अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप और एलन मस्क के बीच चल रहा वाग्युद्ध भारतीय मीडिया की दिलचस्पी का विषय साबित हुआ है, पर इस दौरान भारतीय विदेश-नीति के दृष्टिकोण से कुछ दूसरी घटनाएँ ज्यादा महत्वपूर्ण हुई हैं.
इनमें सबसे महत्वपूर्ण
है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कनाडा-यात्रा को लेकर चल रहे संदेहों का दूर
होना. अब 15-17 जून के बीच जी-7 देशों की कनाडा के कैनानैस्किस में होने वाली शिखर
बैठक में, पीएम मोदी भी शामिल होंगे. 2019 से जी-7 की हरेक शिखर-बैठक में पीएम
मोदी को भी आमंत्रित किया जाता रहा है, पर इसबार के निमंत्रण को लेकर संदेह था.
बहुत कम भारतीय प्रधानमंत्रियों ने कनाडा की यात्रा की है. बतौर पीएम कनाडा की दो बार यात्रा करने वाले मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे. उनसे पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2010 में कनाडा गए थे. बावजूद इसके भारत-कनाडा रिश्ते रूखे ही रहे.
2014 में जीतने के बाद
नरेंद्र मोदी ने इन रिश्तों को जोर-शोर से रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिश की. 2015
की यात्रा के दौरान ट्रूडो के पूर्ववर्ती स्टीफन हार्पर और मोदी ने दोनों देशों के
बीच स्ट्रैटेजिक-पार्टनरशिप की बुनियाद डालने की कोशिश की, पर ऐसा संभव नहीं हुआ,
क्योंकि तब तक ‘खालिस्तान फैक्टर’ का जन्म हो चुका था. ट्रूडो के
दौर में रिश्ते खराब ही रहे.
कार्नी का निमंत्रण
अब वहाँ सत्ता-परिवर्तन
के बाद संभावनाओं के द्वार फिर से खुलते दिखाई पड़ रहे हैं. बैठक में शामिल होने के
लिए कनाडा के नए पीएम मार्क जे कार्नी ने पिछले शुक्रवार को पीएम मोदी से फोन पर
बात की और उन्हें आमंत्रित किया. बैठक के दौरान दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच सीधी
मुलाकात भी होगी.
शुक्रवार शाम को पीएम
मोदी ने सोशल मीडिया साइट एक्स पर लिखा कि
कनाडा के पीएम मार्क जे कार्नी से बात करके बहुत खुशी हुई. उन्हें हाल में संपन्न चुनाव पर बधाई दी और इस महीने कैनानैस्किस में
होने वाली जी-7 सम्मेलन में आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद दिया.
पीएम मोदी का यह संदेश
इस बात की तरफ इशारा करता है कि कनाडा की नई सरकार का रवैया जस्टिन ट्रूडो की सरकार
से अलग है. इसके पहले खबरें थीं कि कनाडा में रह रहे खालिस्तानियों ने अपनी सरकार
से आग्रह किया था कि भारतीय पीएम को आमंत्रित न करें.
कनाडा की
आंतरिक-राजनीति
पीएम मोदी को न्योता
देने के फैसले पर कनाडा के राजनीतिक दल एनडीपी के अलावा वर्ल्ड सिख ऑर्गनाइजेशन ने
सवाल उठाए हैं. प्रधानमंत्री मार्क कार्नी से एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सवाल किया
गया कि गत वर्ष रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस ने कहा था कि भारत सरकार कनाडा में
हिंसा फैलाने के पीछे है, जिसमें हत्या भी शामिल है. फिर
आपने मोदी को जी-7 में क्यों बुलाया?
कार्नी ने कहा, कनाडा जी-7 के अध्यक्ष की भूमिका में है. भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे
बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसलिए उसका जी-7 की मेज़ पर होना ज़रूरी है. उन्होंने यह भी
कहा कि जी-7 के सहयोगियों के साथ हुई चर्चा में इस बात पर सहमति बनी कि एनर्जी,
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, अहम खनिज जैसे
महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण देशों को आमंत्रित करना
ज़रूरी है.
