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Tuesday, March 1, 2011

बजट के अखबार

बज़ट का दिन मीडिया को खेलने का मौका देता है और अपनी समझदारी साबित करने का अवसर भी। आज के   अखबारों को देखें तो दोनों प्रवृत्तियाँ देखने को मिलेंगी। बेहतर संचार के लिए ज़रूरी है कि जटिल बातों को समझाने के लिए आसान रूपकों और रूपांकन की मदद ली जाए। कुछ साल पहले इकोनॉमिक टाइम्स ने डिजाइन और रूपकों का सहारा लेना शुरू किया था. उनकी देखा-देखी तमाम अखबार इस दौड़ में कूद पड़े। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास तमाम साधन हैं, पर वहाँ भी खेल पर जोर ज्यादा है बात को समझाने पर कम। अंग्रेजी के चैनल सेलेब्रिटी टाइप के लोगों और राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को मंच देते हुए ज्यादा नज़र आते हैं, दर्शक  को यह कम बताते हैं कि बजट का मतलब क्या है। टाइम्स ऑफ इंडिया की परम्परा बजट को बेहतर ढंग से कवर करने की है। 


एक ज़माने में हिन्दी अखबार का लोकप्रिय शीर्षक होता था 'अमीरों को पालकी, गरीबों को झुनझुना'। सामान्य व्यक्ति यही सुनना चाहता है। अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों की समझदारी का स्तर बेहतर है। साथ ही वे व्यवस्था से ज्यादा जुड़े हैं। उनके लिए लिखने वाले बेहतर होम वर्क के साथ काम करते हैं। दोनों मीडिया में विसंगतियाँ हैं। 


इस बार के बजट की पूरी कवरेज को ध्यान से देखें तो आपको अंतर्विरोध मिलेंगे। अंग्रेजी के एक नामी चैनल ने तमाम विशेषज्ञों को बैठा रखा था। इन विशेषज्ञों की लिखित टिप्पणियाँ हाथों-हाथ स्क्रीन पर आ रहीं थीं। आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का वेतन 1500 से बढ़ाकर 3000 रुपए करने की घोषणा होने पर एक नामी आर्थिक लेखक की टिप्पणी आई। नथिंग अबाउट एबसेंटिज्म ऑफ टीचर्स। एक तो आँगनबाड़ी कार्यक्रम शिक्षा से जुड़ा नहीं है। दूसरे उनके कार्यकर्ताओं के गायब रहने की कितनी शिकायतें हैं, पता नहीं पर मध्यवर्ग की तरफदारी करने वाले लोगों को गरीब को मिलने वाले दो रुपए भी भारी लगते हैं।  

इस बार के बजट से दो तरह की उम्मीदें थीं। एक यह रिफॉर्म की प्रक्रिया को आगे ले जाएगा। दूसरे सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनी नेशनल एडवायज़री काउंसिल के सुझाव अमल में आएंगे। वित्तमंत्री ने दोनों काम किए हैं। रिफॉर्म के बारे में वित्तीय सुधार का बड़ा कार्यक्रम उन्होंने घोषित किया है। बैंकिंग, इंश्योरेंस और पेंशन फंडों से सम्बद्ध कानूनों में बदलाव की शुरुआत हो रही है। डीटीसी और जीएसटी पर काम शुरू हो रहा है। सब्सिडी के मामले में डायरेक्ट कैस ट्रांसफर की योजना पर काम होगा। जनता को नीतियों से असहमति नहीं है। नीतियों को लागू करने की व्यवस्था से असंतोष है। इस बार के बजट में सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में 1 लाख 60 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है, जो जनता पर अब तक का सबसे बड़ा खर्च है। पर आज भी हमारा रक्षा का खर्च इससे कुछ ज्यादा है।  

बजट केवल महंगाई बढ़ाने घटाने की व्यवस्था नहीं है। सामान्य पाठक को यह बताने की ज़रूरत है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं। साधन बढ़ाने के लिए हमें आर्थक विकास करना ही होगा। फिर इन साधनों को जनता पर और देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करना होगा। जनता पर खर्च होता है भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के साधन मुहैया कराने की व्यवस्था पर किया गया व्यय। दो साल पहले सरकार ने आर्थिक मंदी के दौरान उद्योगों को कुछ छूट दी थी। इन छूटों को वापस लेने की जरूरत भी है। लगता है सरकार अभी कुछ समय तक और छूट जारी रखेगी। 

अपने बजट को हमें अपने बदलते परिदृश्य और नए बनते देश के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। टेक्नॉलजी में बदलाव केवल पैसे वालों को ही फायदा नहीं पहुँचाता। इसका फायदा आम जनता को भी होता है। मोबाइल फोन और ई-गवर्नेंस गरीब के मददगार हैं। 

