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Wednesday, December 11, 2024

सीरिया में असद के पराभव का संदेश और उभरते नए ख़तरे


सीरिया में 2011 से चल रहे गृहयुद्ध में करीब चार साल के ठहराव के बाद हाल में अचानक फिर से लड़ाई शुरू हुई और देखते ही देखते वहाँ बशर अल-असद की सरकार का पतन हो गया. गौरतलब है कि सत्ता-परिवर्तन सहज और शांतिपूर्ण हुआ है. यानी कि असद की सेना ने किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया. 

इतनी तेजी से हुए इस सत्ता-परिवर्तन से पश्चिम एशिया के हालात में बड़े बदलावों की उम्मीद की जा रही है. इसके पहले लक्षण इसराइल-सीरिया सीमा पर दिखाई पड़े, जहाँ इसराइली सेना ने विसैन्यीकृत बफर जोन पर कब्ज़ा कर लिया. अभी तक वहाँ संयुक्त राष्ट्र की सेना गश्त करती थी. इसराइली प्रधानमंत्री ने कहा है कि दोनों देशों के बीच 50 साल पुराना समझौता भंग हो गया है. 

रूस में शरण

रविवार को रूस के विदेश मंत्रालय ने कहा कि बशर अल-असद ने अन्य प्रतिभागियों के साथ बातचीत के बाद पद और देश छोड़ दिया और सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के आदेश दिए हैं. इसके बाद देर रात रूसी समाचार एजेंसियों ने क्रेमलिन के एक सूत्र का हवाला देते हुए बताया कि असद और उनका परिवार रूस पहुँच गया है और उन्हें वहाँ शरण दी गई है. 

Wednesday, December 4, 2024

बांग्लादेश की विसंगतियाँ और भारत से बिगड़ते रिश्ते

हिंदू-प्रतिरोध

गत 5 अगस्त को बांग्लादेश में शेख हसीना के पराभव के बाद से उसके और भारत के रिश्ते लगातार तनाव में हैं. कभी आर्थिक, कभी राजनयिक और कभी दूसरे कारण इसके पीछे रहे हैं. अभी स्पष्ट नहीं है कि वहाँ की राजनीति किस दिशा में जाएगी, पर इतना साफ है कि देश का वर्तमान निज़ाम भारत के प्रति पिछली सरकार की तुलना में कठोर है. 

अंतरिम सरकार शेख हसीना को भारत में शरण देने की आलोचना करती रही है और संभव है कि निकट भविष्य में वह औपचारिक रूप से उनके प्रत्यर्पण की माँग करे. अगस्त में हुए सत्ता-परिवर्तन को पश्चिमी देशों का समर्थन प्राप्त था, क्योंकि वे शेख हसीना के तौर-तरीकों से सहमत नहीं थे. पर क्या वे इस देश के और दक्षिण एशिया के अंतर्विरोधों को समझते हैं? यूनुस को अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार और बांग्लादेश के इस्लामिक कट्टरपंथियों ने कुर्सी पर बैठाया है. अब चीन ने भी इस्लामिक कट्टरपंथियों से संपर्क स्थापित किया है. 

जमात-ए-इस्लामी

कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि बांग्लादेश की राजनीति में इस समय वास्तविक ताकत जमात-ए-इस्लामी और हिफ़ाज़ते इस्लाम के हाथों में है. अंतरिम सरकार में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन अहम भूमिका निभा रहे हैं. डॉ यूनुस की सरकार केवल शेख हसीना को ही नहीं, शेख मुजीबुर रहमान को भी फासिस्ट बता रही है. 

अगस्त में शेख हसीना के विरुद्ध हिंसक आंदोलन में जमात-ए-इस्लामी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. शेख हसीना के कार्यकाल में जमात पर पाबंदी थी, जिसे डॉ यूनुस के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार ने हटा लिया. जमात-ए-इस्लामी वैचारिक रूप से मिस्र के कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी के बेहद करीब है. उसका पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी निकट-संबंध है. 

महाराष्ट्र ने बदल दी राष्ट्रीय-राजनीति की दिशा

हरियाणा के बाद महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को मिली भारी विजय ने लोकसभा चुनाव में लगे झटके को काफी हद तक कम कर दिया है। इन परिणामों से पार्टी कार्यकर्ता के मनोबल बढ़ा है, वहीं ‘इंडिया’ गठबंधन के पैरोकार हताश होने लगे हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में नौ में से सात सीटें जीतकर पार्टी ने अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरी को मात दी है, जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। हालांकि उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस पार्टी शामिल नहीं थी, पर बिना चुनाव लड़े ही वह राज्य में एक कदम और पीछे चली गई है। यदि उसने अपनी रणनीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया, तो वह हमेशा के लिए समाजवादी पार्टी की पिछलग्गू बनकर रह जाएगी। 

महाराष्ट्र और झारखंड दोनों राज्यों ने प्रो-इनकंबैंसी वोट दिया है। इनमें महिलाओं और दूसरे सामाजिक-वर्गों की भूमिका है, जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है। दोनों राज्यों के चुनाव-परिणामों को समझने के अलावा उत्तर प्रदेश में हुए नौ उपचुनावों के परिणामों और उसके कुछ समय पहले हुए हरियाणा (और कश्मीर के जम्मू क्षेत्र) के परिणामों के निष्कर्षों को समझने की ज़रूरत भी है। इन सभी परिणामों की वर्ष के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के परिणामों के साथ तुलना की जानी चाहिए। इसके बाद ही राष्ट्रीय-राजनीति की भावी दशा-दिशा के बारे में अनुमान लगाए जा सकते हैं।

Thursday, November 28, 2024

सुलगता पश्चिम एशिया और इस्लामिक-देशों की निष्प्रभावी-एकता


अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद सऊदी अरब की राजधानी रियाद में पिछले 11 नवंबर को हुए अरब और इस्लामी देशों के सम्मेलन को लेकर इस्लामी देशों में ही काफी चर्चा हो रही है. खासतौर से इस बात को लेकर कि इस्लामिक-देशों की कोशिशें सफल क्यों नहीं हो पाती हैं?

यह सम्मेलन ग़ज़ा और लेबनान में इसराइली सैनिक कार्रवाइयों को रोकने के लिए अमेरिका पर दबाव डालने के इरादे से ही बुलाया गया था. माना जाता है कि इस मामले में अमेरिका के नए प्रशासन के दृष्टिकोण पर बहुत कुछ निर्भर करेगा. 

यह शिखर सम्मेलन काहिरा स्थित अरब लीग और जेद्दा स्थित ओआईसी की रियाद में हुई इसी तरह की बैठक के एक साल बाद हुआ. उस सम्मेलन में भी मुस्लिम देशों ने गज़ा में इसराइली कार्रवाइयों की निंदा करते हुए उसे ‘बर्बर’ बताया था.

