इस आंदोलन को अन्ना हजारे का आंदोलन नाम दिया गया है, क्योंकि हम व्यक्ति पर ज्यादा जोर देते हैं। उसकी वंदना करते वक्त और आलोचना करते वक्त भी। आरोप यह भी है कि सिविल सोसायटी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा नष्ट करते हुए तानाशाही अंदाज़ में सारा काम कराना चाहा। काफी हद तक यह बात सही है, पर क्या हमारे यहाँ जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं? जनता को अपनी व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार है या नहीं? जब हम राइट टु इनफॉर्मेशन की बात कर रहे थे, तब क्या यह तर्क नहीं था कि देश में तो ऑफीशियल सीक्रेट्स एक्ट है। जनता कौन होती है जानकारी माँगने वाली? आज हम यह सवाल नहीं करते। इस आंदोलन में काफी लोगों की भागीदारी थी, फिर भी काफी लोग उसमें शामिल नहीं थे या उसके आलोचक थे। ऐसा क्यों था? जनता की भागीदारी के माने क्या हैं? जनता क्या है? कौन लोग जनता हैं और कौन लोग जनता के बाहर हैं? जनता का सबसे नीचे वाला तबका (सबआल्टर्न) क्या सोचता है? ऐसी तमाम बातें हैं। हमें इनपर भी सोचना चाहिए।
अन्ना ने जन प्रतिनिधियो को नापसंद करने की माँग को भी उठाया है। उसके पहले जेपी यह माँग उठा चुके हैं। जेपी आंदोलन
भ्रष्टाचार के खिलाफ था। जेपी की दीर्घकालीन राजनीति भी सत्ता के विमर्श में जनता को
सबसे नीचे के स्तर तक शामिल करने की थी। निचले स्तर पर जन-समितियाँ बनें और उनके सुझाव
ऊपर तक जाएं। पंचायत राज के दो दशक पूरे होने को हैं, पर समावेशी लोकतंत्र अभी दूर
है।
इस आंदोलन के दौरान यह
बात कई बार कही गई कि जन प्रतिनिधि प्रणाली और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा
है। यह भी कहा गया कि कोई बदलाव करना है तो चुनाव लड़िए, चुनकर आइए और बदलाव कीजिए।
आपको बाहर रहकर बदलाव के लिए दबाव डालने का अधिकार नहीं है। इसकी तुलना फिल्म शोले
में टंकी पर चढ़कर बसंती का हाथ माँगने वाले वीरू से की गई। पर टंकी या छत पर चढ़कर
अपनी माँग मनवाने का चलन आज का नहीं है। जनता की भागीदारी का भी यह पहला आंदोलन नहीं
था। अलबत्ता क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक मसलों पर भीड़ बेहतर जुड़ती है। ज्यादा
बड़े मसलों पर जनता को जमा करना आसान नहीं होता। और वह जमा होती है तो विस्मय होता
है कि ऐसा क्योंकर हो गया। उसके बाद कांसिपिरेसी थियरी जन्म लेती है।
अन्ना आंदोलन का सार
तत्व अभी बाकी है। इसलिए इसके अंज़ाम का इंतज़ार कीजिए। पर सवाल है कि लोकतंत्र में
क्या जनता को भागीदारी का अधिकार नहीं होता? होता है तो उसकी सीमा रेखा
क्या है? पाँच साल में एक बार वोट डालना? समावेशी विकास की तरह समावेशी लोकतंत्र क्यों नहीं हो सकता, जिसमें जनता की निरंतर
भागीदारी हो? यह बात भारत से नहीं यूरोप से उठी है। जहाँ की परम्पराओं का
हवाला देकर हम लोकतांत्रिक मर्यादाएं परिभाषित करते हैं। लगातार मंदी और आर्थिक संकटों
से जूझते लोग पूछ रहे हैं कि वे लोग कौन हैं जो हमें इन संकटों में धकेल रहे हैं? और वे नीतियाँ कहाँ से बन कर आ रहीं हैं जो हमारे लिए संकट पैदा करती हैं?