बहरहाल मैने कुछ अखबारों की कवरेज को दर्ज किया है आप भी देखें। दिल्ली के नवभारत टाइम्स ने मुन्नी और शीला का रूपक लिया है। साथ ही यह याद दिलाया है कि नए भारत के 20 बरस हो गए हैं। उसके अनुसार 1991 में हुए बदलाव के कारण भारत सुपर पावर बना। बात आंशिक रूप से ठीक है, पर पूरी तरह से ठीक नहीं। नवभारत टाइम्स की कवरेज और सम्पादकीय टिप्पणियों को मिलाकर पढ़ें तो लगता है कि दोनों के बीच दूरी है। इस अखबार ने सामाजिक कल्याण के खर्च को सही ठहराया है। कुछ अखबार इसे चुनावी चकल्लस मानते हैं। दैनिक जागरण के शीर्षक से लगता है कि  बजट के पीछे राजनैतिक कारण हैं। पर क्या कोई बजट बगैर राजनैतिक कारणों से भी हो सकता है? जनता को पसंद आने वाली बातें बजट में होनी ही चाहिए। एक दो अखबारों ने क्रिकेट के रूपक को पकड़ा है। पर ये बातें पुरानी हो चुकीं हैं कि अब उनमें नयापन नहीं लगता। हिन्दी में दैनिक भास्कर ने बजट को विस्तार से समझाने का प्रयास किया है। अखबार के चार पेज पिंक पेपर पर हैं। बीच के चार पेज खासतौर से बजट को समझाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। यह बेहतर है। हाँ इसकी गुणवत्ता में सुधार की उम्मीद हमेशा बनी रहेगी। भास्कर ने कोई सम्पादकीय बजट पर नहीं लिखा। हाँ पेज एक पर श्रवण जी का साइंड लेख है। सम्पादकीय पेज खत्म करके ज़रूरी होने पर पेज एक पर सम्पादकीय लेख लिखने का वादा करने वाले डीएनए को आज का दिन पेज वन एडिट लिखने के लायक नहीं लगा। हिन्दी के अखबारों के मुकाबले बांग्ला का प्रतिष्ठित अखबार आनन्द बाज़ार पत्रिका काफी सादा है। बहरहाल नीचे देखें आज के कुछ अखबार और उसके नीचे पढ़ें कुछ सम्पादकीय टिप्पणियाँ।

सम्पादकीय लेखन में हिन्दी अखबारों की सरसरी दृष्टि ऐसे मौकों पर दिखाई पड़ती है। इतना ज़रूर लगता है कि देश के मध्यवर्ग को अब समझ में आ रहा है कि समावेशी विकास सिर्फ शब्द नहीं है इसका व्यावहारिक अर्थ है देश में बुनियादी बदलाव। कुछ साल पहले तक जिन कदमों की लोक-लुभावन कहकर उपेक्षा की जाती थी, आज वे महत्वपूर्ण नजर आने लगे हैं। ममता बनर्जी के रेल बजट में गढ़ चिरौली तक ट्रेन ले जाने की बात सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं थी। किसी अखबार ने कृरपोरेट सेक्टर का रोना नहीं रोया है और न सामाजिक क्षेत्र का मज़ाक उड़ाया है। अलबत्ता काले धन को लेकर कुछ करने की हिदायत ज्यादातर ने दी है। भारतीय राजनीति का पैराडाइम बदल रहा है। यह इस बार के बजट का संकेत है। 







कोलकाता का टेलीग्राफ






सम्पादकीय टिप्पणियाँ



अधूरी उम्मीदें 
आम बजट आम आदमी की उम्मीदों पर मुश्किल से ही खरा उतरता है और जब अपेक्षाएं बहुत अधिक हों तो इसके आसार और भी कम हो जाते हैं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने यह स्पष्ट कर दिया कि केंद्र सरकार से नाखुश आम जनता को बजट के जरिये खुश करने का उनका कोई इरादा नहीं था। उनकी ज्यादातर रियायतें एक हाथ से देने और दूसरे हाथ से लेने वाली हैं। बेलगाम महंगाई को देखते हुए आयकर में दी गई छूट एक तरह से न के बराबर ही है। लगता है कि वित्त मंत्री अपने सहयोगियों की इस धारणा से सहमत नहीं कि बढ़ती महंगाई से बुरा और कोई टैक्स नहीं या फिर वह चाहकर भी अपेक्षित रियायतें नहीं दे सके। सच्चाई जो भी हो, इस बजट से केंद्र सरकार के प्रति आम आदमी की नाराजगी दूर होने की संभावना शून्य है। हालांकि वित्त मंत्री ने महंगाई थामने के कुछ उपाय किए हैं, लेकिन समस्या यह है कि इन उपायों के नतीजे मिलने में समय लगेगा और यदि मध्य एशिया में उथल-पुथल के कारण पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढ़े तो इन उम्मीदों पर पानी ही फिरेगा। वित्त मंत्री ने जिन उपायों के जरिये लंबे समय से उपेक्षित कृषि क्षेत्र को सुधारने की पहल की है वे अभी भी अपर्याप्त नजर आ रहे हैं। अच्छा होता कि सरकार कृषि क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव करने का साहस जुटाती और साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया आयाम प्रदान करती। जिस तरह कृषि क्षेत्र में सुधार के उपाय उल्लेखनीय होते हुए भी अपर्याप्त हैं उसी तरह अन्य क्षेत्रों में भी सुधार की झलक ही पेश की गई है। इससे भी अधिक निराशाजनक यह है कि सरकारी खर्चो में कमी लाने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। यह ठीक नहीं कि सार्वजनिक कोष का सबसे अधिक धन खर्च करने वाली सरकार अपने खर्चो पर कटौती करने की कोई प्रतिबद्धता तक व्यक्त नहीं कर रही है। इन स्थितियों में वित्त मंत्री के वायदे के बावजूद इसके आसार कम ही हैं कि वह राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने में वास्तव में सफल हो पाएंगे। सब्सिडी में कटौती कर और राजस्व बढ़ाकर राजकोषीय घाटे में कमी तो दर्शाई जा सकती है, लेकिन इससे अभीष्ट की पूर्ति होने वाली नहीं है। यह आश्चर्यजनक है कि बजट में वित्त मंत्री की ओर से राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने का आश्वासन तो दिया गया, लेकिन इसके लिए कोई ठोस कार्ययोजना प्रस्तुत नहीं की गई। यह भी विचित्र है कि केंद्र सरकार के घपले-घोटाले के आरोपों से घिरे होने के बावजूद वित्त मंत्री ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करते नजर नहीं आए जिससे सरकारी योजनाएं समय रहते सही ढंग से लागू हो सकें और सार्वजनिक कोष के धन की बर्बादी न हो सके। यह समझ आता है कि केंद्र सरकार पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं थी, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि वह आम बजट के जरिए अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करती हुई नजर आए। चूंकि राजनीतिक एजेंडे को प्राथमिकता प्रदान की गई है इसलिए आवश्यक हो चुके आर्थिक सुधार अपेक्षित गति से आगे बढ़ते नजर नहीं आ रहे हैं।



