फुटबॉल पर युरोप का कब्ज़ा है। युरोप के अलावा लैटिन अमेरिका की टीमें हीं इस कप को जीत पाईं हैं। गैर-लैटिन अमेरिकी और गैर-युरोपीय टीम इसके क्वार्टर फाइनल में भी पहुँच जाएं तो बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। 1930 से अबतक अमेरिका और द कोरिया की टीमें एक-एक बार सेमीफाइनल तक पहुँचीं हैं। इनके अलावा क्यूबा, मैक्सिको, अमेरिका, उत्तरी कोरिया, केमरून और सेनेगल को ही क्वार्टर फाइनल तक पहुँचने का मौका मिला है।
गैर-लैटिन अमेरिकी और गैर-युरोपीय टीमों मे से 1966 में उत्तरी कोरिया ने क्वा फा तक पहुँच कर धमाका किया था। फिर 1990 में केमरून ने अपने पहले ही मैच में पिछली चैम्पियन अर्जेंटीना को हराकर सबको दहला दिया। इसके बाद इसने रूमानिया और सोवियत संघ को हराया। क्वा फा में यह टीम दुर्भाग्य से इंग्लैंड से हार गई।
फीफा वर्ल्ड कप का फॉर्मेट ऐसा है कि उसमें शामिल होने वाली 32 टीमों से 13 युरोप की होतीं हैं। यह फॉर्मेट भी 1998 से लागू हुआ है। उसके पहले 1978 तक 16 टीमों का और 1982 से 1994 तक 24 टीमों का फॉर्मेट था। बहरहाल युरोप और लैटिन अमेरिका के बाद अब अफ्रीका तीसरी बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है और इसका प्रमाण है कि दुनिया की सारी लीग प्रतियोगिताओं में अफ्रीकी मूल के खिलाड़ी खेलते हैं। विश्व कप में शामिल होने वाली ज्यादातर टीमों में अफ्रीकी खिलाड़ी मिलेंगे। पैसे ने बेहतर खिलाड़ियों को खरीद लिया है।
बहरहाल इस बार सवाल है कि क्या अफ्रीकी खिलाड़ी अपनी ज़मीन पर चमत्कार करेंगे। मैं आने वाले दिनों में सभी टीमों के बारे में अपना आकलन और अपडेट देने की कोशिश करूँगा। मैं खेल विशेषज्ञ नहीं हूँ। पर खेल के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर ध्यान देता हूं। अमेरिकी पत्रकार फ्रंकिलन फोय ने अपनी किताब हाउ सॉकर एक्सप्लेन्स द वर्ल्डः एन अनलाइकली थ्योरी ऑफ ग्लोबलाइज़ेशन में फुटबॉल के खिलाड़ियों और दर्शकों की ट्राइबल मनोवृत्ति पर रोशनी डाली है। मौका लगा तो उसकी चर्चा भी करेंगे।
इसबार मैदान में विभिन्न टीमें और उनके ग्रुप इस प्रकार हैः-
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