हरदीप सिंह निज्जर की 18
जून 2023 को कनाडा में एक गुरुद्वारे की पार्किंग में हमलावरों ने गोली मारकर
हत्या कर दी गई थी. निज्जर खालिस्तान टाइगर फोर्स के प्रमुख थे और इसके सदस्यों के
संचालन, नेटवर्किंग, प्रशिक्षण और वित्तीय
सहायता देने में सक्रिय रूप से शामिल थे.
पिछले साल 18 सितंबर को
कनाडा की संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि निज्जर की हत्या
के पीछे भारत सरकार की संभावित संलिप्तता के आरोपों की जाँच की जा रही है.
अब कार्नी से ये सवाल
किया गया कि क्या उन्हें लगता है कि हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत की
भूमिका है? इस पर कनाडाई पीएम ने कहा, यह एक क़ानूनी प्रक्रिया है, जो अभी चल रही है. जांच
पर कोई टिप्पणी करना सही नहीं है.
संबंधों में सुधार
आंतरिक राजनीतिक दबाव के
बावज़ूद कार्नी ने पीएम मोदी को आमंत्रित करके इस बात का संकेत ज़रूर दिया है कि
वे दोनों देशों के रिश्तों में आए तनाव को खत्म करना चाहते हैं. इसके पहले
विदेशमंत्री एस जयशंकर और कनाडा की विदेशमंत्री अनिता आनंद के बीच भी टेलीफोन-वार्ता
हुई थी.
इतना स्पष्ट है कि
ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और कनाडा में खालिस्तान समर्थकों का समूह कमजोर नहीं हुआ है.
कनाडा में कार्नी के पीएम बनने के बाद भी खालिस्तान समर्थकों की गतिविधियां जारी
हैं.
पिछले हफ्ते कयास लगाए
जा रहे थे कि कनाडा में हो रहे जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में भारत के
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित नहीं किया जा रहा है. इसका अर्थ लगाया गया
कि कनाडा में सत्ता-परिवर्तन होने के बावजूद भारत के साथ रिश्तों में खलिश बाकी
है.
प्रधानमंत्री मोदी का यह निजी मामला नहीं है. कनाडा के खालिस्तानी यदि
सक्रिय हैं, तो यह भारत के राष्ट्रीय-हितों से जुड़ा मसला है. सवाल है कि भारत के
हित-संरक्षण की जिम्मेदारी सभी दलों की है या नहीं? यदि सबकी जिम्मेदारी है, तो भारत के ‘विश्वगुरु’ संबोधन का मज़ाक बनाने का प्रयास क्यों
किया जाता है?
राजनीतिक पेच
विदेश-नीति और आंतरिक
राजनीति के अंतर्संबंधों को लेकर जो सवाल इस दौरान उठे हैं, वे गंभीर विमर्श की
माँग करते हैं. ये सवाल खासतौर से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत के
सर्वदलीय शिष्टमंडलों की विदेश-यात्रा, मोदी की कनाडा-यात्रा और भारत-अमेरिका
रिश्तों को लेकर उठे हैं.
जैसे ही लगा कि
प्रधानमंत्री मोदी की कनाडा-यात्रा नहीं होने वाली है, कांग्रेस सांसद जयराम रमेश
ने 3 जून को सरकार पर निशाना साध दिया. उन्होंने कहा कि यह एक और बड़ी डिप्लोमैटिक-चूक
है. एक्स पर एक पोस्ट में रमेश ने कहा कि छह साल में पहली बार भारत शिखर सम्मेलन
में शामिल नहीं होगा.
इसके पहले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद जब भारत सरकार ने बहुदलीय शिष्टमंडलों को दुनिया के देशों में
भेजने का फैसला किया, तब उसमें शामिल सदस्यों के नाम को लेकर राजनीतिक-टिप्पणियाँ
हुईं. खासतौर से कांग्रेस पार्टी के शशि थरूर, सलमान खुर्शीद और मनीष तिवारी के
नामों को लेकर विवाद खड़ा हुआ.