 
गरीब का बजट
सरकार से जनम की अदावत रखने वाले आलोचकों के लिए यूपीए-द्वितीय के तीसरे बजट में जिक्र करने लायक कुछ भी नहीं है। लेकिन जो लोग इस बार के बजट की मुश्किलों से वाकिफ हैं, वे प्रणव मुखर्जी के इस प्रयास को इज्जत की नजर से देखेंगे। पूरी दुनिया में रोलबैक का हल्ला मचा है। खुद भारत सरकार के इकनॉमिक सर्वे में फिस्कल डेफिसिट और करेंट अकाउंट डेफिसिट को लेकर गंभीर चिंता जताई गई थी। 

ऐसे में आशंका यह थी कि इस बार का बजट हर किसी के लिए कुनैन की टिकिया साबित होगा। लेकिन प्रणव दा ने बजट बनाने में सचमुच मेहनत की है और अर्थव्यवस्था के दूरगामी हितों का ध्यान रखने के अलावा समाज के सबसे पिछड़े, उपेक्षित तबकों तक भी इसका कुछ न कुछ फायदा पहुंचाने की कोशिश की है। भारत में महंगाई का मतलब काफी हद तक खाने-पीने की चीजों की महंगाई से है। 

गेहूं-चावल की कीमतें काबू में आती हैं तो दलहन-तिलहन जान लेने लगते हैं। जैसे-तैसे रो-गाकर सब्जियों का इंतजाम होता है तो दूध, मांस, मछली, अंडा जैसी चीजें हाथ से निकलने लगती हैं। इसके पीछे कुछ तो ढांचागत खामियां हैं, लेकिन समस्याओं की सूची में उनका नंबर इन सारी चीजों का उत्पादन कम होने के बाद आता है। इन मुश्किलों पर ध्यान देना सरकार ने पहली बार 2007 के जाड़ों में लगे महंगाई के झटके के बाद शुरू किया था और इस बजट की घोषणाएं इनके सारे पहलुओं को पहले से ज्यादा गंभीरता के साथ संबोधित करती हैं। 

तीन को अपने लिए लकी नंबर बताते हुए प्रणव दा ने कुछ इलाकों को दलहन, तिलहन, मोटे अनाज, डेरी, पोल्ट्री और सब्जियों वगैरह के लिए चुनकर वहां तीन-तीन सौ करोड़ रुपया लगाने को कहा है। आम तौर पर ये इलाके असिंचित हैं और इस सहायता के बाद ये अपनी भूमिका में आ सके तो न सिर्फ इनका भला होगा, बल्कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई से लड़ने का पुख्ता इंतजाम भी हो जाएगा। इस बजट की सबसे बड़ी बात सरकार का उन लोगों के साथ मजबूती के साथ खड़ा होना है, जो अपना हक मांगने के लिए मीडिया में हल्ला मचाने की स्थिति में नहीं हैं। 

तीन लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का वेतन दोगुना करना, मनरेगा की मजदूरी को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ना और 60 साल से ऊपर की आयु के निराश्रितों के लिए 200 के बजाय 500 रुपया पेंशन की व्यवस्था करना स्वागतयोग्य कदम है। लोग भले ही इसे चुनावी चकल्लस कहें, लेकिन यह भारत पर राज करने वाली किसी भी सरकार की जिम्मेदारी है। इसकी आलोचना करने से बेहतर यह होगा कि गैर चुनावी सालों में सरकारें अगर सिर्फ अमीर परस्ती में मशगूल दिखें तो उनका गला पकड़ा जाए।



