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Wednesday, November 23, 2011

हताशा से जूझते भारत का ज्ञान और सपने

पता नहीं कितने अखबारों में यह खबर थी कि 'कौन बनेगा करोड़पति' में पाँच करोड़ जीतने वाले मोतीहारी के सुशील कुमार ने श्रीमती सोनिया गांधी से भेंट की। यह सम्मान ओलिम्पिक मेडल जीतने वालों को मिलता रहा है। कल यानी इतवार के अखबारों ने इस बार के केबीसी की व्यावसायिक सफलता का गुणगान किया है। किस तरह उसने 'स्मॉल टाउन इंडिया' की भावनाओं को भुनाया। बहरहाल कुछ ज्ञान और कुछ भाग्य के सहारे चलने वाला खेल गाँव-गाँव, गली-गली सपने बिखेरने में कामयाब हुआ है। यह सायास था या अनायास पर 'कौन बनेगा करोड़पति' में कुछ नई बातें देखने को मिलीं। इसमें शामिल होने वालों की बड़ी तादाद बिहार, झारखंड और हिन्दी राज्यों के पिछड़े इलाकों से थी। कार्यक्रम के प्रस्तोताओं ने दुर्भाग्य के शिकार, हताश और विफलता से जूझते लोगों पर खासतौर से ध्यान दिया। उनकी करुण-कथाएं देश के सामने रखीं। अमिताभ बच्चन ने इन निराश लोगों के जीवन में खुशियाँ बाँटीं। सन 2000 में जब यह सीरियल जब शुरू हुआ था तब लोगों को करोड़पति बनने का यह रास्ता नज़र आया। यह रास्ता सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक की लॉटरी संस्कृति से बेहतर था। कम से कम लोगों ने जीके का रट्टा तो लगाया।


'कौन बनेगा करोड़पति' ने जीवन और समाज की कई रोचक बातों को उठाया। जहाँ हिन्दी का समूचा मीडिया अजब सी कृत्रिम और जबरन थोपी गई हिंग्लिश को स्थापित करने में तुला है अमिताभ बच्चन ने सरस और सहज हिन्दी को अपनाया जिसे खूब पसंद किया गया। पर इस साल 'पंचकोटि महामनी' बने 'करोड़पति' ने खोजकर ऐसे लोगों को पेश किया जो टूटे दिल के साथ आए और हँसते-गाते वापस गए। छोटे-छोटे शहर अपने इन नए नायकों का इन दिनों अभिनंदन कर रहे हैं। स्थानीय राजनेता उन्हें फूलों के गुलदस्ते पेश कर रहे हैं और नई पीढ़ी उनके ऑटोग्राफ ले रही है। साधारण लोगों की असाधारण जीवन-गाथाएं देखने को मिली। एक-एक जीवन एक-एक महाकाव्य।

ये स्वप्न-क्रांतियाँ हैं। ये जीवन और व्यवस्था के प्रति हमारे विश्वास को कायम रखती हैं। पर जैसे-जैसे जानकारियाँ बढ़ रही हैं और ज्ञान का विस्तार हो रहा है हताशाएं भी बढ़ रही हैं। एक ही ज़मीन पर कई तरह के सपने हैं। करोड़पति बनने का सपना और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन एक ही समाज में एक ही धरातल पर एक साथ चले। सपने दोनों जगह हैं, पर विपरीत छोरों पर हैं। चाहत एक है कि अपनी बदहाली को दूर किया जाए। लोकपाल मामले को मीडिया की उपज मानें तो समझ में नहीं आता कि मनोरंजन और मस्ती से सराबोर समाज को भ्रष्टाचार क्यों याद आता है?

