ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।
जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश
गिरिजेश कुमार
“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |
उसने सुसाइड नोट के जरिये समाज और परिजनों के बीच सवाल खड़ा किया है | अंत में लिखा है “अगर बच्चे लड़ाई करते हैं तो बड़े समझाते हैं और अगर बड़े कुछ करें तो उनको कौन समझाएगा?”
उसने सुसाइड नोट के जरिये समाज और परिजनों के बीच सवाल खड़ा किया है | अंत में लिखा है “अगर बच्चे लड़ाई करते हैं तो बड़े समझाते हैं और अगर बड़े कुछ करें तो उनको कौन समझाएगा?”
यह कहानी किसी एक पिंकी की नहीं बल्कि पूरे समाज की है |
पिछले डेढ़ महीने में नौ छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या कर ली | यह सारी घटनाएँ बिहार की राजधानी पटना में घटित हुई हैं | इन सारी घटनाओं के कारणों की ओर ध्यान दिया जाए तो यह बात सामने आती है कि इनमे से ज्यादातर छात्र मानसिक रूप से परेशान थे | हताशा, निराशा, और किस्मत की बेवफाई से तंग आकर खुद की इहलीला समाप्त कर ली | एक और गौर करने वाली बात है कि इनमे से ज्यादातर दसवीं से बारहवीं कक्षा के छात्र हैं | ये स्थिति आज पुरे देश की है | सवाल उठता है आखिर वो कौन सी परिस्थितियाँ हैं जिनसे जूझने के बजाये छात्र आत्महत्या करना बेहतर समझते हैं? आँखों में एक सपना लिए जो छात्र दूर दराज़ के गाँवों से शहर में आते हैं, जिंदगी की जद्दोजहद के बीच वो कौन सी कड़ियाँ हैं जिन्हें ये जोड़ने में असफल रह जाते हैं? जिन कन्धों पर देश का भविष्य है उनके कंधे अगर ज़िम्मेदारी लेने से पहले ही टूट जाएंगे तो आनेवाला भविष्य निश्चित ही ऐसे अन्धकार में डूब जायेगा जिसकी कल्पना शायद हम नहीं कर सकते | एक सभ्य, सचेत और जागरूक नागरिक होने के नाते इसकी गहराई से पड़ताल हमें करनी ही होगी | एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अमेरिका की तुलना में लड़के-लड़कियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति में 75% की बढ़ोत्तरी हुई| ध्यान देने वाली बात यह है कि अधिकांश छात्र शहरों से आते थे, तो क्या शहरों की चकाचौंध मे और ज़िदगी की भागदौड के बीच आज के युवा कहीं गुम होते जा रहे हैं? सर्वश्रेष्ठ करने की चाह लिए ये युवा सर्वश्रेष्ठ न कर पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं? और सबसे बडा सवाल तो ये है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? कोई सिस्टम को गलत मनता है तो कोई मा -बाप को जिम्मेदार ठहराता है | सही मायने में देखा जाए तो दोनो बराबर के दोषी हैं मूलतः यह हमारे पारिवारिक और सामाजिक परिवेश के सिकुड़ते हुए दायरों के परिणाम है| पारिवारिक और सामाजिक मुल्यों मे गिरावट और अत्यन्त महत्वाकंक्षाओं का बोझ बच्चों पर लादकर जीवनयापन करना इसका एक प्रमुख कारण है| इसके लिए विद्यालय और शिक्षक भी जिम्मेदार है| साथही मा -बाप कि अपेक्षाएं बच्चों से इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि वे १००%से नीचे कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नही होते | इससे उनके ऊपर क्या असर पड़ता है इसके तरफ झाँकने की कोशिश भी कोई नही करता |
हाल के दिनों में टीन एज के बच्चों में बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति पर मनोवैज्ञानिकों की माने तो घर और समाज में बढते तनाव का यह नतीजा है| टीन एज के बच्चों में मानसिक और शारीरिक बदलाव होते हैं इसलिए उन्हें भावनात्मक सपोर्ट की ज़रूरत होती है | इस तरह की प्रवृत्ति रोकने के लिए यह ज़रुरी है कि अभिभावक अपने बच्चों का मन आहिस्ता- आहिस्ता टटोलें |
यह तबतक होता रहेगा जबतक हम अपने आप मे बदलाव नही लाएंगे | इसलिए अगर हम ऐसी घटनाओं पर रोक लगाना चाह्ते हैं तो हमे सबसे पहले आपने आप को बदलना होगा | माँ -बाप को बच्चों के लिए समय निकालना पड़ेगा| उनकी समस्याएं सुननी पड़ेंगी तभी इसका समाधान सम्भव है |
क्या शहरों की चकाचौंध मे और ज़िदगी की भागदौड के बीच आज के युवा कहीं गुम होते जा रहे हैं? सर्वश्रेष्ठ करने की चाह लिए ये युवा सर्वश्रेष्ठ न कर पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं? और सबसे बडा सवाल तो ये है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? कोई सिस्टम को गलत मनता है तो कोई मा -बाप को जिम्मेदार ठहराता है | सही मायने में देखा जाए तो दोनो बराबर के दोषी हैं मूलतः यह हमारे पारिवारिक और सामाजिक परिवेश के सिकुड़ते हुए दायरों के परिणाम है|
ReplyDelete''लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे'' ऐसी समझाइश और फिर आत्महत्या, आश्चर्य.
ReplyDeleteबिलकुल सही मुद्दे को उठाया है गिरिजेश भाई ने.
ReplyDeleteप्रमोद जी, बिल्कुल सही सवाल उठाया है-"उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं?"
ReplyDeleteराहुल जी,मैं भी आश्चर्यचकित हूँ जिस लड़की के अंदर इतनी छोटी सी उम्र में इतनी बड़ी समझदारी हो उसने ऐसा कदम कैसे उठाया? निश्चित ही उसके धैर्य की चरमसीमा पार हो गयी होगी| जो समाज के लिए और दुखद है|
सार्थक चेतावनी है.लोगों को सम्हालना चाहिए.समाज में धन का महत्त्व जब तक अधिक रहेगा तब तक समाधान नहीं हो पायेगा.इसलिए लेखक -गण विशेष ध्यान दें .
ReplyDeleteसारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती...
ReplyDelete@यशवंत जी,विजय जी, सुनील जी, आप सबों का बहुत बहुत शुक्रिया| आपने पढ़ा और विचारों से अवगत कराया|
ReplyDeleteवंदना जी, आपको भी धन्यवाद देना चाहूँगा इस ओर ध्यान देने के लिए|चर्चा मंच पर ज़रूर आऊंगा|
बच्चों कों बहुत प्यार से पालने की ज़रुरत है । घर की कलह-क्लेश उनके नाज़ुक मन कों बहुत गहरे तक प्रभावित करती है । जब माता-पिता कों खुशहाल देखते हैं तभी बच्चों का सही विकास होता है ।
ReplyDeleteअभिभावकों को बच्चों को अच्छा वक़्त देना ही होगा ...झगडे मनमुटाव हर घर में होते हैं , हो सकते हैं मगर बच्चों के मन में यह विश्वास पैदा होना चाहिए की यह स्थिति बस कुछ पल की ही है !
ReplyDelete