गरीबों की चिंता, मध्य वर्ग उपेक्षित
वित्त मंत्री आंकड़ों का हेर-फेर नहीं करता, प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी से तो यह उम्मीद नहीं ही की जा सकती।


अगर साढ़े बारह लाख करोड़ रुपये से ऊपर के बजट में नए करों, करों की दर में बदलाव और माफी का हिसाब-किताब आकर मात्र 200 करोड़ रुपये पर टिक जाए, तो इसे वित्त मंत्री की आर्थिक बाजीगरी भर मानना गलत होगा। कोई भी वित्त मंत्री सिर्फ आंकड़ों का हेर-फेर नहीं करता और प्रणब मुखर्जी जैसा अनुभवी और तेज वित्त मंत्री हो, तो यह उम्मीद और भी नहीं की जा सकती। फिर क्या यह चुनाव के मौसम के बगैर चुनावी बजट है? एक अर्थ में ऐसा भी लगता है, क्योंकि सबके लिए कुछ न कुछ करने के साथ लोक लुभावन कार्यक्रमों के लिए खजाना खोल दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र और ग्रामीण विभाग के कई मदों में तो बजट का प्रावधान 30-40 फीसदी तक बढ़ा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और खेती के लिए सरकार की चिंता साफ दिखती है। पौने पांच लाख करोड़ के ऋण के इंतजाम के साथ समय पर ऋण चुकाने वालों को मात्र चार फीसदी के प्रभावी दर पर ऋण उपलब्ध कराना बड़ी बात है। कोल्ड स्टोर से लेकर खेती के अनेक अदानों पर रियायत है और तेलहन-दलहन-सब्जी की खेती को बढ़ाने की योजना है। पूरब में हरित क्रांति लाने पर ज्यादा धन नहीं दिया गया है, लेकिन जिक्र तो है ही। मनरेगा की मजदूरी मुल्क सूचकांक से जुड़ी है, तो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, हेल्पर निहाल होंगे। पर कुछ बहुत साफ बड़े बदलाव हैं-उद्योगों के लिए सरचार्ज एक तिहाई कम हुआ है, एक फीसदी उत्पाद शुल्क ही सही, पर इसके दायरे में लगभग सवा सौ नए उत्पाद आ गए हैं, वैट एक फीसदी बढ़ा है, सेज भी कर के दायरे में आया है। बैंकिंग में निजी क्षेत्र के आने की बात आगे बढ़ी है, तो चालू खाते के बढ़ते घाटे को भरने के लिए साझा कोषों के मार्फत विदेशी पूंजी लाने का रास्ता बनाने की कोशिश है। असल में महंगाई से भी ज्यादा बड़ी चिंता आयात-निर्यात का अंतर संभालने से ऊपर निकलना है। इधर हलका बदलाव है, लेकिन प्रोत्साहन और नीतिगत बदलाव जरूरी है। आयकर की छूट थोड़ी-थोड़ी बढ़ी है। पर संरचना क्षेत्र का बजट एकदम से 23 फीसदी बढ़ाने का मतलब है कि सरकार आर्थिक सुधार के एजेंडे को भूली नहीं है। कहने को वित्त मंत्री ने सरकार की सबसे बड़ी परेशानी भ्रष्टाचार के बारे में भी दो-तीन बातें कीं और संभवत: मनी लाउंडरिंग के मामले में कुछ बात आगे बढ़े, पर संभवत: ये बजट के विषय नहीं थे। सबसिडी सीधे उपभोक्ता के खाते में डालने का प्रयोग भी दिलचस्प होगा, पर सरकार के इस कदम से मध्यवर्ग परेशान होगा। पर प्रणब दा ने महंगाई पर चोट करने और आम आदमी को सीधे कुछ लाभ देने वाले कदमों की घोषणा न करके थोड़ा निराश किया है, जबकि रोजकोषीय स्थिति इसकी अनुमति दे रही थी।






Play safe mode
To be fair, budget-making couldn't have come at a pricklier time, marked by slacking reform, scorching prices and tight monetary conditions. If Budget 2011-12 had to go beyond dry cataloguing of allocation details, tax tweaks and statements of pious intent, it had to avoid lazy assumptions about high growth keeping the economy on autopilot. As also see inflation as a function of production and distribution anomalies. Midpoint in UPA's second stint, this was the finance minister's best chance to boldly seek to rectify the economy's many structural warts. Instead, he plays safe. He's not overly populist. Nor is he resolutely reformist. The Budget, equally, seems all over the place.

With good growth and tax and non-tax revenue windfalls, meeting the 4.6% fiscal deficit target seems doable on paper. But spectrum auction funds won't be a cushion for long and, with a Rs 40,000 crore target, disinvestment will need fast-tracking. Government borrowing fortunately isn't about to balloon as was feared. The market applauded this, as a sign that private players' access to credit won't be choked. Plus assorted tax goodies - hiked income tax exemption limit, trimmed corporate tax surcharge or unchanged excise and service tax rates - are likely to spur consumption and business. A major highlight in the Budget is the strong stress on tax reform. Movement on GST, however, demands political will to not further dilute a system designed to boost compliance and create a much-needed common market. On both direct and indirect taxes, we need to move away from annualised tinkering. The faster the Direct Tax Code and GST are launched, the better.