इनकी सिफारिश पार्टी ने नहीं की थी, पर इनके अनुभव को देखते हुए इनका चयन
गलत भी नहीं था. इनके चयन का मसला हवा में था कि विदेश में इनके कुछ बयानों को
लेकर फिर राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ. शशि थरूर और सलमान खुर्शीद ने अनुच्छेद 370 और
कुछ दूसरे पर जो बयान दिए, जो आंतरिक राजनीति से जुड़े थे. इन बयानों को पार्टी-लाइन
से हटकर माना गया.
राजनयिक जटिलताएँ
इन बयानों को लेकर जब तीखी प्रतिक्रियाएँ हुईं, तब पत्रकारों ने शशि थरूर की
प्रतिक्रिया ली. थरूर ने कहा, 'जो लोग राष्ट्रीय
हित में काम करने को पार्टी-विरोधी गतिविधि समझते हैं, उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए.'
हालांकि कांग्रेस ने पहलगाम हमले के बाद कहा था कि सरकार जो भी कदम उठाएगी,
उसका हम समर्थन करेंगे, पर सुरक्षा और इंटेलिजेंस रिपोर्टों को लेकर फौरन सवाल
उठाए. बीजेपी पर सेना की उपलब्धि का राजनीतिक लाभ उठाने का आरोप भी लगाया.
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भी पार्टी के सवाल जारी रहे. वहीं थरूर
ने कहा कि राष्ट्रीय हित और भारत की
वैश्विक छवि को मज़बूत करना किसी भी राजनेता का प्राथमिक कर्तव्य है. उन्होंने कहा,
'भारत का आतंकवाद के ख़िलाफ़ कड़ा रुख पूरी तरह
उचित है.' इस बयान से भारत की विदेश-नीति का समर्थन
होता है, जो कांग्रेस की आधिकारिक लाइन नहीं है.
थरूर ने एक और जगह कहा,'…यह समय दलीय
राजनीति से ऊपर उठने का है.' दूसरी तरफ
कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार पर तीखे-प्रहार कर रही है. उसकी आलोचनाओं का
पाकिस्तानी चैनलों पर प्रसारण होता है.
राजनीतिक-निष्ठा
सलमान खुर्शीद ने कहा, 'जब हम आतंकवाद के
खिलाफ भारत का संदेश दुनिया तक ले जा रहे हैं, तो यह दुखद है कि घर में लोग राजनीतिक निष्ठाओं का हिसाब लगा रहे हैं. क्या
देशभक्त होना इतना मुश्किल है?' मनीष तिवारी ने
भी राष्ट्रीय हितों और आतंकवाद-विरोधी नीतियों को लेकर पार्टी लाइन से हटकर कई
बयान दिए.
इस दौरान कांग्रेस प्रवक्ताओं ने कहा कि प्रतिनिधिमंडलों ने चीन का नाम तक
नहीं लिया. चीन, पाकिस्तान की मदद कर रहा है. उन्होंने
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भी आलोचना नहीं की, जो बार-बार दावा कर रहे
हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम मैंने कराया.
बैकरूम बातें
डिप्लोमेसी में सारी
बातें इतनी खुली नहीं होतीं, जितनी बाहर से समझी जाती हैं. बहुत सी बातें बैकरूम
होती हैं. चीन का नाम लेने
और ट्रंप को मुँहतोड़ जवाब देने में भारत की हिचक क्या है, इसे क्या हम राजनीतिक
बयानों से समझेंगे?
कम से कम शशि थरूर और
सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता इस बात को बेहतर समझते हैं. जिस वक्त यूपीए के
शासन में पूर्वी लद्दाख पर चीनी घुसपैठ का मामला हुआ था, सलमान खुर्शीद ही
विदेशमंत्री थे. उसके बाद वे चीन गए थे.
पाकिस्तान की पीठ पर चीन
का हाथ है, इसे कौन नहीं जानता. सच यह भी है कि भारत और चीन के बीच करीब 100 अरब डॉलर
का कारोबार होता है. जहाँ तक आलोचना की बात है, जर्मन अख़बार फ्रैंकफर्टर अलगेमाइन
ज़ाइटुँग से विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा, पाकिस्तान के पास
शस्त्र-प्रणालियाँ चीन की हैं और दोनों देश बहुत करीब हैं. आप इससे अपने निष्कर्ष
निकाल सकते हैं.
