नवोदय टाइम्स में 8 नवंबर 2025 को प्रकाशित लेख का संवर्धित संस्करण
‘वोट चोरी’ के आरोपों पर ध्यान नहीं दें, तब भी मतदाता सूचियों में गड़बड़ियाँ हैं। ये गड़बड़ियाँ क्या सरकार
और चुनाव आयोग की मिलीभगत की वजह से हैं? ऐसा है, तो फिर यह लोकतंत्र
को कलंकित करने वाली घटना है, पर ‘साज़िश’ का आरोप मामूली बात नहीं है। इसकी पड़ताल होनी ही चाहिए। साज़िश साबित नहीं हुई और प्रशासनिक-अव्यवस्था,
अकुशलता या ज्यादा से ज्यादा विघ्नसंतोषियों की साज़िश साबित हुई, तब क्या होगा?
सवाल यह भी है कि कौन करेगा, इसकी जाँच? वस्तुतः यह मसला चुनाव-सुधारों और खासतौर से
चुनाव-आयोग को स्वतंत्र संस्था बनाने से जुड़ा है। क्या देश के राजनीतिक दल इन
दोनों बातों से सहमत हैं? इसे भी याद रखना चाहिए कि ज्यादातर चुनाव-सुधार
से जुड़े काम, राजनीतिक दलों के अड़ंगों के बावज़ूद हुए हैं।
राहुल गांधी दो बार पीपीटी प्रेजेंटेशन कर चुके हैं। बुधवार को प्रेस कांफ्रेंस में उनसे पूछा गया कि आप इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में क्यों नहीं ले जाते, इसपर उन्होंने कहा, सुप्रीम कोर्ट सहित सब देख रहे हैं। हम यह सब बंद कमरे में नहीं कर रहे हैं। मीडिया के सामने कर रहे हैं। यह चुनाव आयोग का डेटा है, हमारा नहीं। अगस्त में राहुल गांधी ने कर्नाटक के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची को लेकर कहा था कि आयोग और बीजेपी की मिलीभगत से ‘वोट चोरी’ हुई है। अब हरियाणा का मामला उन्होंने उठाया है।
राहुल की
दिलचस्पी सूचियों तक सीमित नहीं है। उनका मसला है ‘साज़िश।’ वे चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने आप
इसपर विचार करे। इससे पहले,
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को
लेकर वे ऐसे ही आरोप लगा चुके हैं। संसद में भी इस मामले को उठाया गया, पर विधिमंत्री
ने पुराने उदाहरण का हवाला देते हुए कहा कि चुनाव आयोग के कामकाज पर संसद में बहस संभव
नहीं। राहुल उन सब मंचों पर जा रहे हैं, जिनकी प्रतिध्वनि मीडिया में होती है, पर
अदालत और चुनाव आयोग से आधिकारिक शिकायत नहीं करते। क्या मीडिया समस्या का समाधान करेगा?
समस्या क्या है? काम
करने वालों की अकुशलता या किसी की योजनाबद्ध भूमिका? कर्नाटक में मतदाताओं के
नाम कटवाने के प्रसंग से किसी योजना का संकेत भी मिलता है। नाम
कटवाने की व्यवस्था भी बहुत आसान थी, जिसे अब बदला गया है। सवाल है किसकी
योजना? ऐसा लगता है कि आयोग
से जुड़े लोगों ने कुछ मामलों में हस्तक्षेप करके नाम कटने से रोके भी हैं। कुछ
मामलों में एफआईआर
भी हुई हैं। बहरहाल इसे स्वीकार करना चाहिए कि सिस्टम में छिद्र हैं।
देश में व्यवस्था बहुत तेजी से बदल रही है, पर डिजिटाइज़ेशन के साथ चौकस परफैक्शन
नहीं है। यूपीआई पेमेंट ने जीवन आसान किया, फ्रॉड भी बढ़े हैं। ड्राइविंग लाइसेंसों, आधार कार्डों, राशन कार्डों और यहाँ तक कि
पासपोर्टों तक में गड़बड़ियों की खबरें हैं। किसी ने समय लगाकर ऐसी पीपीटी क्यों
नहीं तैयार की, जिससे कोई बड़ी तस्वीर बनती? चुनाव के साथ सत्ता की राजनीति जुड़ी है, जो बनते-बिगड़ते माहौल पर निर्भर
होती है।
इस बात की पड़ताल होनी ही चाहिए कि मतदाता
सूचियों का मामला क्या है। जिम्मेदार लोगों को सज़ा देने की ज़रूरत भी है। कौन दूर
करेगा इन दोषों को और कौन देगा सज़ा? राहुल गांधी ने आयोग और
सरकार दोनों को कठघरे में खड़ा किया है। दोनों से शिकायत है, तो अदालत में जाना होगा।
ऐसा न करके उन्होंने मीडिया के मार्फत ‘हाइड्रोजन बम’ चलाया
मशीनरी का दोष है, तो उसमें सुधार होना चाहिए,
पर राहुल गांधी की दिलचस्पी राजनीतिक माहौल में है। वैसे ही जैसे
भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल ने घूसखोर मंत्रियों की
सूचियाँ जारी की थीं और माहौल बनाया था। उसका फायदा 2014 के चुनाव में बीजेपी को
मिला।
लगता है कि लड़ाई राजनीतिक मैदान पर ही होगी,
कानूनी मोर्चे पर नहीं। देखना यह भी होगा
कि वोटर पर ऐसी बातों का कितना असर होता है। बिहार के चुनाव का प्रस्थानबिंदु यही विषय
था, पर प्रचार के दौरान यह मसला गायब रहा। अब 14 को परिणाम आने के बाद पता लगेगा
कि इसने राजनीति पर असर डाला भी या नहीं।

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