The nod to direct cash transfers for fuel and fertiliser subsidy also deserves a thumbs-up. But why not cover food? Well-designed delivery systems must combat leakages and waste in all pro-poor schemes, backed by financial inclusion and UID projects. Little mention is made of subsidy reduction, though welfare must start aiming less at dole than empowerment. Higher spends on health, education and infrastructure are welcome, skilled manpower and capacity-building being key to sustaining growth. But non-negotiable expenditure under these heads surely demand better targeting and even moratoriums on others. Mega-schemes like food security need better preparation to be executed well. And, be it schools, hospitals or basic amenities, poor service delivery, not lack of money to throw around, hobbles efforts.

India must nuance its approach to inflation, also issuing from rising demand in a high-growth country. Food subsidy, then, is less a solution than boosted agricultural productivity and marketing avenues. The FM creditably asks all states to get cracking on APMC reform. To overhaul logistics, he also makes cold chains and storage an infrastructure sub-sector to attract funds. But retail liberalisation should've been the big-ticket item here, as an investor-friendly message at a time FDI is on the slide. More so, since the passing reference to putting financial sector reform on the legislative agenda won't overly enthuse investors.

Overall, there's a little something for everybody, from handloom weavers and senior citizens to environmentalists and foreign institutional investors. Taxpayers get relief. Consumers await cheaper mobiles and home loans. Farmers get interest-related subsidy on debt repayment and easier access to credit. Industry is pledged incentives for manufacturing and IT. Small micro-finance borrowers are promised protection. Markets smile with mutual funds accessing foreign funds. And FIIs get raised investment limit in corporate bonds, a fillip to infrastructure. Yet, please-all intentions notwithstanding, the big ideas are missing. If vision makes or breaks budgetary blueprints, Budget 2011-12 disappoints. A fast-growing nation with big dreams needs more than muted signals on reform.



A lacklustre budget
Bereft of any big idea and with its focus on minutiae, the budget presented by Union Finance Minister Pranab Mukherjee disappoints as a political response to the perception of drift and the succession of scams that have emerged in the recent period. The Finance Minister has addressed desultorily three of the four problematical areas of political corruption, the play of unaccounted money in both the economy and the political system, Indian money stashed away in foreign accounts, and high inflation. He has been content with listing the ongoing efforts of the government in detecting and bringing back the money held in illegal foreign accounts, including negotiating tax information exchange agreements and double taxation avoidance treaties, its participation in international moves against tax havens, and the commissioning of a study on unaccounted income and wealth. Among the areas the group of ministers on corruption is examining are state funding of elections, the removal of the discretionary powers of government, and putting in place a competitive system of allocation of natural resources. Only on food inflation has the Finance Minister announced new initiatives and investments to increase the supply of specific food items such as edible oil, vegetables, pulses, and milk.
While the budget seems oblivious to the political context, on the positive side it will facilitate continuing high growth that is projected at 9 per cent for 2011-12. Its revenue-neutral character, the concessions in personal income tax and in corporate tax even if marginal, measures to boost investments in infrastructure and agriculture, the promise of pushing through reform legislation — including the constitutional amendment on the goods and services tax (GST), laws on insurance and pension funds and the new direct tax code — and information technology initiatives to streamline tax administration and the delivery of public services have had a positive impact on business sentiment. The introduction of an integrated GST will be a major move that will bring efficiency gains to the economy as a whole but there is still some way to go before all the States can be persuaded to get on board. The raising of the exemption limit for personal income tax from Rs.1,60,000 to Rs.1,80,000 has brought some cheer, even if it has fallen short of expectations. The lowering of the surcharge on corporate tax from 7.5 per cent to 5 per cent has boosted market sentiment, as have customs and excise duty concessions to specific industries. To raise revenue and also in preparation for the introduction of GST, the service tax net has been widened to include high-end medical and legal services even while retaining the rate at 10 per cent.
The budget has provided for significantly larger outlays on education, health, women and children, affordable housing, the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes, and minorities. Overall social sector spending at Rs.1,60,887 crore will be 17 per cent more than last year, with the outlay on education rising by 24 per cent and on health by 20 per cent. The big idea of food security that was announced in the last budget is still to be operationalised with differences having cropped up between the National Advisory Council and the government on the target group, extent of coverage, and the estimates of the outlays that will be called for. One hopes that this very worthwhile programme will be finalised and put in place over the next few months. Mr. Mukherjee has announced the replacement of the present system of kerosene, LPG, and fertilizer subsidies by direct transfers of cash subsidies to people below the poverty line. It is true that in some contexts, typically in Lain America, direct cash transfers have transformed the delivery system, eliminated leakages, and ensured that the beneficiaries receive the full amount of the subsidy. But serious apprehensions have been expressed by progressive economists that in India, considering the extent of mass deprivation and the actual experience, cash transfers are becoming a substitute for — and even an excuse for weakening — the public provision of essential goods and services.
On the face of it, the government seems to be comfortably placed on the path to fiscal consolidation. The overall fiscal deficit is projected to come down from 5.1 per cent of the gross domestic product (GDP) in the current year to 4.6 per cent in 2011-12. With adjustments to exclude the capital expenditure incurred by the States out of the transfers from the Centre, the ‘effective' revenue deficit is expected to come down from 2.3 per cent of the GDP to 1.8 per cent. Yet, holding down the fiscal deficit may not turn out to be as easy as it is made to sound. If last year there was a bonanza from 3G spectrum auctions that provided headroom for higher spending, the Finance Minister has proposed to raise Rs. 40,000 crore through disinvestment in public sector units in 2011-12 even while holding out the assurance that the government will not relinquish majority stake or management control. In addition to the uncertainty over disinvestment, a major question remains over the impact of the food security legislation. Even on the limited scale that the government wants to launch it, an annual outlay of Rs.68,539 crore (or an additional Rs.11,500 crore over the current food subsidy) would be required. Another imponderable is the trend in crude prices that have risen sharply in recent weeks. Persistent high prices will leave the government with three difficult choices: increasing the retail prices of petrol and diesel, reducing the duties on petroleum products, and forgoing revenue or subsidising the under-recoveries of the oil marketing companies. Overall, it is not a budget that is calculated to capture the imagination of the country even as it has sought to maintain the growth momentum through minor tinkering. Many of the promised measures are not specific enough and are as yet for the future.





