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Wednesday, October 22, 2025

फ्रांचेस्का ऑर्सीनी के प्रवेश पर रोक


हिंदी की अग्रणी विद्वान और लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस) की प्रोफेसर एमेरिटा फ्रांचेस्का ऑर्सीनी के देश में प्रवेश करने से रोक लगाने की कार्रवाई चिंता पैदा कर रही है। एक अखबार की रिपोर्ट के अनुसार गृह मंत्रालय के एक अधिकारी का दावा है कि उनकी पिछली यात्राओं के दौरान ‘वीज़ा शर्तों का उल्लंघन’ ही उन्हें देश में प्रवेश देने से इनकार करने का आधार है। इस विषय में सरकार को जल्द से जल्द पूरी जानकारी सामने रखनी चाहिए।

यह बात समझ में नहीं आती। वे साधारण महिला नहीं हैं। यदि वीज़ा को लेकर कोई तकनीकी दिक्कत थी, तो उसका पता इस तरह से अचानक नहीं लगना चाहिए था। अभी तक ऑर्सीनी की ओर से कोई बात सामने नहीं आई है, पर जो भी हुआ है, वह दुखद और निंदनीय है। वापस जाने वाली फ्लाइट में सवार ऑर्सीनी से कोई टिप्पणी नहीं मिल पाई, लेकिन द वायर ने पहले उनके हवाले से कहा था कि उन्हें दिल्ली एयरपोर्ट पर रोके जाने का कोई कारण नहीं बताया गया। उन्होंने कहा, ‘मुझे निर्वासित किया जा रहा है। मुझे बस इतना ही पता है।’

ऑर्सीनी के पति पीटर कोर्निकी, जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में जापानी भाषा के एमेरिटस प्रोफेसर और ब्रिटिश अकादमी के फैलो हैं। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से पुष्टि की कि ऑर्सीनी हांगकांग से दिल्ली आई थीं और उन्हें हांगकांग वापस भेज दिया गया। उन्होंने कहा कि इसके पीछे कोई कारण नहीं बताया गया।

वीज़ा उल्लंघन के आरोपों के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने कहा कि उन्हें ‘इन मामलों की कोई जानकारी नहीं है।’ यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने हाल में भारत में किसी सम्मेलन में भाग लिया है, उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी किसी भी बात की जानकारी नहीं है। मूल रूप से इटली की रहने वाली ऑर्सीनी ने हिंदी में स्नातक की पढ़ाई पूरी की, बाद में उन्होंने दिल्ली में केंद्रीय हिंदी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्ययन किया।


ऑर्सीनी ने 'द हिंदी पब्लिक स्फीयर 1920-1940: लैंग्वेज एंड लिटरेचर इन द एज ऑफ नेशनलिज्म' नामक पुस्तक लिखी है, जो 2002 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित हुई थी और यह उनके पीएचडी के दौरान एसओएएस में किए गए शोध का हिस्सा थी। इस पुस्तक में उन्होंने पत्रिकाओं और साहित्य के माध्यम से उन दशकों के राष्ट्रवाद के संदर्भ में हिंदी भाषा का परीक्षण किया है। इसका हिंदी में अनुवाद नीलाभ ने किया है, जिसका वाणी ने 2011 में प्रकाशन किया। मुझे थोड़ी हैरत हुई कि स दौरान हिंदी के लेखक भी अंगरेजी किताब का ज़िक्र कर रहे हैं, हिंदी पुस्तक का नहीं। मुझे नहीं लगता कि इसे अंगरेजी में भी हिंदी वालों ने ज्यादा पढ़ा है, बहरहाल।  

ऑर्सीनी 2013-14 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रैडक्लिफ संस्थान में फैलो थीं। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय और एसओएएस में अध्यापन किया, और संस्थान के साथ तीन दशकों से अधिक समय तक जुड़े रहने के बाद, 2021 में वहाँ से सेवानिवृत्त हुईं।

उनका भारत से चार दशक से भी ज़्यादा पुराना नाता रहा है, उन्होंने यहीं हिंदी का अध्ययन किया है। वे समकालीन और मध्यकालीन हिंदी साहित्य की विद्वान हैं। उनका ज़्यादातर साहित्य मौखिक है, इसलिए वे लोगों से बातचीत करती थीं, जानकारी इकट्ठा करती थीं और विद्वानों से मिलती थीं। उन्होंने कई विद्वानों का मार्गदर्शन भी किया है और ग्रंथों का अनुवाद भी किया है। यह उनकी सामान्य वार्षिक यात्राओं में से एक थी,’ दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर और ऑर्सीनी के एक मित्र ने नाम न बताने की शर्त पर बताया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के पूर्व प्रोफेसर आलोक राय ने, जो ऑर्सीनी को दशकों से जानते हैं, कहा, ‘वे हिंदी सीखने भारत आईं और उन्हें इस देश से प्यार हो गया। उनका पहला बड़ा काम हिंदी के सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण पर था, और फिर उन्होंने उससे भी आगे बढ़कर काम किया। उन्होंने पुराने ग्रंथों पर विस्तृत पाठ्य-लेखन किया है और वे एक बहुत ही बारीकी से लिखी जाने वाली पाठ्य-विद्या हैं। वह उर्दू की भी विद्वान हैं... और उन्होंने फ़ारसी का अध्ययन भी किया है।’

ऑर्सीनी ने पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली में दास्तानगोई कलेक्टिव द्वारा आयोजित 'पूरब: एक बहुभाषी साहित्यिक इतिहास' विषय पर दूसरा शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी स्मृति व्याख्यान दिया था। उन्होंने 2020 में डॉ बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली और दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य इतिहास और विश्व साहित्य पर व्याख्यान दिए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में, उन्होंने मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत पर व्याख्यान दिया था। उन्होंने 2021 में विकासशील समाज अध्ययन केंद्र में 'हिंदी अंतरराष्ट्रीयता: साहित्य और शीत युद्ध' विषय पर बीएन गांगुली स्मृति व्याख्यान ऑनलाइन दिया था। इस दौरान वीरेंद्र यादव ने उनका एक इंटरव्यू किया था, जो तद्भव पत्रिका के अंक 50 में प्रकाशित हुआ था।

संभव है कि इस दौरान उनके वक्तव्यों से कोई राजनीतिक ध्वनि आई हो, पर इसमें हैरत की बात नहीं होनी चाहिए। विद्वानों के विचारों को सुनना और उनपर मनन करना चाहिए। इस पोस्ट के साथ मैं ओर्सीनी के एक ऑडियो इंटरव्यू की फाइल भी लगा रहा हूँ। उसे भी सुनिए।  


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