पृष्ठ

Monday, October 17, 2011

स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना

शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक सहचर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय यह थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढना या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना महत्वपूर्ण है। स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी।

नोएडा में मुख्यमंत्री मायावती ने दलित प्रेरणास्थल का उद्घाटन करके एक नई बहस का आधार तैयार किया है। बेशक नए पार्क प्रभावशाली हैं और दलितों की अस्मिता को बढ़ाने वाले हैं, पर क्या इससे उनके जीवन में कोई सुधार होगा? क्या इनका कोई अर्थ है? इन पार्कों-प्रतिमाओं और स्मारकों पर कितना खर्च हुआ और खर्च वाजिब है या नहीं, यह इस लेख का विषय नहीं है। यह विचार करने की इच्छा ज़रूर है कि हमारा समाज स्मृतियों और स्मारकों से विमुख रहने वाला समाज क्यों है? वह इतिहास की वस्तुनिष्ठ समझ से भागता क्यों है?
हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों के माने कितना समझते हैं, यह अपने ऐतिहासिक स्मारकों को देखने से समझ में आता है। अपने बहुरंगी समाज की तस्वीर और वैचारिक बहुलता को मजबूत आधार देने के लिए हमें स्मारक चाहिए। प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के स्मारक। साथ ही लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के स्मारक।

हमारे पास पाँच-छह हजार साल से लेकर सत्तर-अस्सी साल तक पुराने स्मारक हैं। पर आज़ादी के बाद हमारी स्मारक-चेतना खुट्टल हो गई। अजंता-एलोरा, कोणार्क, खजुराहो, महाबलीपुरम, हम्पी, सांची का स्तूप, ताज महल, फतेहपुर सीकरी, कुतुबमीनार, लाल किला, गेटवे ऑफ इंडिया और इंडिया गेट जैसी तमाम ऐतिहासिक धरोहरें हैं। पर 1947 के बाद के सार्वजनिक स्मारकों पर नज़र डालें तो क्या मिलता है? गांधी, नेहरू, एमजीआर, एनटीआर और नरेन्द्र मोदी। उत्तर प्रदेश में दलित चेतना को समर्पित स्मारक बन रहे हैं तो अच्छी बात है। लोग कम से कम उन महान विभूतियों के नाम से परिचित होते हैं, जिन्होंने सामाजिक विषमता और अन्याय का प्रतिकार किया या शिक्षा का प्रसार किया। हाँ ये इमारतें सिर्फ इमारतें हैं। इनमें पुस्तकालय खुलते, शोध संस्थान खुलते, कोई वैचारिक गतिविधि होती तो और बेहतर था।

उत्तर प्रदेश सरकार का इन स्मारकों के पीछे क्या दृष्टिकोण है कहना मुश्किल है। पर हमारी सामान्य समझ सत्ता के बदलावों से जुड़ी है। दिल्ली में कुछ प्रधानमंत्रियों की समाधियाँ हैं, जो राजनीतिक सत्ता की प्रतीक हैं। गांधी से जुड़े कुछ स्मारक हैं। नेहरू से जुड़ा तीनमूर्ति भवन है और इसी तरह की कुछ और चीजें हैं। पर जिस तरह सांसदों से लेकर पार्षद तक अपने माता-पिता, दादा-दादी के नाम पर सड़कों और गलियों के नाम रखवाते हैं वह भी दूसरे किस्म के दोष की ओर इशारा करता है। स्वतंत्रता संग्राम में शामिल तमाम लोग आज भी अनाम हैं। अनेक महत्वपूर्ण बातों से लोग अपरिचित हैं। 26 दिसम्बर 1916 को लखनऊ के चारबाग स्टेशन के सामने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की पहली मुलाकात हुई थी। इस आशय का एक पत्थर चारबाग में लगा है, पर लखनऊ में ही कितने लोग इस बात को जानते हैं। राष्ट्रीय स्मारक हमें वैचारिक आधार देते हैं। गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और लोहिया हमारी साझा धरोहर हैं। यह बात आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए हमें स्मारक चाहिए।