FM delivers, over to the House
On the 20th anniversary of reform, Pranab Mukherjee upholds a new roadmap, explaining how much a few good laws can achieve



Union Budget 2011 has many positive elements, is low on bad ideas and pushes the reform agenda ahead. Finance Minister Pranab Mukherjee focused on implementing the many promises made by the UPA in previous years. This bodes well as the pending reforms on the government’s wish list will take plenty of time and effort if they are to be seriously implemented. There is an attempt at fiscal consolidation and controlling expenditure, though there remains the risk that oil prices may make these calculations go haywire. The changes to direct taxes are welcome. The exemption limit needed to be raised to take account of inflation, and the corporate surcharge had to come down. On indirect taxes, the minister did not propose a GST but has taken steps toward the implementation of a GST in 2012. The government will also remain on track on the disinvestment agenda.

What characterised the budget speech, on this 20th anniversary of reform, was the announcement that the unfinished reform agenda would, on many fronts, be completed. To enable the GST, the finance minister said he proposed to introduce a Constitution Amendment Bill in this session of Parliament. He also announced a pilot project with 11 states, using the IT system that is being set up, during this year. Similarly, a large number of financial sector bills are pending. The minister announced that he would move bills such as the Insurance Amendment Bill, the LIC Bill, the revised PFRDA Bill, the Banking Laws Amendment Bill (to allow the Reserve Bank to grant banking licences to private-sector players), the SARFAESI Bill, etc. He proposed to introduce the Public Debt Management Agency of India Bill this year, which would enable the setting up of a Debt Management Office. This has been on the agenda for nearly two years but not much progress has been made beyond setting up a middle office.


The subsidy bill of the government was a budgeted Rs 1 lakh crore for 2010-11. However, the revised estimate shows that the subsidy bill crossed Rs 1.5 lakh crore. The largest element of the subsidy bill that went beyond the budget was the petroleum subsidy. It rose from a budget estimate of Rs 3,108 crore to a revised estimate of Rs 38,386 crore. The food subsidy bill rose from an estimate of Rs 55,578 crore to a revised estimate of Rs 60,599 crore. The fertiliser subsidy bill was estimated to be Rs 49,980 crore, but turned out to be Rs 54,976 crore. The three put together accounted for an increase of nearly Rs 50,000 crore beyond estimates. The risk for the coming year, 2011-12, when oil prices could rise, is large. This could push government expenses beyond budget estimates. One of the most important announcements that could have significant long-run impact is the announcement of the direct transfer of cash subsidies for kerosene and fertilisers to those below the poverty line. As has become apparent, the kerosene subsidy is used to adulterate diesel, and fails to reach its intended beneficiaries. Instead of selling kerosene cheap, if it is sold at market price and the subsidy is given as cash to the targeted group, the poor will benefit, the subsidy bill will come down and the oil mafia could be sidelined. The budget proposes the first step towards a direct transfer of cash subsidy. Once the mechanisms for such cash transfers are put in place, the template can be used for food subsidy.


The budget for 2011-12 has moved ahead on opening up India’s capital account. While no announcement has been made on foreign direct investment, the FM announced that discussions are under way to further liberalise the FDI policy. However, on foreign portfolio investment, important announcements have been made. The recommendations of the finance ministry’s working group on foreign investment, headed by U.K. Sinha, have been implemented. These include opening up the rupee-denominated corporate debt market to FIIs. The limit on purchase of bonds of infrastructure companies has been increased from $5 billion to $25 billion. This means that the limit for FII investment in corporate bonds has suddenly jumped from $20 billion to $40 billion. A doubling of FII investment in corporate bonds will help both the development of the corporate bond market, and India’s infrastructure funding needs. Foreign investors have also been permitted to invest in Indian mutual funds. While currently FIIs and sub-accounts are allowed to invest, the FM announced that other foreign investors who meet Know Your Client norms will also be allowed to invest. These are significant steps towards greater capital-account openness, and will attract long-term capital into the country. And given the legislative support needed for the FM to keep his promises, the budget can be as ambitious as the budget session of Parliament allows itself to be. The UPA’s floor managers have their work cut out.