इसबार के सम्मेलन के प्रस्ताव को देखने पर पहली नज़र में लगता है कि इसमें इसराइल की निंदा-भर्त्सना करने में इस्लामिक देशों ने अपनी एकता ज़रूर साबित की है, पर ऐसी कोई व्यावहारिक योजना पेश नहीं की है, जिससे लड़ाई रुके या फलस्तीन की समस्या का दीर्घकालीन समाधान हो सके.  

सम्मेलन का प्रस्ताव 

सम्मेलन में गज़ा और लेबनान पर इसराइल के फौजी हमले को तत्काल रोकने की माँग की गई है. अलग-अलग देशों के नेताओं ने अपने भावुक भाषणों में इसराइली सेना के ‘भयानक अपराधों’, ‘नरसंहार’ और गज़ा में ‘जातीय सफाए’ की निंदा की और इन मामलों की ‘स्वतंत्र, विश्वसनीय’ अंतरराष्ट्रीय जाँच की माँग की. 

सम्मेलन के समापन के बाद जारी एक बयान में कहा गया कि सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी पक्ष फलस्तीनी लोगों को उनके वैध और अविभाज्य राष्ट्रीय अधिकारों को साकार करने और सभी प्रासंगिक संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों को लागू करने का दृढ़ता से समर्थन करते हैं. 

हालात की माँग है कि भारत और चीन के संबंध सुधरें


भारत और चीन के संबंधों को लेकर पिछले कुछ महीनों में हुई गतिविधियों से यह स्पष्ट संकेत मिला है कि दोनों देशों के बीच बिगड़े संबंध अब सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं, पर यह साफ नहीं है कि सुधार की पहल भारत की ओर से हुई या चीन की ओर से. या फिर दोनों देश अपने अनुभवों को देखते हुए समझौते की मेज पर आए हैं.

एक महीने पहले 21 अक्तूबर को दोनों देशों ने एलएसी पर टकराव के दो बिंदुओं, देपसांग मैदानों और डेमचोक में गश्त व्यवस्था पर एक समझौता किया है. उसे देखते हुए लगता है कि वहाँ अप्रेल 2020 से पहले की स्थिति या तो बहाल हो गई है, या जल्द हो जाएगी. 

उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच रूस के कज़ान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के हाशिए पर मुलाकात हुई. इन दोनों बातों के अलावा विदेशमंत्री एस जयशंकर ने बताया कि दोनों देशों ने रिश्तों को सुधारने की दिशा में कुछ नए कदम उठाने का फैसला किया है. 

चीनी नज़रिया

हाल में भारतीय पत्रकारों की एक टीम को बुलाकर चीन ने उन्हें अपना दृष्टिकोण समझाने की कोशिश की. अंग्रेजी के एक अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, ‘चीनी अधिकारियों, व्यापारिक समुदाय के सदस्यों, तथा सरकारी थिंक टैंकों और मीडिया संगठनों के साथ हुई बैठकों का यह संदेश स्पष्ट था कि चीन रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहता है.’

‘अधिकारियों ने अपनी ‘इच्छा-सूची’ बताई: देशों के बीच ‘सीधी उड़ानें’ फिर से शुरू करना, राजनयिकों और विद्वानों सहित चीनी नागरिकों पर वीजा प्रतिबंधों में ढील, चीनी मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध हटें, चीनी पत्रकारों को भारत से रिपोर्टिंग करने दी जाए और चीनी सिनेमाघरों में अधिक भारतीय फिल्में दिखाने की अनुमति मिले आदि.’

Wednesday, November 13, 2024

दक्षिण एशिया की प्रगति के लिए ज़रूरी है ‘आपसी संपर्क’

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर हाल में दो खबरों ने ध्यान खींचा है. पहली है लाहौर के पर्यावरण के संबंध में पाकिस्तान के पंजाब राज्य की कोशिशें और दूसरी दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्तों को फिर से कायम करने के सुझाव से जुड़ी है. एक और खबर भारत-अफगानिस्तान रिश्तों को लेकर भी है.

भारत और पाकिस्तान के बीच दशकों से तनावपूर्ण संबंध हैं, लेकिन जैसे-जैसे ज़हरीली हवा का मुद्दा सामने आ रहा है, दोनों पड़ोसियों को अपनी साझा जिम्मेदारी पर भी विचार करना पड़ रहा है.

Wednesday, November 6, 2024

अमेरिकी-चुनाव की भारतीय संगति और विसंगतियाँ


सब कुछ सामान्य रहा, तो अगले 24 से 48 घंटों में पता लग जाएगा कि अमेरिका के अगले राष्ट्रपति की कुर्सी किसे मिलेगी. इस चुनाव पर सारी दुनिया की निगाहें हैं. अमेरिका की विदेश-नीति में भले ही कोई बुनियादी बदलाव नहीं आए, पर इस चुनाव के परिणाम का कुछ न कुछ असर वैश्विक राजनीति पर होगा.  

अमेरिकी चुनाव भी दूसरे देशों की तरह जनता की ज़िंदगी और सरोकारों से जुड़ा होता है. इसमें भोजन और आवास, रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमत, और गर्भपात कानून वगैरह शामिल हैं. खासतौर से मुद्रास्फीति और ब्याज की दरें. विदेश-नीति इसमें इसलिए आती है, क्योंकि उसका असर अंदरूनी-नीतियों पर पड़ता है.

Wednesday, October 30, 2024

बेहद जोखिम भरी राह पर बढ़ता पश्चिम एशिया


पहले ईरान के इसराइल पर और अब ईरान पर हुए इसराइली हमलों के बाद वैश्विक-शांति को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. एक तरफ लगता है कि हमलों का यह क्रम दुनिया को एक बड़े युद्ध की ओर ले जा रहा है. दूसरी तरफ दोनों पक्ष सावधानी से नाप-तोलकर अपने कदम बढ़ा रहे हैं, जिससे इस बात का संकेत मिलता है कि मौके की भयावहता का उन्हें अंदाज़ा है.

क्या लड़ाई को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है? पश्चिम एशिया में स्थायी शांति की स्थापना क्या संभव ही नहीं है? दुनिया की बड़ी ताकतों को क्या संभावित तबाही की तस्वीर नज़र नहीं आ रही है?

बेशक टकराव जारी है, लेकिन अभी तक के घटनाक्रम से सबक लेकर दोनों पक्ष,  भविष्य में बहुत कुछ सकारात्मक भी कर सकते हैं, जिसका हमें अनुमान नहीं है. लड़ाई के भयावह परिणामों को दोनों पक्ष भी समझते हैं. इसे भय का संतुलन भी कह सकते हैं.

