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Saturday, April 23, 2011

सुनो समय क्या कहता है



अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद अचानक विवादों की झड़ी लग गई है। एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं। व्यक्ति को पहले बदनाम करने और फिर उसे किनारे लगाने की रणनीति काम करती है। यह स्वाभाविक है। व्यवस्था के साथ तमाम लोगों के हित जुड़े हैं। वे आसानी से हार नहीं मानते। फिर हम जिन्हें अच्छा मानकर चल रहे हैं, उनके बारे में भी पूरी जानकारी मिले तो गलत क्या है। पर हम एक बदलाव को नहीं पकड़ पा रहे हैं। कम्युनिकेशन के नए रास्तों ने एक नया माहौल बनाया है। परम्परागत राजनीति भी इसे ठीक से पढ़ नहीं पाई है। सिविल सोसायटी होती है या नहीं? होती है तो कितनी प्रभावशाली होती है? ऐसे सवालों के जवाबों से हमें नई वास्तविकताओं का पता लगेगा।


पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान आपने जागो रे अभियान देखा। यह शहरी लोगों का जागरूकता अभियान था। उस अभियान में राजनीति पर चोट थी और वोटर पर भी। वह अभियान नहीं होता तो कोई और अभियान होता। शिक्षा-व्यवस्था में तेज बदलाव और आर्थिक गतिविधियों में तेजी के कारण एक नया जागरूक युवा वर्ग खड़ा हो गया है। यह वर्ग संकीर्ण राष्ट्रवादी-जातीय, भाषायी और क्षेत्रीय भावनाओं से ऊपर उठकर सोचता है। हमें गलत-फहमी है कि यह वर्ग मौज-मस्ती में डूबा है। अन्ना हजारे के आंदोलन की शुरूआत एक वैबसाइट इंडिया अगेंस्ट करप्शन और एक एसएमएस से हुई थी। उस एसएमएस में मुम्बई के एक टेलीफोन नम्बर पर मिस कॉल करके अपने आपको इस अभियान से जोड़ना था। इसके बाद फेसबुक पर एक ग्रुप बना। राज्यवार ग्रुप बने। ट्विटर पर एक प्रोफाइल बना। देखते-देखते फॉलोवर बनने लगे। इन फॉलोवरों की संख्या शाहरुख खान या प्रीटी जिंटा के फॉलोवरों के बराबर नहीं है। पर राजनीति में जनता की भागीदारी के लिए यही संख्या बहुत बड़ी है। वक्त की आवाज़ है कि युवा वर्ग की राजनीति में हिस्सेदारी बढ़ने वाली है। यह भागीदारी क्यों बढ़ेगी इसे भी समझना चाहिए।   

अभी तक हमारी व्यवस्था अंधेरे से ढकी हुई थी या ढकी है। वह तब तक ढकी रहेगी, जब तक सामान्य व्यक्ति का उससे वास्ता नहीं पड़ता। हाल में एक रोज दिल्ली गुड़गाँव हाइवे का टोल टैक्स 20 रुपए से बढ़ाकर 21 रुपए कर दिया गया। उस रोज हाइवे पर लम्बी लाइनें लग गईं। किसी ने नहीं सोचा कि एक रुपया जी का जंजाल बन जाएगा। पिछले दिनों दिल्ली-एनसीआर में अवैध रूप से लगे मोबाइल टावरों को हटाने का काम शुरू हुआ। किसी ने सोचा नहीं था कि इससे सामान्य व्यक्ति की जिन्दगी पर क्या असर पड़ने वाला है। दिल्ली मेट्रो के राजीव गांधी चौक पर जहाँगीरपुरी-गुड़गाँव रूट वाली गाड़ी पर इन दिनों गदर मचा रहता है। ब्लू लाइन बसों से भी बुरा हाल है। मेट्रो-व्यवस्थापकों को छह कोच वाली गाड़ियाँ चलानी पड़ी हैं। साथ ही इस राजीव गांधी चौक के अलावा कुछ और सेंट्रल स्टेशन बनाने के बारे में सोचना पड़ रहा है।


आने वाले वक्त की व्यवस्था उतनी एकतरफा नहीं होगी, जितनी अब तक सम्भव थी। हालांकि भारतीय जन-जीवन में चेतना का स्तर अपेक्षाकृत बहुत से दूसरे समाजों से ज्यादा है, पर राज-काज को लेकर हम बहुत उत्सुक नहीं रहे हैं। गांधी ने बीसवीं सदी में भारतीय समाज को राजनीति से जोड़ा। पर वह राजनीति प्रतिरोध की राजनीति थी। व्यवस्था संचालन की राजनीति नहीं थी। आजादी के दो-एक साल तक आज़ादी का जोशो-ज़नून खत्म हो गया। कतार लगाकर वोट डालना, छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त के समारोह मनाना और राष्ट्रगीत गाने के बाद हमारी सामुदायिक जिम्मेदारी पूरी हो जाती थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाना नहीं सीखा। पहले दो दशक के कांग्रेसी जादू के बाद वैकल्पिक राजनीति की ज़रूरत महसूस हुई तो तमाम सैद्धांतिक बातों के जाति-धर्म और क्षेत्र के भावना-सूत्रों की राजनीति ही पनप पाई।