Building anew
India is on a different trajectory now, as the social-sector spending shows

A Union budget reflects one year’s priorities and spending. But there are longer-term trends to the 2011 Budget statement too, that need to be flagged. There are definite indications of the way in which India is changing and developing as a country and as a polity. Consider this: the allocation for education has been increased by 24 per cent. Sarva Shiksha Abhiyan, of course, is to be expanded. with 40 per cent more. Yes, there are problems with the mechanism of the Right to Education, but there is a larger point to be seen here, too. A point that becomes plainer when we look at the health sector: Plan allocations for health have gone up by 20 per cent, with a corresponding jump in non-plan expenditure, too.
Is India is becoming the sort of country it hoped it could become? According to the ministry of finance, the allocation for the social sector in this budget is Rs 1,60,887 crore. As a bit of perspective, the defence budget is Rs 1,64,415 crore. (Almost Rs 70,000 crore is capital expenditure, and even if a large proportion of that is committed liabilities, that still leaves wiggle room for expenditure.) Defence is not up in real terms, since it has increased by 11 per cent, not that much below the sum of inflation and real growth — and, in any case, what was holding back defence was not the allocation but an unwillingness to buy.

There is little doubt that a changing, growing, maturing India is reflected in these numbers. Perhaps even an expanding conception of where the country stands in the world and what it owes to itself. In a very real sense, the entire trajectory of India’s development has shifted. Of course, the delivery mechanism is a work in progress. But the larger point, that India is becoming the kind of country that takes on the concerns about its own people that major countries should, is worth flagging.











12 comments:

  1. Pramod ji Dhanyavaad jo kal chhoot gaya tha aaj mil gaya....budget par avilable sari samgri ka nichor ek hi jagah dene ke liye fir se dhanya vaad !

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  2. शुक्रिया सर बहुत मदद मिली इस तमाम जानकारी से....

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  3. वाह सारे अखबार एक साथ....वैसे कई तो मैने देखे हैं...
    बहुत अच्छा प्रयास....

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  4. vinay mishra7:49 PM

    sir maja a gaya
    vinay mishra

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  5. बजट को लेकर अख़बारों के कवरेज की भाषा तो समझ में आ गई| लेकिन ऐसे में जब बजट आम आदमी के लिए छलावा बताया जा रहा है तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या बजट, महज एक औपचारिकता होती है?

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  6. मैं इस व्यवस्था से न तो शत-प्रतिशत सहमत हूँ और न इसे छलावा मानता हूँ। समस्या यह है कि आम आदमी और खास आदमी के बीच खाई गहरी है। आम आदमी की व्यवस्था में आंशिक भागीदार है। आम आदमी से मेरा आशय मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग और एकदम दरिद्र वर्ग से है। दूसरी धारणा से आम आदमी एकदम दरिद्र वर्ग से ताल्लुक रखता है। दरिद्र व्यक्ति को उसकी दरिद्रता के जकड़-जाल से बाहर निकालने में मध्यवर्ग की भूमिका भी होती है। वैसे ही जैसे अमेरिका के अश्वेतों को न्याय दिलाने में गोरों की भी भूमिका है या भारत के दलितों को समर्थन में कम ही सही पर कुछ सवर्ण हैं।

    दरिद्रों की बेहतरी के लिए मेरे पास वर्तमान व्यवस्था का फॉर्मूला ही है। इसलिए मेरे विचार से बजट छलावा तो नहीं है। हाँ व्यवस्था को किस तरह दरिद्रोन्मुखी बनाया जाय या साधनहीनों के पक्ष में मोड़ा जाय इसके बाबत कुछ धारणाएं हैं। मध्यवर्ग को जिसमें मैं भी शामिल हूँ प्रेरित किया जाय तो वही कमजोर ततबकों के पक्ष में रासत् बना सकता है। केवल कमजोर लोगों के पास इतनी ताकत नहीं होती कि वे व्यवस्था को बदल सकें। और वे बदल भी दें तो नई व्यवस्था में सबसे आगे आए कुछ लोग पूरी व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेते हैं। मेरे विचार से परम-कमजोर या चरम-दारिद्र्य की परिभाषा पहले बननी चाहिए। उसके बाद कोशिश होनी चाहिए कि उसके नीचे एक भी व्यक्ति न रहे। सभी लोग शिक्षित यानी व्यवस्था को समझने वाले और उसे संचालित करने वाले बन सकेंगे तो व्यवस्था का लाभ उठाने वाले सफल नहीं होंगे। हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। मेरे विचार से राज्य नाम की संस्था के मार्फत ही बदलाव आना है। उसकी किसी भी गतिविधि की अनदेखी का मतलब है आम आदमी का अहित करना।

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  7. यदि आपकी राय अखबार अमल में लायें तो पाठक और अखबार दोनों को लाभ होगा.