कांग्रेस और राहुल के ‘पुनरोदय’ को लगा धक्का

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव दो कारणों से महत्वपूर्ण थे। जून में लोकसभा चुनाव-परिणामों के बाद भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की राजनीति के प्रति जनता का दृष्टिकोण क्या है और दूसरा यह कि कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की दिशा क्या लग रही है। इन दोनों राज्यों के परिणामों में काफी कुछ बातें हैं, जिनसे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इन चुनावों का प्राथमिक संदेश यह है कि भाजपा मशीनरी अपने मूल वोट-आधार को बनाए रखने में कामयाब है और कांग्रेस को उन क्षेत्रों में भी भाजपा को हराने के लिए जबर्दस्त मशक्कत करनी होगी, जहाँ उसने पैर जमा लिए हैं। यानी राहुल गांधी और कांग्रेस के पुनरोदय को पक्का मानकर चलना नहीं चाहिए।

इन नतीजों से संगठन पर मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह दोनों का नियंत्रण बढ़ेगा। दोनों राज्यों के लिए प्रमुख प्रत्याशियों को दोनों ने ही चुना है। भाजपा सूत्रों ने बताया कि पार्टी के हर फैसले पर दोनों की ही मुहर रहेगी, जिसमें नए पार्टी अध्यक्ष का चयन भी शामिल है। इससे राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए भी सकारात्मक संदेश जाएगा, जिनकी जगह नए पार्टी अध्यक्ष को आना है। भाजपा इस वक्त महाराष्ट्र और झारखंड में सीटों के बँटवारे के लिए अपने सहयोगियों के साथ बातचीत कर रही है। इस जीत से उसका हौसला बढ़ेगा।

केजरीवाल की नाटकीय-राजनीति की परीक्षा

अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की घोषणा से बहुत से लोगों को हैरत हुई है, पर आप गहराई से सोचें तो पाएंगे कि वे इसके अलावा कर ही क्या सकते थे। अगले कुछ महीने वे दिल्ली के कार्यमुक्त मुख्यमंत्री के रूप में अपने पद पर बने रहते, तो जनता के सामने जो संदेश जाता, उसकी तुलना में ऐसी मुख्यमंत्री के संरक्षक के रूप में बने रहना ज्यादा उपयोगी होगा, जिसका ध्येय उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वापस लाना है। बावजूद इसके कुछ खतरे अभी बने हुए हैं, जो केजरीवाल को परेशान करेंगे।

आतिशी की परीक्षा

आतिशी मार्लेना (या सिंह) कार्यकुशल साबित हुईं तब और विफल हुईं तब भी, पहला खतरा उनसे ही है। भले ही वे भरत की तरह कुर्सी पर खड़ाऊँ रखकर केजरीवाल की वापसी का इंतजार करें, पर जनता अब उनके कामकाज को गौर से देखेगी और परखेगी। आतिशी के पास अब भी वे सभी 13 विभाग हैं जो पहले उनके पास थे, जिनमें लोक निर्माण विभाग, बिजली, शिक्षा, जल और वित्त आदि शामिल हैं। इसके विपरीत मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल के पास कोई भी विभाग नहीं था। आतिशी पर काम का जो दबाव होगा, वह केजरीवाल पर नहीं था और वे राजनीति के लिए काफी हद तक स्वतंत्र थे।

बांग्लादेश में तख्तापलट और भारत से रिश्ते

बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के विरुद्ध हुई बगावत और उसके बाद डॉ मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन के बाद दक्षिण एशिया की राजनीति में रातोंरात बड़ा बदलाव हो गया है। डॉ यूनुस को देश का मुख्य सलाहकार कहा गया है, पर व्यावहारिक रूप से यह प्रधानमंत्री का पद है। उन्हें प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों को मंत्री इसलिए नहीं कहा गया है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पहला सवाल है कि क्या यह सरकार शीघ्र चुनाव कराएगी? डॉ यूनुस ने संकेत दिया है कि हम जल्दी चुनाव नहीं कराएंगे, बल्कि देश में बड़े स्तर पर सुधारों का काम करेंगे।

उनसे पूछा गया कि कैसे सुधार, तब उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रशासनिक मशीनरी और मीडिया में सुधार की जरूरत है। देश में अब जो हो रहा है, उसका परिणाम क्या होगा यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। ज्यादा बड़े सवाल सांविधानिक-संस्थाओं से जुड़े हैं, मसलन अदालतें। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को राष्ट्रपति के आदेश से रिहा कर दिया गया है। क्या यह संविधान-सम्मत कार्य है? इसी तरह एक अदालत ने मुहम्मद यूनुस को आरोपों से मुक्त कर दिया। क्या यह न्यायिक-कर्म की दृष्टि से उचित है? ऐसे सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है, पर आने वाले समय में पूछे जा सकते हैं।  

Wednesday, October 16, 2024

असमंजस और अशांति के दौर में एससीओ का इस्लामाबाद सम्मेलन


पाकिस्तान में मंगलवार से शुरू हुई शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक भारत-पाकिस्तान रिश्तों के लिहाज से भले ही महत्वपूर्ण नहीं हो, पर क्षेत्रीय सहयोग, ग्लोबल-साउथ और खासतौर से चीन के साथ भारत के रिश्तों े लिहाज से महत्वपूर्ण है.  

यह बैठक पाकिस्तानी-प्रशासन के लिए भी बड़ी चुनौती बन गई है. हाल की आतंकवादी हिंसा और राजनीतिक-अशांति का साया सम्मेलन पर मंडरा रहा है. अंदेशा है कि इस दौरान कोई अनहोनी न हो जाए.

शिखर सम्मेलन से पहले के कुछ हफ्तों में, पाकिस्तान सरकार ने अपने विरोधियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की है. एक जातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन पर प्रतिबंध लगा दिया है और राजधानी में विरोध प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया गया है.

राजधानी को वस्तुतः शेष देश से अलग कर दिया गया है और सड़कों पर सेना तैनात कर दी गई है. जेल में कैद इमरान खान के सैकड़ों समर्थकों को भी गिरफ्तार किया गया है, जिन्होंने इस महीने इस्लामाबाद में मार्च करने का प्रयास किया था.

पिछले सप्ताह कराची में चीनी इंजीनियरों के काफिले पर हुए घातक हमले ने भी देश में सुरक्षा संबंधी आशंकाओं को बढ़ा दिया है, जहाँ अलगाववादी समूह लगातार चीनी नागरिकों को निशाना बनाते रहे हैं.

जयशंकर की उपस्थिति

एससीओ की कौंसिल ऑफ हैड ऑफ गवर्नमेंट्स (सीएचजी) की इस बैठक में सात देशों के प्रधानमंत्री और ईरान के प्रथम उपराष्ट्रपति भाग लेंगे. भारत का प्रतिनिधित्व विदेशमंत्री एस जयशंकर करेंगे.

Thursday, October 10, 2024

भारत-पाकिस्तान रिश्ते और क्षेत्रीय-सहयोग के स्वप्न


इस महीने 15-16 को इस्लामाबाद में हो रहे शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए विदेशमंत्री एस जयशंकर पाकिस्तान जा रहे हैं. उनकी यात्रा को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या इसे दोनों देशों के संबंध-सुधार की शुरुआत माना जाए?  

हालांकि विदेश मंत्रालय और स्वयं विदेशमंत्री ने स्पष्ट किया है कि यह यात्रा द्विपक्षीय-संबंधों को लेकर नहीं है, फिर भी सम्मेलन से बाहर, खासतौर से मीडिया में, रिश्तों को लेकर चर्चा जरूर होगी. पर यह चर्चा आधिकारिक रूप से नहीं होगी, सम्मेलन के हाशिए पर भी नहीं.