आज़ादी का आंदोलन बीस
के दशक से सन 47 तक सबसे जोरदार तरीके से चला था। उस दौरान ही हमने अपनी भावी व्यवस्था
के बारे में विचार किया। आधारभूत संवैधानिक उपबन्ध एक दशक पहले से तैयार थे। उसके काफी
तत्व अंग्रेजों ने हमें बनाकर दिए थे। पच्चीसेक साल के उस दौर में हमारी कोशिश थी कि
सत्ता हाथ में आ जाए, बाकी काम हम कर लेंगे। सत्ता हासिल करने के चौंसठ साल बाद भी
सुराज की परिभाषाएं गढ़ी जा रहीं हैं। अन्ना की सफलता या विफलता को लेकर प्रशंसा और
ईर्ष्या के मिले-जुले भाव हैं। डिजिटल ब्रैंड मैनेजमेंट कम्पनी पिनस्टॉर्म ने अन्ना
को देश के टॉप टेन ब्रैंड्स में शामिल किया है। बिग बी, वोडाफोन और एमटीवी से ऊपर।
अन्ना चाहें तो कोल्ड ड्रिंक या बूट पॉलिश बेचने वाली किसी कम्पनी से करार करके अपनी
लोकप्रियता को मोनीटाइज़ कर सकते हैं। पर उनसे उम्मीद है कि वे इस व्यवस्था में जनता
की भागीदारी सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था कायम करने में मदद करेंगे। और यह भी कि वे
मेदांता अस्पताल से बाहर आ गए हैं और अब रालेगण सिद्धी के हकीम-वैद्यों की सलाह पर
ही चलेंगे।
अन्ना की मंडली का इरादा
जो भी रहा हो, उन्हें जनता के मसलों का महत्व मालूम था। अनशन खत्म करते समय अन्ना ने
जल-जंगल-जमीन वगैरह की बात की। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य की भी। ये सारे सवाल
व्यवस्था में जनता की भागीदारी के साथ जुड़े हैं। हमारा ध्यान आर्थिक विकास की दर पर
रहता है। इस बात पर नहीं कि करोड़ों के जीवन में बदलाव आया ही नहीं। हो सकता है कि
अन्ना मंडली गलत साबित हो। उसकी मंशा वह न हो, जो नज़र आती है। पर उन्होंने करोड़ों
उम्मीदों को जगाया है। उनके मौन-समर्थक संकीर्णता के दायरे में कैद नहीं थे। और न वे
सबके सब रामलीला मैदान में मौज़ूद थे। और न इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य थे। उस
भीड़ में कुछ लोग शराब के नशे में धुत्त थे और जेबकतरे भी। इससे भी यह आंदोलन गलत साबित
नहीं होता। भीड़ में तमाम तरह के लोग थे। आप अपने घर की शादी-बारातों में क्या ऐसे
लोगों को रोक पाते हैं? रामलीला मैदान में घरों से महिलाएं-बच्चे किसी उम्मीद
के साथ आए थे।
भ्रष्टाचार सिर्फ वित्तीय
अनियमितता का नाम नहीं है। वह हमारे संस्कारों में बसा है। इसकी वजह शिक्षा व्यवस्था,
सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराएं और वे स्थितियाँ हैं जो हमें स्वार्थी बनाती
हैं। असमानता और भेदभाव का अपने किस्म का सबसे बड़ा उदाहरण हमारा देश है। ज़रूरत इस
बात की है कि हमारा लोकतंत्र और नीचे तक जाए। जनता को छुए। उससे मशवरा करे। लोकतंत्र
अब सिर्फ उन्ही प्रतिनिधि संस्थाओं तक सीमित नहीं है, जिनकी रचना सौ साल या उससे भी
पहले हुई थी। अब डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात फिर से होने लगी है। इसे कंसेसस डेमोक्रेसी,
डेलीबरेट डेमोक्रेसी, सोशियोक्रेसी, ओपन सोर्स गवर्नेंस, इनक्ल्यूसिव डेमोक्रेसी, ई-पार्टिसिपेशन
जैसे तमाम नए नाम मिल रहे हैं। टेक्नॉलजी ने सोशल नेटवर्किंग के जो टूल दिए हैं, वे
आज नहीं तो कल इस भागीदारी को कोई शक्ल देंगे।
इसका अर्थ संवैधानिक
संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं। नए ढंग से परिभाषित करना है। संवैधानिक संस्थाएं ही इस
