत से लोगों की आज़ादी अक्सर थोड़े से लोगों की आज़ादी को खा जाती है। जबकि समझदारी की बात अक्सर थोड़े से लोग ही कर पाते हैं। इस लोकतांत्रिक शोर में खामोश आवाज़ों को भी सुनना एक बड़ी ज़रूरत है।
लोकमत बनाने वाली संस्थाओं को पूँजी का सहारा लोकतंत्र के सामने एक और बड़ी बाधा है। मीडिया के मार्फत अपनी बात कह पाना सबके बस की बात नहीं। और सिर्फ पूँजी या ताकत के सहारे अभिव्यक्ति और विचार को खरीदा या किराए पर लिया जा सकता है। हाल में एनडीटीवी का पत्रकार पंकज पचौरी ने प्रधानमंत्री की इमेज सुधारने का काम हाथ में लिया है। प्रकटतः इसमें गलत कुछ नहीं, काफी पत्रकार रश्क ही करेंगे कि यह काम हमें क्यों न मिला। पर पत्रकारों का काम किसी की इमेज बनाने का नहीं। यह काम तो पीआर वालों का है, जो पत्रकारिता के मूल्यों के उलट है। पर हमारे जीवन में आदर्शों का अर्थ क्या है? और जो आदर्श पर जीते हैं उन्हें पूछता कौन है? पहली ज़रूरत उस ढोंग से छुटकारा पाने की है जो हमारे ऊपर हावी है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने कहा, पेड़ को हितना मत हिलाओ कि वह गिर पड़े। राष्ट्रपति का यह आग्रह किससे है? जनता से, सरकार से या राजनीतिक व्यवस्था से? यह संदेश है या अंतर्मंथन की अपील? उसके एक रोज पहले अन्ना हजारे ने कहा था, अब सिर्फ तमाचा ही एकमात्र रह गया है। अन्ना हजारे क्या कहना चाहते हैं? क्या उन्हें जनता की ताकत पर भरोसा नहीं रह गया है? या वे व्यवस्था से इतना निराश हैं कि अब कुछ हो नहीं सकता? क्या जनता भी ऐसा ही सोचती है? सोचती है तो चुनाव में उसके फैसले दिखाई क्यों नहीं पड़ते? सिर्फ चुनाव के सहारे व्यवस्था बदल देने की धारणा के समर्थक कितने लोग हैं? हमारे चुनाव लोकतांत्रिक एक ओर जनता की अपेक्षाओं को दिखाते हैं वहीं लोकतंत्र के हर तरह के ढोंग भी हमें वहाँ दिखाई पड़ते हैं। लोकतंत्र का यह पेड़ जो फल देता है, क्या हम उससे संतुष्ट हैं? संतुष्ट नहीं हैं तो इसे कितना हिलाएं कि यह गिरे भी नहीं और फल भी देता रहे?
किसी ने कहा, लोकतंत्र कोई जादू की छड़ी नहीं है। बदलाव दो दिन में नहीं होता। शिक्षा, जागरूकता और सिस्टम्स को विकसित होने में समय लगता है । कुछ चीजों के लिए इंतज़ार करना होता है। यह बात भी ठीक है, पर यह भी तो देखना होगा कि सही रास्ते पर जा रहे हैं या नहीं। दूसरों को उपदेश देने के साथ हमें अपने आप को देखने की ज़रूरत भी होती है। जब तक आप शीशा नहीं देखते तब तक चेहरे पर हाथ नहीं जाता। राष्ट्रपति ने जो कहा, वह सरकार का पक्ष है। सरकार चाहती है कि सिस्टम को सुरक्षित रहना चाहिए। आखिर काम करने के लिए उसे ताकतवर होना चाहिए। पर इसके माने सिविल सोसायटी को नामंज़ूर करना नहीं है।