दूसरी तरफ सम्मेलन में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भारत-पाकिस्तान प्रसंग प्रतीकों के माध्यम से उठेंगे. आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, क्षेत्रीय-सहयोग और साइबर-सुरक्षा जैसे मसलों पर चर्चा के दौरान ऐसी बातें हों, तो हैरत नहीं होगी.

Wednesday, October 9, 2024

‘खर्ची-पर्ची’ खा गई, हरियाणा में कांग्रेस को

 


हरियाणा विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली जीत बहुत से लोगों को अप्रत्याशित लग रही है। कांग्रेस पार्टी ने परिणाम आने के पहले ही साज़िश का अंदेशा व्यक्त करके चुनाव आयोग से शिकायत कर दी थी। इससे कुछ देर के लिए उसके कार्यकर्ताओं को दिलासा भले ही मिल गई हो, पर पार्टी की व्यापक रणनीति में छिद्र नज़र आने लगे हैं। कहा यह जा रहा है कि राष्ट्रीय गठबंधन बनाने के बावजूद कांग्रेस जिताऊ पार्टी नहीं है। हरियाणा को छोड़ भी दें, तो जम्मू-कश्मीर में इंडिया गठबंधन को मिली सफलता, कांग्रेस नहीं नेशनल कांफ्रेंस की वजह से है। इन परिणामों के बाद भाजपा के बरक्स कांग्रेस को जो धक्का लगेगा, वह दीगर है, उसे इंडिया गठबंधन में अपने ही सहयोगियों का धक्का भी लगेगा। महाराष्ट्र में सीट-वितरण के वक्त आप इसे देखेंगे।  

वोट बढ़ा, फिर भी…

हरियाणा के परिणाम पर द हिंदू ने अपने संपादकीय में लिखा है, चुनाव विश्लेषकों के अनुमानों के विपरीत, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हरियाणा में अपनी सीटों को 40 से बढ़ाकर 48 और वोट शेयर को 36.5% से बढ़ाकर 39.9% करके लगातार तीसरी बार सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही है। कांग्रेस का वोट शेयर भी 11 अंक बढ़कर 39.1% दर्ज किया गया, लेकिन इसकी सीटों की संख्या मामूली रूप से छह बढ़कर 37 हो गई। प्रभावशाली जाट समुदाय को बढ़ावा देने वाली दो क्षेत्रीय पार्टियों, इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का प्रदर्शन खराब रहा, क्योंकि उनका संयुक्त वोट शेयर 2019 में 21% से गिरकर 2024 में 7% हो गया, जिससे कांग्रेस को मदद मिली।

Tuesday, October 8, 2024

पश्चिम एशिया में लड़ाई की पहली भयावह-वर्षगाँठ


गज़ा में एक साल की लड़ाई ने इस इलाके में गहरे राजनीतिक, मानवीय और सामाजिक घाव छोड़े हैं. इन घावों के अलावा भविष्य की विश्व-व्यवस्था के लिए कुछ बड़े सवाल और ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म दिया है. इस प्रक्रिया का समापन किसी बड़ी लड़ाई से भी हो सकता है.

यह लड़ाई इक्कीसवीं सदी के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ साबित होगी. कहना मुश्किल है कि इस मोड़ की दिशा क्या होगी, पर इतना स्पष्ट है कि इसे रोक पाने में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से लेकर संरा सुरक्षा परिषद तक नाकाम हुए हैं. लग रहा है कि यह लड़ाई अपने दूसरे वर्ष में भी बिना किसी समाधान के जारी रहेगी, जिससे इसकी पहली वर्षगाँठ काफी डरावनी लग रही है.

इस लड़ाई के कारण अमेरिका, ब्रिटेन और इसराइल की आंतरिक-राजनीति भी प्रभावित हो रही है, बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों की आंतरिक-राजनीति पर इसका असर पड़ रहा है.

Wednesday, October 2, 2024

इसराइल के तूफानी हमलों का निशाना कौन है?


पहले हमास के प्रमुख इस्माइल हानिये और अब हिज़्बुल्ला के प्रमुख हसन नसरल्ला की मौत के बाद सवाल है कि क्या इससे पश्चिम एशिया में इसराइल की प्रतिरोधी-शक्तियाँ घबराकर हथियार डाल देंगी? हो सकता है कि कुछ देर के लिए उनकी गतिविधियाँ धीमी पड़ जाएं, पर यह इसराइल की निर्णायक जीत नहीं है.

किसी एक की जीत देखने की कोशिश करनी भी नहीं चाहिए, बल्कि समझदारी के साथ रास्ता निकालना चाहिए. यह युद्ध है, जिसमें इसराइल की रणनीति है प्रतिस्पर्धियों के मनोबल को तोड़ना और दीर्घकालीन उद्देश्य है ईरानी-चुनौती को कुंठित करना.

मौके की नज़ाकत को देखते हुए अब ईरान के रुख पर भी नज़र रखनी होगी. काफी दारोमदार उसपर है, क्योंकि शेष इस्लामिक देशों के हौसले आज वैसे नहीं हैं, जैसे सत्तर साल पहले हुआ करते थे. ईरान ने मंगलवार की रात इसराइल के ऊपर दो सौ से ज्यादा बैलिस्टिक मिसाइलें दागकर शुरुआत कर दी है, जिनमें से ज्यादातर को इसराइल ने बीच में ही रोक लिया.

Wednesday, September 25, 2024

अमेरिका-दौरा और वृहत्तर-भूमिका में क्वॉड


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा भले ही ऐसे वक्त में हुई है, जब राष्ट्रपति जो बाइडेन का कार्यकाल पूरा हो रहा है, फिर भी अमेरिका के साथ द्विपक्षीय-रिश्ते हों या क्वॉड का शिखर सम्मेलन दोनों मामलों में सकारात्मक प्रगति हुई है. ‘बदलते और उभरते भारत पर केंद्रित इस दौरे की थीम भी सार्थक हुई.  

क्वॉड शिखर-सम्मेलन मूलतः चीन-केंद्रित था, पर, भारत इसे केवल चीन-केंद्रित मानने से बचता है. इसबार के सम्मेलन में समूह ने प्रत्यक्षतः भारतीय-दृष्टिकोण को अंगीकार कर लिया. इसे एशियाई-नेटो के बजाय, हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साझा-हितों के रक्षक के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. बावजूद इसके चीन का नाम लिए बगैर, जो कहना था, कह दिया गया.

वृहत्तर-सहयोग

हिंद-प्रशांत देशों के बीच इंफ्रास्ट्रक्चर, सेमी कंडक्टर, स्वास्थ्य और प्राकृतिक-आपदाओं के बरक्स राहत-सहयोग जैसे मसलों को इसबार के सम्मेलन में रेखांकित किया गया. संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुधार और सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट को लेकर भी इस सम्मेलन में सहमति व्यक्त की गई.

इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि क्वॉड किसी के खिलाफ नहीं है बल्कि यह नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और संप्रभुता के पक्ष में है. स्वतंत्र, खुला, समावेशी और समृद्ध हिंद-प्रशांत हमारी प्राथमिकता है.

इनके साथ-साथ संरा समिट ऑफ फ्यूचर में ग्लोबल साउथ के संदर्भ में  भारतीय पहल को समझने की जरूरत है. यहाँ भी मुकाबला चीन से है. इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने भविष्य के खतरों की ओर दुनिया का ध्यान खींचा. साथ ही उन्होंने विश्वमंच को आइना भी दिखाया, जिसने सुरक्षा-परिषद की स्थायी सीट से भारत को वंचित कर रखा है.

Wednesday, September 18, 2024

विश्व-शांति के प्रयास और भारत की बढ़ती भूमिका


इस हफ्ते भारतीय विदेश-नीति का फोकस अमेरिका पर रहेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं. पिछले साल जून की उनकी अमेरिका-यात्रा ने राजनीतिक और राजनयिक दोनों मोर्चों पर कुछ बड़ी परिघटनाओं को जन्म दिया था. इसबार हालांकि भारत-अमेरिका रिश्ते पूरी तरह विमर्श के केंद्र में नहीं होंगे, पर होंगे जरूर. साथ ही भारत और शेष-विश्व के रिश्तों पर रोशनी भी पड़ेगी.

हाल में बांग्लादेश में हुए सत्ता-परिवर्तन के बाद इस क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका की ओर अभी तक हमारा ध्यान गया नहीं है. अमेरिकी विदेश विभाग में दक्षिण और मध्य एशिया के लिए सहायक विदेशमंत्री डोनाल्ड लू भारत का दौरा पूरा करके सोमवार तक बांग्लादेश में थे.

बताया जा रहा है कि उनकी इस यात्रा का उद्देश्य बांग्लादेश के ताजा हालात की समीक्षा करने के अलावा भारत और बांग्लादेश के बीच के मसलों को समझना भी है. शायद कड़वाहट को दूर करना भी. इस दौरान वे भारत-अमेरिका टू प्लस टू अंतर-सत्र वार्ता में भी शामिल हुए. दोनों देशों के बीच छठी वार्षिक टू प्लस टू वार्ता इस साल किसी वक्त वॉशिंगटन में होनी है.

टू प्लस टू

दोनों देशों के बीच 2018 से शुरू हुई ‘टू प्लस टू’ स्तर की वार्ता ने कई स्तर पर रिश्तों को पुष्ट किया है. पिछली वार्ता नवंबर में हुई थी, जिसमें भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन व रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने भाग लिया.

Sunday, September 15, 2024

केजरीवाल के नाटकीय फैसले का मतलब


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अचानक इस्तीफा देने की घोषणा करके नाटकीयता तो जरूर पैदा कर दी है, पर इसकी वजह से वे सवालों के घेरे में भी आ गए हैं। पहला सवाल है कि उन्होंने तभी इस्तीफा क्यों नहीं दिया, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था? दूसरा है कि अब दो दिन बाद क्यों, अभी क्यों नहीं? नए मुख्यमंत्री के आने तक उन्हें कार्यवाहक रहना ही है, वैसे ही जैसे वे अब खुद को कार्यवाहक के रूप में पेश कर रहे हैं। केजरीवाल और बातों के अलावा राजनीतिक-नाटकीयता के लिए भी पहचाने जाते हैं। इस मामले में भी भगत सिंह और माता सीता के रूपक जोड़कर उन्होंने मामले को नाटकीय बना दिया है।

अगला सवाल है कि नए मुख्यमंत्री का नाम कौन तय करेगा, केजरीवाल या विधायक दल? पर व्यावहारिक सच यह है कि केजरीवाल पार्टी हाईकमान हैं। नाम किसी का हो, पर फैसला उनका ही होगा।केजरीवाल ने कहा कि मनीष सिसोदिया पर भी वही आरोप हैं, जो मुझ पर हैं। उनका भी यही सोचना है कि वे भी पद पर नहीं रहेंगे, चुनाव जीतने के बाद ही पद संभालेंगे। ऐसा क्यों? वे जल्दी चुनाव चाहते हैं, तो विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं कर रहे हैं? बात समझ में आती है कि गिरफ्तारी के समय उन्होंने इस्तीफा इसलिए नहीं दिया, क्योंकि वे एक नैतिक और कानूनी सिद्धांत को साबित करना चाहते थे। और अब इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि उनकी नैतिकता उन्हें अग्निपरीक्षा के लिए प्रेरित कर रही है। इस अग्निपरीक्षा में सिसौदिया को शामिल करना जरूरी क्यों है? उनकी भी अग्निपरीक्षा होनी है, तो इसकी घोषणा उन्होंने खुद क्यों नहीं की?   

Wednesday, September 11, 2024

भारत की भू-राजनीतिक भूमिका और पाकिस्तान से रिश्ते


विदेश-नीति के मोर्चे पर एकसाथ कई बातें हो रही हैं, जिनमें भारत-पाकिस्तान रिश्तों को लेकर शुरू हुई सुगबुगाहट शामिल है. अगले महीने पाकिस्तान में होने वाली शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया गया है. सवाल है कि क्या मोदी, पाकिस्तान जाएंगे?

उनका जाना और नहीं जाना, दोनों बातें दोनों देशों के रिश्तों के लिहाज से महत्वपूर्ण होंगी. उनपर बात जरूर होनी चाहिए, पर उसके पहले वैश्विक-राजनीति में भारत की बढ़ती भूमिका से जुड़ी कुछ बातों पर रोशनी डालने की जरूरत भी है.

पिछले दिनों पीएम मोदी की यूक्रेन-यात्रा के बाद संभावनाएं बढ़ी हैं कि रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत में भारत की भूमिका हो सकती है. अब खबर है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ब्रिक्स के एनएसए सम्मेलन में भाग लेने के लिए रूस जा रहे हैं. 10-12 सितंबर को सेंट पीटर्सबर्ग में हो रहा, यह सम्मेलन प्रकारांतर से उसी उद्देश्य से आयोजित किया जा रहा है।

इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने शनिवार को कहा कि भारत और चीन जैसे देश यूक्रेन के संघर्ष को सुलझाने में भूमिका निभा सकते हैं. उसके एक दिन पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत जैसे दोस्तों की तारीफ की थी, जो मौजूदा संघर्ष का हल निकालना चाहते हैं.

व्लादीवोस्तक में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम में एक पैनल चर्चा के दौरान पुतिन ने कहा कि भारत, ब्राजील और चीन संघर्ष का हल निकालने में भूमिका निभा सकते हैं. उनकी यह टिप्पणी उन संभावित देशों के बारे में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में आई जो रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं.

