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Wednesday, December 1, 2010

अब यह भी तो पता लगाइए कि टेप किसने जारी किए


पत्रकारिता और कारोबारियों के बीच रिश्तों को लेकर हाल में जो कुछ हुआ है उससे हम पार हो जाएंगे। पर शायद अपनी साख को हासिल नहीं कर पाएंगे। यह बात काफी देर बाद समझ में आएगी कि साख का भी महत्व है। और यह भी कि पत्रकारिता दो दिन में स्टार बनाने वाला मंच ज़रूर है, पर कभी ऐसा वक्त भी आता है जब चोटी से जमीन पर आकर गिरना होता है। बहरहाल अभी अराजकता का दौर है।


इमर्जेंसी के बाद से हमारी पत्रकारिता में पक्षधरता का सवाल कई बार उठा है। इमर्जेंसी के बाद काफी एक्टिविस्ट पत्रकार सामने आए। उन पत्रकारों की जन-पक्षधरता और ईमानदारी पर संदेह नहीं है, पर एक्टिविस्ट और पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों में फर्क होता है। एक्टिविस्ट किसी का समर्थन या विरोध करते वक्त एक पक्षकार होता है। पत्रकार को काफी हद तक तटस्थ रहना होता है। उसे तथ्यों की पवित्रता और दो-तीन या इससे भी ज्यादा पक्षों की धारणा को सामने लाना होता है। एक्टिविस्ट का परम सत्य कार्ल मार्क्स, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, महात्मा गाँधी, आम्बेडकर,  जवाहर लाल नेहरू या किसी और नेता के किसी उद्धरण पर जाकर खत्म होता है। पत्रकार की आब्जेक्टिविटी सिद्धांततः तथ्यगत होती है। हमारे चारों ओर उपरोक्त वर्णित विचारकों के समर्थक या विरोधी होते हैं। ऐसे लोग भी होते हैं, जो किसी के समर्थक या विरोधी नहीं होते।

व्यावहारिक जीवन में हमें ज्यादातर लोग एक्टिविस्ट नजर आते हैं। वे अपनी धारणाओं पर टिके रहना चाहते हैं। यह गलत नहीं है, पर इनमें से काफी लोग दूसरी धारणाओं को पूरी ईमानदारी से जानना भी चाहते हैं। यह जानकारी देना एक दूसरे प्रकार के कौशल की माँग करता है। पत्रकार को जीवन के हर क्षेत्र को रिपोर्ट करना या उसके बारे में कोई दृष्टिकोण रखना चाहिए। इसलिए उसे हर तरह के व्यक्तियों और संस्थाओं से मिलना होगा। ऐसा करते वक्त अक्सर वह अपनी भूमिका को भूल जाता है। फिर ज़रूरी नहीं कि वह पत्रकारिता के दायित्वों को ठीक से समझता हो। उसे अपना व्यवहार ठीक लगता है।

मंगलवार की रात एनडीटीवी ने बरखा दत्त पर केन्द्रित एक कार्यक्रम पेश किया। करीब 48 मिनट के इस कार्यक्रम के  बारे में शुरू में कहा गया कि यह अ-सम्पादित है। इसे एनडीटीवी की मैनेजिंग एडीटर सोनिया सिंह ने पेश किया। इसमें बरखा दत्त के अलावा दिलीप पडगाँवकर, स्वपन दासगुप्ता और ओपन पत्रिका के सम्पादक मनु जोज़फ ने भाग लिया। आउटलुक के सम्पादक नें निमंत्रण के बावजूद इसमें भाग नहीं लिया।

इस बातचीत का उद्देश्य इस प्रकरण को लेकर बरखा और एनडीटीवी की स्थिति को साफ करना लगता था, पर पारदर्शिता के लिहाज से यह अच्छी कोशिश थी। बहरहाल कार्यक्रम में बातचीत का स्तर बहुत ऊँचा नहीं उठ पाया। बरखा के अनुसार उनसे अनजाने में कुछ गलतियाँ हो गई हैं, पर यह उससे ज्यादा कुछ नहीं है। वे यह साफ नहीं कर पाईं कि उन्होंने नीरा राडिया और सरकार बनाने में पीआर एजेंसियों की इतनी अच्छी जानकारी होने के बावजूद खबर बनाना ठीक क्यों नहीं समझा। वे बार-बार कहती रहीं कि मुझे यह खबर लायक बात नहीं लगी। 


इसी तरह स्वपन दासगुप्ता ने अपना उदाहरण देकर कहा कि मुझे भाजपा के करीब माना जाता है। कई बार कुछ लोगों को भाजपा नेतृत्व तक बात पहुँचानी होती है तो वे मेरे माध्यम से पहुँचाना चाहते हैं। कहीं नीरा राडिया बरखा को कांग्रेस के करीबी होने के नाते अपनी बात नेतृत्व तक तो नहीं पहुँचाना चाहती? बरखा ने इस बात का जवाब भी नहीं दिया। कांग्रेस या भाजपा या सीपीएम के करीब होने में भी दोष नहीं है, पर पत्रकार को अपने क्रेडेंशियल साफ रखने चाहिए। हम स्वयं को तटस्थ घोषित करते हैं तो उसका निर्वाह भी करना चाहिए। 