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  8. अगर व्यवस्था को दरिद्रोंमुखी बना दिया जायेगा तो फिर इस पूंजीवाद का क्या होगा.

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  9. प्रमोद जी माफ करेंगे आपके ज़वाब से ही कुछ सवाल निकल रहे हैं इसलिए पूछ रहा हूँ|
    आप एक तरफ इस व्यवथा से पूरी तरह सहमत भी नहीं हैं दूसरी तरफ इस व्यवस्था को नकार भी नहीं रहे हैं ऐसे में आपका जो सुझाव है कि परम कमजोर या चरम दारिद्र्य की परिभाषा पहले बननी चाहिए फिर यह देखा जाना चाहिए कि उसके नीचे कोई ना रहे, यह कैसे संभव हो सकता है?
    पिछड़ा, अतिपिछड़ा जैसे वर्गों में अभी भी यह समाज बंटा हुआ है| आरक्षण से लेकर तमाम सुविधाएँ देने की बात होती है ताकि समानता के अधिकार का अनुशरण हो सके| लेकिन ऐसा कुछ होता नही है| आम और खास के बीच खाई से कोई इंकार नहीं करता| इस हालात में अगर समाधान निकालना है तो दो ही रास्ते नज़र आते हैं| एक, या तो हम इस व्यवस्था में जीने के आदि हो जाएँ, जो जिस भी तरह से चल रहा है चलने दें| दूसरा, इस पूरी व्यवस्था को सिरे से नकारते हुए नई सुन्दर, और सुदृढ़ व्यवस्था का निर्माण करें|

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  10. सत्येन्द्र जी मैने आपकी टिप्पणी पर अपनी राय एक दूसरी पोस्ट में लिख दी। उसे यहाँ फिर से दे रहा हूँ।

    पूँजीवाद को भी उसके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ना चाहिए। शास्त्रीय पूँजीवाद दुनिया में कहीं नहीं है। अमेरिकी राज्य ने तीस के दशक की मंदी में हस्तक्षेप करके बेरोज़गारों और बूढ़ों के लिए पेंशन की व्यवस्था की। वहाँ आम नागरिक के लिए बेहतरीन मुफ्त शिक्षा मिलती है। वहाँ पब्लिक लायब्रेरी फ्री है। बेशक वहाँ निजी पूँजी को बहुत छूट है। और यह बात भी सच है कि वैश्विक पूँजी के प्रवाह में सबसे बड़ा हाथ अमेरिका का है। उसे रोका जा सके और दुनिया में कोई उससे बेहतर व्यवस्था बनाई जा सके तो मैं उसका स्वागत करूँगा। मैं किसी विचार या पार्टी के दायरे में नहीं सोचता। मेरी समझ से व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। ऐसा नहीं होता कि किसी दिन फीता काटकर उनकी स्थापना की जाय। हम यदि अपने जीवन में सामान्य व्यक्ति के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार के सवालों को हल कर सकें तो उससे आगे का काम अगली पीढ़ियाँ भी करेंगी। यह भी ध्यान देना चाहिए कि पूँजीवाद ऐतिहासिक कालक्रम का एक पड़ाव है।

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  11. तूफान आकर तबाही मचाए तो उसे कौन पसंद करेगा? तूफान के रहने तक कोई नया संसार रचाया जा सके या तूफान को रोका जा सके तो उससे बेहतर क्या है? रहना उसमें है तो उसके अनुसार अपनी हिफाज़त करनी होगी और आगे जीवन चलाने का इंतजाम करना होगा। मैं नहीं जानता अंतर्विरोध शब्द का अर्थ आप क्या मानते हैं, पर मैं मानता हूँ कि जीवन अंतर्विरोधों से भरा है। मेरी राय से चरम दरिद्रता को खत्म किया जाना चाहिए। और यह सम्भव है। बेशक हमारा समाज अनेक स्तरों पर विभाजित है। और भी अनेक सवाल हैं। बजट हमारी इस व्यवस्था का व्यवहारिक रास्ता है। यह पूरे साल करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित करेगा। इसमें क्या किया जा सकता था उसपर मैने अभी ज्यादा बात भी नहीं की है। बजट को इस गहराई से अभी मैने पढ़ा भी नहीं है। पर इसे जो छलावा कहते हैं उनके पास भी तर्क होंगे। मैं उन बातों से अभी अपरिचित हूँ।

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  12. प्रमोद जी तूफान आकर तबाही मचाये यह तो कोई पसंद नही करेगा लेकिन तूफान आने की संभावना को जानते हुए भी उसे रोकने का कोई प्रयास ना करना उचित नही है|
    समाज में व्याप्त हर प्रकार के असमानता के खात्मे का पक्षधर मैं भी हूँ लेकिन वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के सीमित सोच में ऐसा करना मुमकिन प्रतीत नही होता|
    बजट तो बात करने का एक जरिया है सवाल पुरे सिस्टम पर उठ रहे हैं|

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