हम परम्परा से स्वप्न-जीवी हैं। सपने भी ज़रूरी हैं, उनका भी महत्व है। पर जीवन की कठोर राहें पार करने के वास्ते समझदारी, विवेकशीलता, ज्ञान और सामूहिक विमर्श की ज़रूरत है। आप जो देख रहे हैं वह स्वप्न-क्रांति है, ज्ञान-क्रांति नहीं। यह जानने की ज़रूरत है कि ज्ञान और सामूहिक विमर्श के हमारे औजारों को क्या हो गया है? क्या है हमारी समझ? कौन बनाता है हमारी राय? और क्यों हमारी गाड़ी गम्भीर विमर्श की पटरियों से उतरती जा रही है? कहाँ हैं हमारे ज्ञान के केन्द्र? अमेरिका में सार्वजनिक पुस्तकालय का इस्तेमाल मुफ्त में होता है। स्कूली शिक्षा से ही बच्चों को लाइब्रेरी जाने की सलाह दी जाती है। क्या आपको याद है कि आपके शहर में लाइब्रेरी कब खुली थी? नई बस्तियों, कॉलोनियों और अपार्टमेंटों में आपने सब कुछ देखा होगा लाइब्रेरी नहीं देखी होगी। सार्वजनिक-विमर्श के परम्परागत केन्द्रों का ह्रास होता जा रहा है। चौपालों, चायघरों, कॉफी हाउसों से लेकर ड्रॉइंगरूमों तक जो चीज़ कमज़ोर हुई है वह है विमर्श। हम विचार से भागते हैं। उसे उबाऊ मानते हैं। बौद्धिकता और बौद्धिक कर्म का मज़ाक उड़ाने वाले लोग ऊँची कुर्सियों पर बैठ गए हैं। कम से कम तीन जगह ऐसी हैं जो सामाजिक बुद्धि का विकास करती हैं। ये हैं पत्रकारिता, विश्वविद्यालय और संसद। तीनों जगह ज्ञान, गम्भीर विमर्श, खुलेपन और विवेकशीलता की आवश्यकता है।

कल से शुरू हो रहा संसद का शीत-सत्र वहाँ से शुरू होगा जहाँ वर्षा सत्र का समापन हुआ था। बावजूद तमाम शोरगुल के पिछले सत्र में बिलों को पास करने और सार्वजनिक प्रश्नों को अपेक्षाकृत बेहतर समय मिला। चूंकि सारे देश का ध्यान लोकपाल बिल पर है इसलिए हम संसद के शेष कार्यों पर ध्यान नहीं दे पाए। आगामी सत्र में संसद केसामने 31 पुराने बिल हैं, एक अध्यादेश की जगह लेने के लिए और 23 नए विधेयक हैं। कुल 21 बैठकों में इतने मामलों पर पूरी गम्भीरता से बहस होगी तब भी शायद सारे मामलों के साथ न्याय नहीं होगा। शोरगुल और आंदोलनों के कारण लोकपाल बिल मीडिया के केन्द्र में है, पर बाकी बिल महत्वपूर्ण क्यों नहीं हैं? हम उनके बारे में कितना जानते हैं? यह जानकारी देने का काम किसका है? पिछले दिनों का प्रसंग है। मुम्बई में हुए धमाकों के बाद संसद की कार्यवाही स्थगित होने की खबर भी आई। तब किसी ने इस बात की ओर इशारा किया कि यह वक्त तो इस सवाल पर विचार करने का था। पलायन का नहीं। हमें संसदीय विमर्श को स्थापित करने वाले आंदोलन की ज़रूरत है।

संसदीय विमर्श संसदीय संस्थाओं के मार्फत बढ़ता है। संसदीय समितियाँ यह काम करती हैं। वे समाज के विभिन्न वर्गों से भी मशवरा करती हैं। पर जैसे-जैसे भारतीय मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है वैसे-वैसे व्यवस्था के प्रति उसका भ्रम बढ़ रहा है। यह भ्रम और असंतोष गाहे-बगाहे आंदोलनों और फसादों की शक्ल में सामने आता है। लोगों को लगता है कि उनकी बात सुनी नहीं जाती। राज-व्यवस्था को पंचायत स्तर तक ले जाने के पीछे उद्देश्य यह भी है कि निचले स्तर पर हुआ विमर्श ऊपर जाए। फैसले नीचे से ऊपर की ओर हों। पर स्थिति यह है कि ऊपर वाले अपने से नीचे के स्तर वाले को फैसले करने नहीं देते। ऊपरी कुर्सियों पर मीडियॉक्रिटी जा बैठी है। 'करोड़पति' ने निचले स्तर की जिजीविषा पर रोशनी डाली है। उसका आत्मविश्वास बढ़ाया है। पर असल क्रांति तब होगी जब ज्ञान, सूचना और विचार का विस्तार ग्रास रूट तक होगा। यह साबित करने की ज़रूरत है कि यह भारत जानता है और सोचता भी है। उसे स्वप्नदर्शी होना चाहिए, सपनों में डूबा नहीं।

2 comments:

  1. सवाल ये है कि मुनाफ़ा आधारित जो व्यवस्था है उसकी बुनियाद तो इन्ही समाज में हाशिए पर धकेले गए लोगों को सपना दिखा कर टिकी हुई है। के बी सी भी उसी की उपज है। किसी सुशील, अनिल की बेहतरी तो इसमें है ही नहीं। फिर बिना इस सिस्टम को बदले क्या स्वप्नदर्शी बनना संभव है?

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  2. बढ़िया जानकारी.
    आर्यावर्त
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