नई परिस्थिति की रचना करेंगी। इस साल हमने आर्थिक उदारीकरण के दो दशक पूरे किए हैं।
अगले साल पंचायत राज कानून के दो दशक पूरे होंगे। दोनों में तादात्म्य की ज़रूरत है।
यह व्यवस्था का खोट है कि देश के सौ से ज्यादा जिले नक्सली हिंसा की चपेट में हैं।
यह विदेशी साजिश नहीं है। मुख्यधारा-राजनीति की पराजय है। जो काम हम फौज से कराना चाहते
हैं, वह राजनीति आसानी से कर सकती थी। इसके लिए हमें उन लोगों को इस विमर्श में शामिल
करना था, जो आज बंदूक लेकर खड़े हैं। दुर्भाग्य है कि मुख्यधारा की राजनीति कई राज्यों
में नक्सलियों का इस्तेमाल अपने हित में करती है।
यह बात बार-बार कही जाती
है कि निर्णय करने की प्रक्रिया नीचे के स्तर तक जानी चाहिए। ग्राम सभाओं के पास आज
भी पर्याप्त अधिकार नहीं हैं। फिर भी बदलाव नज़र आता है। व्यवस्था में छिद्र न होते
तो यह बदलाव और तेज होता। इसे रोकने का काम भी राजनीति का था। पर राजनीति में कौन लोग
हैं? पार्टियों के प्रत्याशी कौन तय करता है? पार्टियाँ जब राष्ट्रीय स्तर पर फैसले करती हैं तब क्या वे निचले कार्यकर्ताओं
से परामर्श करतीं हैं? क्यों नहीं पार्टियाँ अपने प्रत्याशी तय करते वक्त
मतदाता से राय लेना शुरू करें, जैसा अमेरिका में होता है? यह मुश्किल और जटिल काम है। बहरहाल देश की लोकतांत्रिक
प्रणाली में ही नहीं पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र में भी बदलाव होना चाहिए। पर कौन
सी पार्टी?
अन्ना हजारे को कुछ लोग
देवता में तब्दील करना चाहते हैं। यह हमारे समाज का दोष है। यह सिर्फ अन्ना के साथ
नहीं हुआ। ज्यादातर पार्टियों की यही स्थिति है। व्यक्ति और परिवार इस राजनीति पर हावी
है। पार्टियों के नेता भगवान हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना धीरे-धीरे दैवीय
प्रतिमा में तब्दील होते गए।
सन 2009 के लोकसभा चुनाव
के कुछ महीने पहले तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने दिल्ली में हुए एक गोलमेज
सम्मेलन में सुझाव दिया कि जनता के पास अपने प्रतिनिधियों की सदस्यता खत्म करने का
अधिकार भी होना चाहिए। जन प्रतिनिधि के अकर्मण्य, भ्रष्ट और बेईमान साबित होने के बाद
उसकी सदस्यता जारी रहने का कोई अर्थ नहीं है। इतनी बात सैद्धांतिक रूप से ठीक है, पर
इसके व्यावहारिक पहलू भी हैं। चुनाव में सामान्यतः पचास से साठ फीसदी के बीच वोट पड़ते
हैं। जनता के भीतर वोट डालने को लेकर उत्साह नहीं है, वह प्रत्याशी की वापसी का फैसला
करने में कितना उत्साह दिखाएगी? जनता जागरूक होती तो ऐसे प्रत्याशी चुनकर ही कैसे
आते? एक राजनेता के दुश्मन भी काफी होते हैं। ऐसा अधिकार होने पर
हमारे यहाँ उसके दुरुपयोग का अंदेशा है। यह अधिकार कनाडा और स्विट्जरलैंड जैसे देशों
में भी है, पर इसका इस्तेमाल नहीं होता।
मंजुल का कार्टून साभार |
संविधान,संसद को चुनौती,स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट का आह्वान,राष्ट्र ध्वज लेकर आंदोलन चलना,राष्ट्र ध्वज को रात्रि मे फहराना आदि राष्ट्रद्रोही कार्यों हेतु जिस शख्स पर मुकदमा चलना चाहिए उसका महिमा मंडन हो रहा है ,यही तो हमारे लोकतन्त्र की विडम्बना है कि,ऐसे शख्स को सत्तारूढ़ प्राधानमंत्री का भी वरद हस्त प्राप्त है।
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