Wednesday, September 4, 2024

तालिबानी कानून और वैश्विक-मान्यता से जुड़ी राजनीति


अफगानिस्तान में तालिबान ने 19 अगस्त को अपनी विजय की तीसरी और स्वतंत्रता की 105वीं वर्षगाँठ मनाई. दोनों समारोहों की तुलना में ज्यादा सुर्खियाँ एक तीसरी खबर को मिलीं.

तालिबान ने 21 अगस्त को 35 अनुच्छेदों वाले एक नए कानून की घोषणा की  है, जिसमें शरिया की उनकी कठोर व्याख्या के आधार पर जीवन से जुड़े कार्य-व्यवहार और जीवनशैली पर प्रतिबंधों का विवरण है. नए क़ानून को सर्वोच्च नेता हिबातुल्ला अखुंदज़ादा ने मंज़ूरी दी है, जिसे लागू करने की ज़िम्मेदारी नैतिकता मंत्रालय की है.

दुनियाभर में आलोचना के बावजूद अफगानिस्तान के शासक इन नियमों को उचित बता रहे हैं. तालिबान सरकार के मुख्य प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने एक बयान में उन लोगों के अहंकारके खिलाफ चेतावनी दी है, जो इस्लामी शरिया से परिचित नहीं हैं, फिर भी आपत्ति व्यक्त कर रहे हैं.

वे मानते हैं कि बिना समझ के इन कानूनों को अस्वीकार करना, अहंकार है. दूसरी तरफ मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी तक का विचार है कि अफगानिस्तान में मानवाधिकारों और स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा की जरूरत है.

Tuesday, September 3, 2024

बुलडोजर-न्याय और राजनीति के पेचोख़म…

बुलडोजर-न्याय को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी से पहली नज़र में लगता है कि इससे तुरत-न्याय की राजनीति को धक्का लगेगा। पर इस बात के सभी पहलुओं पर विचार करने का समय भी अब आ गया है। कानूनी प्रक्रिया में कोई झोल है, तो उसे ठीक भी होना चाहिए। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने विभिन्न राज्यों में 'बुलडोजर एक्शन' को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि कोई व्यक्ति दोषी है, तब भी उसके घर को गिराया नहीं जा सकता। सुप्रीमकोर्ट के इस हस्तक्षेप से उन लोगों की आस बढ़ी है, जिनके घर गिराए गए हैं। अदालत ने भविष्य में इस किस्म की तोड़फोड़ को लेकर गाइडलाइन बनाने का वायदा भी किया है।

क्या वास्तव में सरकारें किसी कानूनी-प्रक्रिया को अपनाए बगैर तोड़फोड़ कर रही हैं? या तथ्य कुछ और हैं? ऐसे ही सवाल हिंसा के दौरान नष्ट हुई सार्वजनिक संपत्ति को लेकर भी हैं। अदालत को देखना होगा कि उसकी भरपाई कौन करेगा? अब जब फोटोग्राफी एक-एक चेहरे की पहचान बताने लगी है, तब अपराधियों को सजा कैसे मिलेगी? उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से देश के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, जो हुआ, वह नियमानुसार है। याचिकाकर्ता मामले को अदालत के सामने गलत ढंग से रख रहे है। नोटिस बहुत पहले जारी किए गए थे, ये लोग पेश नहीं हुए।

Thursday, August 29, 2024

यूरोप में बढ़ती भारतीय भूमिका


भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन-यात्रा ने भारतीय विदेश-नीति की स्वतंत्रता को पुष्ट करने के साथ यूरोप में नई भूमिका को भी रेखांकित किया है. यूक्रेन में मोदी ने दृढ़ता से कहा, हम तटस्थ नहीं, युद्ध के विरुद्ध और शांति के पक्ष में हैं. यह बात हमने राष्ट्रपति पुतिन से भी कही है कि यह दौर युद्ध का नहीं है.   

उनके इस दौरे से यूरोप में भारत के दृष्टिकोण को बेहतर और साफ तरीके से समझने का आधार तैयार हुआ है. इससे वैश्विक-राजनीति में भारत का कद ऊँचा होगा और यूक्रेन के साथ हमारे द्विपक्षीय-संबंध सुधरेंगे, जो युद्ध के बाद कटु हो गए थे.

यूक्रेन और रूस के युद्ध पर इस यात्रा के पूरे असर को देखने और समझने के लिए हमें कुछ समय इंतज़ार करना होगा. लड़ाई की जटिलताएं आसानी से सुलझने वाली भी नहीं हैं. पहले इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि यह झगड़ा यूक्रेन और रूस के अलावा परोक्षतः अमेरिका और रूस के बीच का भी है.

Sunday, August 25, 2024

लड़ाई का रुख लेबनान की ओर मुड़ा

इसराइल और हिज़बुल्ला के जवाबी हमले

पश्चिम एशिया में इसराइल और उसके विरोधियों के बीच लड़ाई का एक और मोर्चा खुलने का खतरा बढ़ गया है। रविवार को इसराइल के एक सौ से ज्यादा जेट विमानों ने लेबनान में ईरान समर्थक संगठन हिज़बुल्ला के ठिकानों परहमले बोले। जवाब में हिज़बुल्ला ने तीन सौ के ऊपर मिसाइलों और ड्रोनों से इसराइल पर हमले बोले। हिज़बुल्ला ने यह भी कहा है कि फिलहाल उनका इरादा अभी और हमले करने का नहीं है।

पिछले साल 7 अक्टूबर को इसराइल पर हमास के हमले के बाद से इसराइल की उत्तरी सीमा पर लेबनान में हिज़बुल्ला भी सक्रिय हो गया है और इसराइल के सीमावर्ती इलाक़ों पर वह लगातार कार्रवाई कर रहा है। इसराइल भी हिज़बुल्ला के ठिकानों को निशाना बनाता रहा है। अब तक इन हमलों में दर्जनों लोगों की मौत हुई है।

गत 30 जुलाई को हिज़बुल्ला के टॉप कमांडर फवाद शुकर के मारे जाने के बाद से  हिज़बुल्ला की जवाबी कार्रवाई का इंतज़ार था। पर लगता है कि इसबार हमला पहले इसराइल ने किया। उसके नेतृत्व का कहना है कि हिज़बुल्ला हमारे ऊपर हमले की तैयारी कर रहा था, इसलिए हमने पेशबंदी में यह कार्रवाई की है। इसराइल का कहना है कि हमने हिज़बुल्ला की योजनाओं को विफल करते हुए, सुबह-सुबह उस पर हमला किया है।