बहरहाल मनु जोज़फ को क्या अब यह खोज नहीं करनी चाहिए कि जिसने भी उन्हें टेप दिए उसका उद्देश्य क्या है। अच्छी पत्रकारिता तो अब तभी होगी जब हम इन बातों को सामने लाने की कोशिश करें। सामने लाना मुश्किल नहीं है। वस्तुतः सामान्य पत्रकार के पास इतने किस्म की जानकारियाँ होती हैं कि वह उन्हें कवर करने लायक नहीं समझता। हमने बहुत सी बातों को अंतिम मान लिया है। यों भी अब अखबार सच को सामने लाने में दिलचस्पी नहीं रखते। बरखा दत्त की दिलचस्पी ओपन पत्रिका की पोल खोलने में ज्यादा नज़र आती थी।    


कई बातें आने वाले वक्त में सही या गलत साबित होंगी। बहुत सी बातें हमारे पर्सेप्शन की हैं। पत्रकारिता के नए स्कूल क्या मानते हैं, यह भी वक्त तय करेगा, पर पत्रकारों और पीआर, बिजनेस और दलालों के रिश्ते कैसे होने चाहिए इसपर हमें विचार करना चाहिए। इधर का चलन है कि धंधा सबसे ऊपर है। हिन्दी में यह चलन बहुत ज्यादा है। ऐसा लगता है कि कारोबारी लोग दरोगाओं और मुख्यमंत्रियों को पटाने के लिए हिन्दी के पत्रकारों का इस्तेमाल करते हैं और केन्द्र के सत्ताधारियों से सम्पर्क के लिए अंग्रेजी बोलने वालों का। कारपोरेट जगत में प्रतिद्वंदिता भी बढ़ रही है। हम सावधान नहीं रहेंगे तो गच्चा खाएंगे। मीडिया-मैनेजरों और खासकर मीडिया स्वामियों को पत्रकारीय-नैतिकता की पाठशालाओं में भी जाना चाहिए। उन्हें समझ में आएगा कि पुराने पत्रकार  किस वजह से अपने फ्लोर पर पीआर एजेंसियों के कदम पड़ने नहीं देते थे।   

 वीडियो देखें 

6 comments:

  1. यक़ीनन कार्यकर्म की शुरुआत से ऐसा लगा जैसे बरखा उसे अपने मुताबिक संचालित करना चाह रही है....लगा नहीं वे इस की एक हिस्सा है .संचालित करने वाली नहीं ....पहली बार वे असहज ...कई जगह इगोइस्ट लगी ...खास तौर से जब वे जोजफ को कहती है के तुम्हे मालूम नहीं राजनीती की पत्रकारिता कैसे करते है ....उनका ये व्योव्हार देखकर दुःख हुआ ... फोन सुनकर ऐसा ही लगा क्यों कोई आदमी आपको इस काम के लिए अप्रोच करने लायक समझता है ?क्यों उस व्यक्ति की हिम्मत इतनी है वो आपको इस मुद्दे पर सीधे एप्रोच करता है.जाहिर है थोडा विश्वास तो हिला है ......

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  2. एक समय वह था जब आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी ने रेलवे की नौकरी छोड़ कर २० रु . मासिक पर सरस्वती का संपादक होना स्वीकार किया था क्योंकि उनके अनुसार साहित्य में वह शक्ति होती है जो टॉप -तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती.
    लेकिन आज कल सब कुछ पैसे का खेल है ,पैसे की मान्यता है तो नैतिकता की उम्मीद ही क्यों ?

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  3. Anonymous5:05 PM

    These tapes were circulating for many months now and no media had the guts to publish them. Open must be congratulated. NDTV credibility was hugely dented and N Ram in a TV programme on CNN-IBN said in any respected media organisation like the BBC, FT or NYT such a compromised journalist will be sacked immediately. Someone said it was leaked through the Mittals of Airtel. I don't know if that's true or false.

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  4. बिक चुके हैं ये मीडियाकर्मी भी । बड़े लोगों में उठने -बैठने से ये भी ही प्रोफाइल हो गए हैं। कोई सरोकार नहीं इन्हें आम जनता से।

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  5. जिस बात से आप चिंतित हो रहे है वह वाजिब है लेकिन गंगा का प्रदुषण तो बढ़ रहा है . कहाँ से शुरू करेंगे इसे सामंतवाद की पुरातन व्यवस्था की पौध तो सबसे ज्याद पत्रकारिता में है , मैनेजरिंग का वह उभरता हुआ गढ़ है, बाकी आपसे क्या कहे आपसे बेहतर कौन जनता है . रही बात गच्चा खाने की तो शायद इस पहलू को भी किसी और नज़र से देख रहे हों, उसे मैं कह नहीं सकता ....

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  6. lekin barkha jaise logo ka bahiskar bhi to nahin kiya gaya.... hai kisi mein dam?

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