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Wednesday, December 1, 2010

पुराने स्टाइल का मीडिया क्या परास्त हो गया है?

आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? क्या है नए स्टाइल का जर्नलिज्म? सागरिका घोष की बात से लगता है कि नया मीडिया। यानी सोशल मीडिया, ट्विटर वगैरह।


नया मीडिया और उसकी तकनीक समझ में आती है, पर नई स्टाइल क्या? नई स्टाइल में दो बातें एकसाथ हो रहीं हैं। एक ओर पता लग रहा है कि पत्रकार और स्वार्थी तत्वों की दोस्ती चल रही है, दूसरी ओर ह्विसिल ब्लोवर हैं, नेट पर गम्भीर सवाल उठाने वाले हैं। दोनों में ओल्ड स्टाइल और न्यू स्टाइल क्या है? दोनों बातें अतीत में हो चुकी हैं। हमने बोफोर्स का मामला देखा। हर्षद मेहता  और केतन मेहता के मामले देखे। कमला का मामला देखा, भागलपुर आँखफोड़ मामला देखा। यह भारत में हिकीज़ जर्नल से लेकर अब तक पत्रकारिता की भूमिका यही थी। नयापन यह आया कि मुख्यधारा का मीडिया यह सब भूल गया। कम से कम नए मीडिया ने यह बात उठाई। ओल्ड स्टाइल जर्नलिज्म को न्यू मीडिया ने सहारा दिया है।

सागरिका का एक सवाल यह भी है कि सिटिज़न जर्नलिज्म के सामने आने के बाद क्या मुख्यधारा के जर्नलिज्म की ज़रूरत खत्म हो गई। टीएन नायनन की बात ठीक है कि विकीलीक्स के लाखों दस्तावेज पढ़ने और उन्हें समझने के लिए पाठक न्यूयार्क टाइम्स पढ़ेगा। बेशक जर्नलिज्म के लिए एक जिम्मेदारी और प्रशिक्षण की दरकार है। इसकी ज़रूरत आने वाले वक्त में और ज्यादा होगी।

हिन्दी पत्रकार के रूप में मेरी परेशानी यह  है कि यह मसला अभी हिन्दी मीडिया में चर्चा का विषय नहीं बना। क्यों नहीं बना? कोई बताएगा।

  जर्नलिज्म नहीं मरेगा। लोकतंत्र नई शक्ल लेगा। इट इज़ ओल्ड इन ए न्यू फार्म।

वीडियो देखें
नए स्टाइल का मीडिया बनाम पुराना मीडिया

3 comments:

  1. Sahi kha apne .is samay media apni bhumika lgatar tlash rha hai ,aur isi aro avroh me iske vividh roop dekhne ko mil rhen hain.

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  2. मुझे लगता है हिन्दी पत्रकारिता में या तो बिल्कुल सतही काम हो रहा है या फिर एक दम से गरिष्ठ चिंतन वाला काम हो रहा है,, इसी वजह से यह मुद्दा हिन्दी में चर्चा का विषय नहीं बन पाया है। हिन्दुस्तान में तो हिन्दी मीडिया अधिकांशतया अंग्रेजी या तथाकथित नेशनल मीडिया का पिछलग्गु सा बना हुआ है।

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  3. ट्विटर आदि को जर्नालिस्म या पत्रकारिता नहीं कहा जाना चाहिए.व्यवसायीकरण के कारण हिन्दी पत्रकारिता भले ही पुरानी गरिमा खो रही हो ,परन्तु इसे परास्त भी नहीं माना जा सकता.

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