राष्ट्रीय हित
यही बात तुर्की पर लागू
होती है. पाकिस्तान के साथ टकराव के बाद देश में तुर्की के बहिष्कार की बातें होने
लगीं, पर गहराई से देखें, तो ऐसा करना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा. तुर्की के साथ
भारत का भारत 2.73 अरब डॉलर का व्यापार सरप्लस है.
हमें अपने निर्यातकों के
हितों को भी ध्यान में रखना होगा. कारोबारी प्रतिबंधों से कठोर संदेश ज़रूर जाएगा,
पर देखना यह भी होगा कि हम उसे कितनी दूर तक ले जाएँगे.
जहाँ तक ट्रंप के
बार-बार बयान की बात है, भारत ने भी संजीदगी के साथ एक से ज्यादा बार कहा है कि
लड़ाई ट्रंप के कहने पर नहीं, पाकिस्तान के घुटने टेकने पर रुकी है.
विदेश-यात्राएँ
बयानों के आगे-पीछे की
बातों को भी पढ़ना चाहिए. सबसे ज़रूरी बात है राष्ट्रीय-हित. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के राजनयिक
संदेश को ले जाने के लिए भारतीय शिष्टमंडलों ने यात्राएँ पूरी कर ली हैं.
यह संदेश सिर्फ़ विदेशी
सरकारों के अलावा उनके सांसदों, मीडिया और जनता के लिए भी था,
खासकर उन देशों के लिए जहाँ हमें अपेक्षित समर्थन नहीं मिला.
पाकिस्तान इस समय
सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य है, जिसका लाभ उसने उठाया. पहलगाम हत्याकांड के
फौरन बाद सुरक्षा-परिषद के बयान में संशोधन कराने में पाकिस्तान सफल हो गया. हमले
की ज़िम्मेदारी लेने वाले टीआरएफ का नाम बयान में शामिल नहीं हो पाया.
दूरगामी निगाहें
इन दौरों का लाभ किस हद
तक मिला, यह विश्लेषण का विषय है, पर इसके मंतव्य पर प्रहार करना गलत है. भारत
सरकार ने अपने दूतों को समझदारी से चुना, ताकि देश की
सकारात्मक और बहुलवादी छवि पेश की जा सके जो आतंकवाद के खिलाफ़ है. इसे
राजनीतिक-विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए.
विदेश-नीति को घरेलू राजनीति प्रभावित करती है, लेकिन विदेश-नीति का घरेलू
राजनीति में इस्तेमाल राष्ट्रहित में नहीं होता. डिप्लोमेसी बहिर्मुखी होती है.
उसका दर्शक वर्ग अंतरराष्ट्रीय समुदाय है, जिसमें मित्र और विरोधी दोनों शामिल हैं. वहाँ हमें अपने सामूहिक-हितों की
रक्षा करनी होती है.
इसे खेल की भाषा में समझें. राष्ट्रीय-प्रतियोगिताओं में हम अलग-अलग टीमों
में रहते हुए एक-दूसरे के विरुद्ध खेलते हैं, पर जब राष्ट्रीय टीम बनती है, तब हम
मिलकर देश की टीम के लिए खेलते हैं.
राजनीतिक दलों के हित भी होते हैं. उनकी गतिविधियों से उनकी साख बनती या
बिगड़ती है. विदेश-नीति में भी उनके नीति-विषयक दृष्टिकोण अलग हो सकते हैं, पर
वृहत अर्थ में राष्ट्रीय-हितों पर मोटी सहमति तो होती ही है. मसलन पहलगाम की हिंसा
का समर्थन कौन करेगा?
समय के साथ बहुत सी परिभाषाएँ बदल भी रही हैं, जिनमें विदेश-नीति और
घरेलू-राजनीति का द्वंद्व भी शामिल है. फिलहाल यह द्वंद्व बढ़ रहा है.
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