सिविल सोसायटी माने अन्ना हज़ारे नहीं हैं। और लोकतंत्र माने केवल सरकारें चुनना नहीं है। हम जिन सिस्टम्स की बात कर रहे हैं उनमें जनता को कहीं न कहीं होना चाहिए। चुनाव की पूरी प्रक्रिया को गौर से देखें तो आपको नज़र आ जाएगा कि चुनाव लड़ने वालों में से अधिकतर लोग अच्छे सेल्समैन की तरह अपना माल बेचना चाहते हैं। उसके बाद काम की कोई गारंटी-वॉरंटी नहीं देते। किसी एक पार्टी की बात नहीं है। सभी पार्टियाँ उन फॉर्मूलों को आजमाती हैं जिन्हें हम खुले आम गलत मानते हैं। हमने यह मान लिया है कि चुनाव जीतना भले लोगों के बस में नहीं है। पूरी व्यवस्था अदृश्य माफिया चलाते हैं, जिन्हें हम पहचानते हैं, पर उनका विरोध नहीं कर सकते।
इसलिए अन्ना हजारे को लगे कि चाँटे के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है तो गलत क्या है? अन्ना हज़ारे विचारक नहीं हैं। उनके पास सामान्य आंदोलनों का अनुभव है। उनके पीछे कुछ लोग जुटे तो इसलिए कि उन्हें भरोसा था कि शायद दबाव बने। दबाव बना भी, पर यह व्यवस्था बहुत ताकतवर है और अनुभवी भी। चाँटा एक प्रकार की हिंसा है। वैसी ही जैसी नक्सली करते हैं। नक्सली राजनीति भी इस व्यवस्था से निराशा का परिणाम है। कुछ लोग राजनीति को धूर्तता का पर्याय मानते हैं। राजनीति इस व्यवस्था को संचालत करने का कौशल है। वह सामाजिक स्थितियों पर निर्भर करती है। इसमें लोकमत की भूमिका होती है। तमाम अंतर्विरोधी मसलों पर विवेकशील दृष्टिकोण से लोकमत बनता है। यह भी सिस्टम का हिस्सा है, भले ही वह संस्थागत नहीं है। मीडिया उसका महत्वपूर्ण वाहक है, बशर्ते वह अपनी भूमिका अदा करे।
लोकतंत्र तमाम तरह की ताकतों को एकत्र होने का मौका देता है। अच्छों को भी और खराब को भी। राजनीति में भी समाज के श्रेष्ठतम और निकृष्टतम दोनों तत्व होते हैं। लोकतंत्र की दूसरी ताकत है आज़ादी। आज़ादी के भी अंतर्विरोध हैं। हम मानते हैं कि हमें कुछ भी बोलने की आज़ादी है। पर ऐसी आज़ादी बहुत से लोगों की आज़ादी को छीन लेती है। बहुत से लोगों की आज़ादी अक्सर थोड़े से लोगों की आज़ादी को खा जाती है। जबकि समझदारी की बात अक्सर थोड़े से लोग ही कर पाते हैं। इस लोकतांत्रिक शोर में खामोश आवाज़ों को भी सुनना एक बड़ी ज़रूरत है।
लोकमत बनाने वाली संस्थाओं को पूँजी का सहारा लोकतंत्र के सामने एक और बड़ी बाधा है। मीडिया के मार्फत अपनी बात कह पाना सबके बस की बात नहीं। और सिर्फ पूँजी या ताकत के सहारे अभिव्यक्ति और विचार को खरीदा या किराए पर लिया जा सकता है। हाल में एनडीटीवी का पत्रकार पंकज पचौरी ने प्रधानमंत्री की इमेज सुधारने का काम हाथ में लिया है। प्रकटतः इसमें गलत कुछ नहीं, काफी पत्रकार रश्क ही करेंगे कि यह काम हमें क्यों न मिला। पर पत्रकारों का काम किसी की इमेज बनाने का नहीं। यह काम तो पीआर वालों का है, जो पत्रकारिता के मूल्यों के उलट है। पर हमारे जीवन में आदर्शों का अर्थ क्या है? और जो आदर्श पर जीते हैं उन्हें पूछता कौन है? पहली ज़रूरत उस ढोंग से छुटकारा पाने की है जो हमारे ऊपर हावी है।
sir aapne sahe lika ha. janta ke khamose is bat ka sanket ha ki wo muka aane par aapne chuppi todege. or muka janta ke darwaje par dastak de raha ha.
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