न्यूयॉर्क के मैनहटन द्वीप पर लगा स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी सिर्फ एक प्रतिमा नहीं है। वह फ्रांसीसी राज्यक्रांति को अमेरिकी वैचारिक समर्थन पर कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में फ्रांसीसी जनता की भेंट है। इस प्रतिमा के लिए पैसा एकत्र करने के वास्ते जोज़फ पुलिट्ज़र ने अपने अखबार के मार्फत जनता से अपील की थी। फ्रेच रिवोल्यूशन की याद में ऐसा ही स्मारक है ईफेल टावर। इसी तरह का स्मारक है पार्थेनॉन। यूनानी देवी एथेना का मंदिर और एथेंस के लोकतंत्र का प्रतीक। रूस और चीन की क्रांतियों के तमाम प्रतीक खड़े हैं। राजनीतिक बदलाव के साथ लेनिन से लेकर सद्दाम हुसेन तक की प्रतिमाएं ढहाई भी गईं। कोलकाता और विजयवाड़ा में लेनिन की नई प्रतिमाएं लगाईं भी गईं। इतिहास इस तरह भी याद किया जाता है। अनेक ऐतिहासिक स्मारक अपने ध्वंस के लिए याद किए जाते हैं जैसे बामियान की बुद्ध प्रतिमाएं और बाबरी मस्जिद।

स्वतंत्रता के 21 साल बाद 1968 में पाकिस्तान में मीनार-ए-पाकिस्तान का उद्घाटन किया गया। पर हमने अभी तक स्वतंत्र भारत का कोई स्मारक नहीं बनाया। शायद हमें ज़रूरत नहीं। संसद भवन और राष्ट्रपति भवन हमें अंग्रेजों ने बनाकर दिए थे। गांधी समाधि हमारे राष्ट्रीय स्मारक का काम करती है। गेटवे ऑफ इंडिया जॉर्ज पंचम के स्वागत में बना और इंडिया गेट अंग्रेजी सेना की ओर से लड़ने वाले बहादुर भारतीय फौजियों की स्मृति में हमने 1971 में वहीं अमर जवान ज्योति जला दी।

स्मारक सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलनों के नहीं होते। संकटों और संघर्षों के भी होते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी पर एटमी हमलों की याद में बनाए गए स्मारक आने वाले समय में लोगों को कुछ बातों से सावधान करेंगे। ऐसे ही स्मारक हैं दूसरे विश्वयुद्ध में यहूदियों की सामूहिक हत्या होलोकॉस्ट की याद में बने स्मारक। हमारे यहाँ भोपाल गैस त्रासदी या दिल्ली में उपहार अग्निकांड की याद में बने स्मारक ज़रूर बने हैं, पर उस स्तर पर नहीं हैं, जितनी बड़ी ये त्रासदियाँ थीं। सुनामी के स्मारक भी बने होंगे, पर चर्चित नहीं हैं। हर शहर और कस्बे के पास याद रखने के लिए कुछ न कुछ होता है। उन स्मृतियों के संचय की स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए।

हमारा संकट वैचारिक है। हम ज्ञान-विज्ञान से कट गए हैं। मनोरंजन और मस्ती के नशे में डूबे हैं। यह उस देश में है, जहाँ तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा के केन्द्र होते थे। हाल में नालंदा विश्वविद्यालय की पुनर्स्थापना के प्रयत्न शुरू हुए हैं। हमें ऐसे स्मारक चाहिए जो नए भारत के व्यापक प्रतीक बन सकें। आने वाले वर्षों में हमारे यहाँ सौ सवा सौ मंजिल की इमारतें भी खड़ी हो जाएंगी। पर इमारतें स्मारक नहीं होतीं। उनके लिए स्मृतियाँ चाहिए।

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

5 comments:

  1. बात तो आपने बिलकुल सही कही... आजादी का स्मारक होना चाहिए... लेकिन साथ ही वास्तविक आज़ादी भी मिलनी ही चाहिए अपने वतन को... जिसकी अभी तक तलाश है...

    ReplyDelete
  2. कल 18/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. सुन्दर प्रस्तुति |
    बधाई स्वीकारें ||

    ReplyDelete
  4. वाह ...बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    ReplyDelete
  5. स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना। स्मृतियाँ कड़वी या मीठी।-यह तो ठीक है, पर राजनीति तो स्मृतियों पर कम स्मारकों पर खूब होती हैं. स्मृतियाँ जब तक अनअभिव्यक्त हैं, सार्वजनिक नहीं हैं, दूसरों को प्रेरित या परेशान नहीं करतीं, जबकि समरक यह काम खूब करते हैं!...ऐसे में भ्रम तो होता है कि समरक ही अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण हैं......

    'खुट्टल' शब्द, जिसका मूल अर्थ भोथरा है, का प्रयोग मैंने पहली बार होता पाया है.....मैंने इसका प्रयोग अबतक के अपने शब्द-कर्म या अभिव्यक्ति में नहीं किया था.....आगे मैं भी इसे अपनाना चाहूँगा........देखने में भी सुन्दर और उच्चारण में भी कुछ अलग यह शब्द तालु, जिह्वा को कसरत कराते हुए अन्दुरुनी उपरि दंतपंक्ति को एक अलग अंदाज़ का संस्पर्श प्रदान करता है.....

    ReplyDelete