Friday, August 23, 2024

फिर बजे चुनाव के नगाड़े

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव से बदला माहौल


लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति की बहस अभी चल ही रही है कि चार राज्यों के विधान सभा चुनाव सिर पर आ गए हैं। राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में दस सीटों पर उप चुनाव होने हैं। प्रदेश के नौ विधायकों ने लोकसभा की सदस्यता प्राप्त करके अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। प्रदेश की फूलपुर, खैर, गाजियाबाद, मझवाँ, मीरापुर, मिल्कीपुर, करहल, कटेहरी और कुंदरकी यानी नौ सीटें खाली हुई हैं। दसवीं सीट सीसामऊ सपा विधायक इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई है। जिन 10 सीटों पर उपचुनाव होना है, उनमें से पाँच पर समाजवादी पार्टी के विधायक थे, भाजपा के तीन और राष्ट्रीय लोक दल तथा निषाद पार्टी के एक-एक। यानी इंडिया गठबंधन और एनडीए की पाँच-पाँच सीटें हैं। अब दोनों गठबंधन अपने महत्व और वर्चस्व को साबित करने के लिए चुनाव में उतरेंगे। उधर बीजेपी के भीतर से बर्तनों के खटकने की आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं। ये चुनाव बीजेपी और इंडिया गठबंधन दोनों को अपनी ताकत आजमाने का मौका देंगे।

दो राज्यों के चुनाव

चुनाव आयोग ने चार में से फिलहाल दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम की घोषणा की है। जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों में और हरियाणा में एक चरण में मतदान होगा। नतीजे 4 अक्टूबर को आएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में 30 सितंबर तक चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग से कहा था। राज्य में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है। जम्मू-कश्मीर में पहले चरण का मतदान 18 सितंबर, दूसरे का 25 सितंबर और तीसरे का 1 अक्तूबर को होगा। उसी दिन हरियाणा में भी वोट पड़ेंगे। वोटों की गिनती 4 अक्टूबर को होगी।

Thursday, August 22, 2024

दक्षिण एशिया में भारत पर बढ़ता दबाव


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को भारत की ओर से ‘ग्लोबल साउथ' के लिए कुछ पहलों की घोषणाएं की हैं, वहीं कुछ पर्यवेक्षक बांग्लादेश की परिघटना का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि भारत की भूमिका, दक्षिण एशिया में कमतर हो रही हैं, ऐसे में ‘ग्लोबल साउथ' को कैसे साध पाएंगे

चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' (बीआरआई) के तहत कई देशों के ‘ऋण-जाल' में फँसने की चिंताओं के बीच पीएम मोदी ने भारत द्वारा आयोजित तीसरे ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ' सम्मेलन में ‘कॉम्पैक्ट' (वैश्विक विकास समझौते) की घोषणा की.

शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में उन्होंने कहा, मैं भारत की ओर से एक व्यापक वैश्विक विकास समझौतेका प्रस्ताव रखना चाहूंगा. इस समझौते की नींव भारत की विकास यात्रा और विकास साझेदारी के अनुभवों पर आधारित होगी.

भारत की पहल

शिखर सम्मेलन में भारत समेत 123 देशों ने हिस्सा लिया और ग्लोबल साउथ की साझा चिंताओं और प्राथमिकताओं पर विचार-विमर्श किया. उल्लेखनीय है कि चीन और पाकिस्तान इस सम्मेलन में शामिल नहीं थे. बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष डॉ यूनुस ने इसमें भाग लिया.

सम्मेलन के वैचारिक-पक्ष को विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट करते हुए कहा कि इसकी टाइमिंग महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके बाद न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र का समिट ऑफ द फ्यूचर होगा. जिन मुद्दों पर यहां चर्चा हुई है, उन पर वहाँ भी चर्चा होगी.

फिलहाल यह सम्मेलन भारत की पहल और विकासशील देशों के बीच उसकी आवाज़ को रेखांकित करता है. चीन भी इस दिशा में सक्रिय है. ग्लोबल साउथ से ज्यादा इस समय बड़े सवाल दक्षिण एशिया को लेकर पूछे जा रहे हैं.

विस्मृत दक्षिण एशिया

एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक माना है कि दक्षिण एशिया जैसी भौगोलिक-राजनीतिक पहचान अब विलीन हो चुकी है. जैसे पश्चिम एशिया या दक्षिण पूर्व एशिया की पहचान है, वैसी पहचान दक्षिण एशिया की नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण है भारत-पाकिस्तान गतिरोध.

बांग्लादेश में शेख हसीना के पराभव और आसपास के ज्यादातर देशों में भारत-विरोधी राजनीतिक ताकतों के सबल होने के कारण पूछा जाने लगा है कि क्या इस दक्षिण एशिया में भारत का रसूख पूरी तरह खत्म हो गया है? इस इलाके के सर्वाधिक प्रभावशाली देश के रूप में क्या अब चीन स्थापित हो गया है, या हो जाएगा?

ऐसे सवालों का जवाब देने की घड़ी अब आ रही है. जवाब संयुक्त राष्ट्र के सुधार कार्यक्रमों और भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आकार में छिपे हैं. ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं.

नेबरहुड फर्स्ट

2014 में नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो उन्होंने पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को भारत आने का न्योता देकर चौंकाया था. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी उसमें शामिल हुए थे.

मोदी सरकार पहले दिन से कहती रही है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सबसे ज़्यादा महत्व मिलेगा. इसे 'नेबरहुड फ़र्स्ट' का नाम दिया गया है. मतलब यह कि दूर के देशों की तुलना में भारत, पड़ोसी देशों को ज़्यादा अहमियत देगा.

कोरोना महामारी के समय सहायता पहुँचाने और खासतौर से वैक्सीन देते समय ऐसा दिखाई भी पड़ा. बावजूद इसके दक्षिण एशिया में कारोबारी सहयोग का वैसा माहौल नहीं है, जैसा दक्षिण पूर्व एशिया सहयोग संगठन आसियान में है.

वैश्विक राजनीति

इस दौरान भारत ने अपने आर्थिक और सामरिक-संबंधों के लिए अमेरिका, रूस, जापान और इसराइल जैसे देशों को वरीयता दी. दक्षिण एशिया की तुलवा में उसके पश्चिम एशिया में यूएई, सऊदी अरब और ईरान के साथ रिश्ते बेहतर हैं. मोदी सरकार के पहले छह वर्षों में चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिशें भी हुई थीं.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नेपाल (अगस्त, 2014), श्रीलंका (मार्च, 2015) और बांग्लादेश (जून, 2015) में गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. पाकिस्तान के साथ भी कुछ समय तक यह गर्मजोशी रही, पर जनवरी 2016 में पठानकोट हमले के बाद वह बात खत्म हो गई और फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाओं के बाद बड़े युद्ध की आशंकाओं ने जन्म भी दिया.

अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी ने दोनों देशों के रिश्तों को ऐसा सीलबंद किया है कि उसके खुलने का अबतक इंतज़ार है. पाकिस्तान ने तो औपचारिक रूप से भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते बंद ही कर रखे हैं.

श्रीलंका और मालदीव

भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने श्रीलंका की काफी मदद की थी, वहां की सरकार ने भी दिल्ली की टेढ़ी निगाहों को नज़रंदाज़ किया और चीन के जासूसी जहाज को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति दी थी. ऐसा ही मालदीव में हुआ, जहाँ इंडिया आउट जैसा अभियान चला.