वैश्वीकरण ने हमारी राजनीति को भी बुनियादी तौर पर बदला है। कांग्रेस पार्टी की राजनीति वह थी ही नहीं, जिसे 1991 में उसने अपनाया। और न वाम मोर्चा की वह विचारधारा थी, जिसके सहारे उसकी सरकार ने 2006 का चुनाव जीतने के बाद अपनी नीतियाँ बंगाल में लागू कीं। उत्तर प्रदेश की जनता को जिस तरीके के बदलाव की ज़रूरत थी, वह नहीं मिला इसलिए सवर्ण वोटर ने भी बहुजन समाज पार्टी के साथ जाना पसन्द किया। बिहार की जनता को सामाजिक न्याय के मुकाबले विकास का नारा क्यों पसन्द आया? सच यह है कि देश की समूची राजनीति जिस व्यवस्था को चलाना चाहती है उसके मुहावरे उसके लिए परदेशी हैं।

देश के सबसे बड़े घोटाले 1991 की उदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद सामने आए। इसकी वजह हमारी नई व्यवस्था है या पुराना राजनैतिक सोच? इस बात का जवाब अभी मिलना बाकी है। अन्ना हजारे गाँव के नेता हैं, पर उन्हें सबसे ज्यादा समर्थन शहरों से मिला। शहरों के पास नेता नहीं हैं। हमारी राजनीति का परम्परागत आधार ग्रामीण है। भले ही उसमें मौजूद सारे नेताओं ने अपनी हवेलियाँ शहरों में बनवा ली हैं, पर उनके मुहावरे और बोली ग्रामीण है। अलबत्ता उनकी संतानें पूरी तरह शहरी हैं। शहर में रहना कोई पाप नहीं है। वहाँ रोजगार है, बच्चों की पढ़ाई है, अस्पतालों में इलाज है। आने-जाने की परिवहन व्यवस्था है। गाँव के जीवन को इतना सुविधाजनक बनाया जा सके तो कोई गाँव क्यों छोड़ेगा? जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण और शहरी आबादी का अनुपात घट रहा है। शहरों के ज्यादातर लोगों की जड़ें गाँवों में हैं, पर जो एक बार आ गए, वो वापस नहीं आएंगे। जो शहर नहीं जा पाए हैं, वे चाहते हैं कि उनके बच्चे शहर जाएं। ये बच्चे गाँ और शहर की वास्तविकता को समझते हैं। यही बच्चे आने वाले वक्त की राजनीति को रास्ता दिखाएंगे।

शिक्षा, मीडिया और स्त्रियों की भागीदारी नए ज़माने के बुनियादी सूत्र हैं। पंचायत राज विधेयक आने के बाद से इस समाज में बदलाव तेजी से हो रहा है। कुछ राज्यों में पंचायत में महिलाओं के लिए पचास फीसदी आरक्षण कर दिया गया है। इससे उनकी भूमिका और बढ़ी है। महिलाओं के नाम पर उनके पति, पिता या पुत्र भी कुर्सी चला रहे हैं, पर कहीं न कहीं, कुछ न कुछ महिलाएं भी व्यवस्था चलाती हैं। शहरी मध्य वर्ग को तैयार करने में फिलहाल शिक्षा की सबसे बड़ी भूमिका है। पिछले दो दशकों में नए इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट कॉलेजों ने बड़ी संख्या में नौजवानों को तैयार किया है। इनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से गए। इनसे भी ज्यादा बड़ी संख्या में छात्र तैयार हो रहे हैं। इन नए नागरिकों की प्राथमिकता में ग्रामीण भारत भी होना चाहिए।

सत्येन्द्र दुबे की हत्या के बाद देश में पहली बार ह्विसिल-ब्लोवरों की चर्चा शुरू हुई। उसके बाद मंजुनाथ की हत्या हुई। इसके समानांतर नई पीढ़ी का रोष पनपता रहा। भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं। लोकपाल कानून बन जाने से सारी समस्याओं का समाधान भी नहीं हो जाएगा। जनता की नाराजगी भ्रष्टाचार के मुकाबले इस जानकारी को लेकर ज्यादा है कि पिछले 43 साल में आठ-दस कोशिशों के बावजूद हम यह कानून नहीं बना पाए। ह्विसिल ब्लोवरों की सुरक्षा के लिए जिस कानून का वादा सन 2004 में किया गया था, वह बिल अब जाकर संसद की स्थायी समिति के पास है। इसी तरह न्यायिक मानकों को लेकर विधेयक भी लाया जा रहा है। यह सब जनता के दबाव में हो रहा है। मोबाइल फोनों और इंटरनेट से लैस नए भारत की नौजवान पीढ़ी जिस रूप में भी राजनीति में शामिल हो रही है, वह शुभ लक्षण है। व्यवस्था के बारे में जानकारी उसके पास है। समस्याओं के समाधान का रास्ता भी उसे मालूम है। यही पीढ़ी भारत को दुनिया के शिखर पर लाएगी।

जनवाणी में प्रकाशित 

2 comments:

  1. आपकी सकारात्मक सोच और सद्भावनाओं का हम सम्मान एवं समर्थन करते हैं.

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  2. पूंछ पे पांव रखा है तो काट खाए जाने का डर तो रहना ही हुआ न...

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