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Wednesday, March 2, 2011

इंटरैक्टिव हैडलाइन

अखबारों को पाठकों से जोड़ने की मुहिम में बिछे पड़े मार्केटिंग प्रफेशनलों को कन्नड़ अखबार कन्नड़ प्रभा ने रास्ता दिखाया है। इसबार 1 मार्च को कन्नड़ प्रभा की बजट कवरेज को शीर्षक दिया उनके पाठक रवि साजंगडे ने।

कन्नड़ प्रभा के नए सम्पादक विश्वेश्वर भट्ट के दिमाग में आइडिया आया कि क्यों न अपनी खबरों की दिशा पाठकों की सहमति से तय की जाय। इसकी शुरुआत उन्होंने 24 फरबरी को राज्य के बजट से की। उन्होंने अपने ब्लॉग, ट्विटर, एसएमएस वगैरह के मार्फत पाठकों से राय लेने की सोची। 24 की रात डैडलाइन 9.30 तक उनके पास 126 बैनर हैडलाइन के लिए सुझाव आ गए। इसके बाद उन्होंने रेलवे बजट के लिए सुझाव मांगे। इसके लिए 96 शीर्षक आए। आम बजट के दिन 60 शीर्षक आए।


साथ में दिया चित्र कन्नड़ प्रभा के 1 मार्च के अंक का है। इसका शीर्षक रवि साजंगडे ने दिया है। पेज पर सबसे नीचे दाईं ओर सम्पादक ने इस शीर्षक को क्यों चुना गया इस विषय पर अपनी राय दी है। कुछ अन्य शीर्षक और उन्हें भेजने वालों की सूची अन्दर के पेज पर दी गई है।

पाठकों को अखबार से जोड़ने की कोशिशें काफी पहले से चल रहीं हैं। हिन्दी में भास्कर, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान वगैरह पहले से यह काम करते रहे हैं। पाठकों से जुड़ना और उनकी राय लेना नई बात है भी नहीं। पाठकों के पत्र छापना इसका एक हिस्सा है। मुझे याद है लखनऊ में मैं सप्ताह में एक पेज शहरनामा के नाम से तैयार करता था। यह पूरा पेज पाटकों से प्राप्त सामग्री पर आधारित होता था। नभाटा लखनऊ की जनता अदालत बहुत लोकप्रिय हुई थी। एक जमाने में लखनऊ में टेलीफोन उपभोक्ताओं की शिकायत थी कि उनकी लाइन से एसटीडी पर बाहरी लोग बात करते हैं। इन शिकायतों को सामने लाने के बहुत अच्छे परिणाम सामने आए थे। इसी तरह का प्रयोग था फोटो जो बार-बार छपते हैं। दिल्ली के हिन्दुस्तान में पाठकों के फोटोग्राफ छापने का प्रयोग बहुत सफल रहा।

पाठकों की भूमिका को स्वीकार करने के बावजूद अखबार अपने महत्वपूर्ण सर्वे और रिसर्च में पाठकों की मदद नहीं लेते। मसलन नई जीवंत भाषा के नाम पर अंग्रेजी की खिचड़ी परोसने वाले अखबार अपने पाठकों से साधे राय नहीं माँगते कि भाषा कैसी हो। यों भी पाठकों के पत्रों की जगह सिमट गई है। सच यह है कि पाठक अब पत्र ही नहीं लिखते। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि लिखने का चलन खत्म हो गया है। इसकी वजह यह है कि पाठकों से नए ढंग से जुड़ने का कौशल और इच्छा किसी में नज़र नहीं आती।  फेसबुक और ट्विटर के युग में पाठकों से जुड़ना बेहद आसान है।

संयोग से इन दिनों जो इंटरऐक्टिविटी है वह अंग्रेजी अखबारों की नकल है। अंग्रेजी अखबार अमेरिकी अखबारों की नकल हैं। हिन्दी के अखबार जोक्स और एसएमएस पोल  तो करते हैं, पर जीवन से जुड़े सवालों पर उसकी राय को सामने नहीं ला पाते। प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, अफसरों और संतरियों से लेकर बिजनेस टायकून तक से अच्छा रिश्ता रखना चाहते हैं। जनता को मौज-मस्ती की अफीम पिलाकर सुला देना चाहते हैं। ऐसा कब तक चलेगा?

8 comments:

  1. कन्नड़ प्रभा का यह प्रयोग यदि सभी अखबार खासकर हिंदी अखबार भी अमल में लाएं तो शायद आखबारों के वर्तमान प्रारूप में बहुत खास बदलाव देखने को मिल सकते हैं.
    मेरी नज़र में यह एक बहुत अच्छा आइडिया है पाठकों को अपने अखबार से जोड़े रखने का.

    सादर

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  2. यदि आपकी राय अखबार अमल में लायें तो पाठक और अखबार दोनों को लाभ होगा.

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  3. सर वास्तव मे अगर पाठको से राय ली जाय तो अखबार व पाठको के हित में ही रहेगा. भाषा से लेकर खबरों में गुणवत्ता आएगी. अन्य सुधार भी होंगे.

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  4. एक टिप्पणी सत्येन्द्र ने भेजी थी। वह न जाने कैसे डिलीट हो गई। उसे दुबारा लाने में मुझे सफलता नहीं मिल रही है इसलिए उसे कॉपी करके यहाँ लगा रहा हूँ। मेरी नीचे की टिप्पणी के संदर्भ में वह ज़रूरी है।

    अगर व्यवस्था को दरिद्रोंमुखी बना दिया जायेगा तो फिर इस पूंजीवाद का क्या होगा.
    By satyendra on बजट के अखबार on 3/2/11

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  5. पूँजीवाद को भी उसके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ना चाहिए। शास्त्रीय पूँजीवाद दुनिया में कहीं नहीं है। अमेरिकी राज्य ने तीस के दशक की मंदी में हस्तक्षेप करके बेरोज़गारों और बूढ़ों के लिए पेंशन की व्यवस्था की। वहाँ आम नागरिक के लिए बेहतरीन मुफ्त शिक्षा मिलती है। वहाँ पब्लिक लायब्रेरी फ्री है। बेशक वहाँ निजी पूँजी को बहुत छूट है। और यह बात भी सच है कि वैश्विक पूँजी के प्रवाह में सबसे बड़ा हाथ अमेरिका का है। उसे रोका जा सके और दुनिया में कोई उससे बेहतर व्यवस्था बनाई जा सके तो मैं उसका स्वागत करूँगा। मैं किसी विचार या पार्टी के दायरे में नहीं सोचता। मेरी समझ से व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। ऐसा नहीं होता कि किसी दिन फीता काटकर उनकी स्थापना की जाय। हम यदि अपने जीवन में सामान्य व्यक्ति के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार के सवालों को हल कर सकें तो उससे आगे का काम अगली पीढ़ियाँ भी करेंगी। यह भी ध्यान देना चाहिए कि पूँजीवाद ऐतिहासिक कालक्रम का एक पड़ाव है।

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  6. अख़बारों ने पाठकों से दुरी बना रखी है यह बात बिल्कुल सच है| ऐसे प्रयास अगर किये जाएँ जिससे अखबार के साथ पाठक जुड़ें तो शायद इसमें दोनों का भला होगा|

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  7. वाकई अनूठा प्रयोग....

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  8. सर आपने बहुत अच्छी जानकारी दी.

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