इस आंदोलन के सहारे भारत-समर्थक सरकार को सत्ता से हटा कर राष्ट्रपति बने मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने अपने देश से भारतीय सैन्यकर्मियों को हटाया और चीनी जासूसी जहाज को लंगर डालने की अनुमति दी, जबकि श्रीलंका तक ने उस जहाज को आने से रोक दिया है.

नेपाल में नए संविधान को लागू करने के दौरान भारत के मौन समर्थन से चलाए गए 'आर्थिक नाकेबंदी' कार्यक्रम को लेकर जो बदमज़गी पैदा हुई थी, वह दोनों देशों की सीमा को लेकर विवाद में बदल चुकी है. नेपाल ने अपने नए आधिकारिक नक्शे के रूप में उस कड़वाहट को स्थायी रूप दे दिया है.

इस क्षेत्र का सबसे शांत देश भूटान सामरिक, विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों में भारत पर निर्भर है, उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर बातचीत शुरू कर दी है. केवल बातचीत ही शुरू नहीं की है, बल्कि राजनयिक स्तर पर रिश्ते बनाने की शुरुआत भी कर दी है.

हसीना का पराभव

इतने देशों के साथ कड़वाहट के बावज़ूद भारत-बांग्लादेश रिश्ते बेहतर स्थिति में थे. अब वहाँ शेख हसीना को अपदस्थ होना पड़ा है और वहाँ ऐसी राजनीतिक शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं, जिन्हें भारत का मित्र नहीं कहा जा सकता.

क्या यह बात भारत की विदेश नीति के दोषों की ओर इशारा कर रही है या ऐसी वैश्विक-परिस्थितियों की ओर इशारा कर रही हैं, जिनमें चीन-अमेरिका और यूरोपीय देशों की भूमिका है? या यह मानें कि दक्षिण एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक संरचना के कारण इस इलाके के देश भारत की केंद्रीयता को स्वीकार करने में हिचकते हैं?

पहले यह स्वीकार करना होगा कि दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यहां एक देश से दूसरे देश में आवाजाही या अंतरराष्ट्रीय सीमा संबंध जितने कठिन और जटिल हैं, उतना दुनिया के किसी और इलाक़े में नहीं हैं.

कारोबार की बात करें तो ग़रीब अफ़्रीकी देशों के बीच जितना आपसी व्यापार होता है उसकी तुलना में भी दक्षिण एशिया के देशों का आपसी व्यापार नहीं होता है, जबकि इस क्षेत्र में 200 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं.

भारत की केंद्रीयता

इन देशों के केंद्र में भारत जैसा देश है, जो इस समय दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था है. फिर भी इस इलाके में एकीकरण की भावना गायब है. दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) संभवतः दुनिया का सबसे निष्क्रिय संगठन है. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है.

भारत के पड़ोस के राजनीतिक माहौल पर एक नज़र डालें. 2021 में म्यांमार और अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुए. 2022 में पाकिस्तान में इमरान सरकार का पराभव हुआ. उसी साल श्रीलंका में भीड़ ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षा को भागने को मज़बूर किया. 2023 में मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ.

नेपाल में लगातार राजनीतिक अस्थिरता चल रही है. और अब बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ है. यह सब शांतिपूर्ण और सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता, तब अलग बात थी. इस बात का श्रेय भारत को मिलना चाहिए, जिसने इस इलाके में अराजकता को फैसले से रोक रखा है. 

अराजक राजनीति

दक्षिण एशिया की आर्थिक बदहाली की वजह को खोजने के लिए भारत की नीतियों के अलावा इन सभी देशों की आंतरिक-परिस्थितियों पर भी नज़र डालनी चाहिए. हमारे सभी पड़ोसी देशों में जबर्दस्त उथल-पुथल चल रही है, जिसकी अभिव्यक्ति लगातार बदलते रिश्तों के रूप में होती है. इसके सबसे अच्छे उदाहरण श्रीलंका और मालदीव हैं.

जिस समय बांग्लादेश की उथल-पुथल की खबरें आ रही थी, हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर मालदीव के दौरे पर थे. वहां उन्हें राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू  का जैसा दोस्ताना रवैया दिखा, वह भी विस्मय की बात थी.

पिछले एक साल में मालदीव को भी कई प्रकार के अनुभव हुए हैं, पर भारत ने धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुरूप खुद को बदला और लगता है कि उसे सफलता मिली है. और अब ऐसा ही बांग्लादेश में भी देखने को मिल सकता है.

कुछ दूसरी बातों की ओर भी हमें ध्यान देना होगा. भारत के साथ इन देशों के क्षेत्रफल, सैनिक और आर्थिक शक्ति तथा वैश्विक प्रभाव में भारी अंतर है. केवल पाकिस्तान ही एक बड़ा देश है, जो ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने से घबराता है.

पाकिस्तान की भूमिका

पाकिस्तानी शासक मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने का मतलब है विभाजन की निरर्थकता को स्वयंसिद्ध मान लेना. उनके अंतर्विरोध लगातार टकराव के रूप में व्यक्त होते हैं, जो उनके लिए ही घातक साबित होते हैं. पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली में इसी नज़रिए का हाथ है.

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे, तो दक्षिण एशिया का न केवल रूपांतरण होगा, बल्कि उस भू-राजनीतिक पहचान का महत्व भी रेखांकित हो सकेगा, जो हजारों वर्षों में विकसित हुई है. इस बात को स्वीकार करना होगा कि भारतीय भूखंड का सांप्रदायिक आधार पर हुआ कृत्रिम राजनीतिक-विभाजन तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार है.

अमेरिका समेत ज्यादातर पश्चिमी देशों ने भारत के उभार को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसके स्थान पर चीन को महत्व दिया. वहीं भारतीय राजव्यवस्था ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने में कम से कम चीन-चार दशक की देरी की. अब चीन हमारे पड़ोस में बड़े निवेश करने की स्थिति में है, जिससे उसे सामरिक लाभ भी मिलता है.

हिंदू-देश की छवि

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है. शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है. मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिंदू-देश के रूप में देखता है. पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है और भारत को दुश्मन की तरह पेश करती है.

इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं. श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिंदू-व्यवस्था माना जाता है. हिंदू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं. वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिंदुओं को भारत-हितैषी माना जाता है.

दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है. पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है.

चीनी सहयोग

कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि भारत को चीन के साथ मिलकर अपने पड़ोस के साथ रिश्ते बेहतर बनाने चाहिए. शायद मोदी सरकार का पहला इरादा ऐसा ही था, पर 2020 के गलवान प्रकरण के बाद इस रास्ते पर बढ़ना देश की आंतरिक राजनीति के दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं रहा. 

दक्षिण एशिया का आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास तभी संभव है, जब भारत की केंद्रीयता को स्वीकार किया जाएगा. यदि भारत के विरुद्ध चीनी-पाकिस्तानी कार्ड खेले जाते रहेंगे. तब तक इस इलाके में स्थिरता आ भी नहीं पाएगी. यह बात पड़ोसी देशों की समझ में भी आनी चाहिए.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित