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Thursday, November 28, 2024

सुलगता पश्चिम एशिया और इस्लामिक-देशों की निष्प्रभावी-एकता


अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद सऊदी अरब की राजधानी रियाद में पिछले 11 नवंबर को हुए अरब और इस्लामी देशों के सम्मेलन को लेकर इस्लामी देशों में ही काफी चर्चा हो रही है. खासतौर से इस बात को लेकर कि इस्लामिक-देशों की कोशिशें सफल क्यों नहीं हो पाती हैं?

यह सम्मेलन ग़ज़ा और लेबनान में इसराइली सैनिक कार्रवाइयों को रोकने के लिए अमेरिका पर दबाव डालने के इरादे से ही बुलाया गया था. माना जाता है कि इस मामले में अमेरिका के नए प्रशासन के दृष्टिकोण पर बहुत कुछ निर्भर करेगा. 

यह शिखर सम्मेलन काहिरा स्थित अरब लीग और जेद्दा स्थित ओआईसी की रियाद में हुई इसी तरह की बैठक के एक साल बाद हुआ. उस सम्मेलन में भी मुस्लिम देशों ने गज़ा में इसराइली कार्रवाइयों की निंदा करते हुए उसे ‘बर्बर’ बताया था.

इसबार के सम्मेलन के प्रस्ताव को देखने पर पहली नज़र में लगता है कि इसमें इसराइल की निंदा-भर्त्सना करने में इस्लामिक देशों ने अपनी एकता ज़रूर साबित की है, पर ऐसी कोई व्यावहारिक योजना पेश नहीं की है, जिससे लड़ाई रुके या फलस्तीन की समस्या का दीर्घकालीन समाधान हो सके.  

सम्मेलन का प्रस्ताव 

सम्मेलन में गज़ा और लेबनान पर इसराइल के फौजी हमले को तत्काल रोकने की माँग की गई है. अलग-अलग देशों के नेताओं ने अपने भावुक भाषणों में इसराइली सेना के ‘भयानक अपराधों’, ‘नरसंहार’ और गज़ा में ‘जातीय सफाए’ की निंदा की और इन मामलों की ‘स्वतंत्र, विश्वसनीय’ अंतरराष्ट्रीय जाँच की माँग की. 

सम्मेलन के समापन के बाद जारी एक बयान में कहा गया कि सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी पक्ष फलस्तीनी लोगों को उनके वैध और अविभाज्य राष्ट्रीय अधिकारों को साकार करने और सभी प्रासंगिक संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों को लागू करने का दृढ़ता से समर्थन करते हैं. 

सभी पक्षों ने संयुक्त राष्ट्र से इसराइल की सदस्यता निलंबित करने और चार्टर के अध्याय 7 के तहत सुरक्षा परिषद से बाध्यकारी प्रस्ताव जारी करने की आवश्यकता की वकालत भी की, ताकि इसराइल को गज़ा पट्टी पर संघर्ष विराम के लिए मज़बूर किया जा सके. 

प्रस्ताव में इसराइली कब्जे को समाप्त करने और ‘4 जून, 1967’ की तारीख को आधार बनाकर स्वतंत्र, संप्रभु फलस्तीनी राज्य की स्थापना करने से जुड़े उपायों का आग्रह किया गया है. इस देश की स्थापना ‘दो-राज्य समाधान’ पर आधारित हो और ‘2002 की अरब शांति-पहल’ के अनुसार हो. इसकी राजधानी अल-क़ुद्स (यरूशलम) हो. 

राजनीति के पेच

उपरोक्त सभी सुझाव पहले से मौज़ूद हैं और समाधान के सूत्र इनमें शामिल हैं, पर व्यावहारिक-राजनीति के कारण वे लागू नहीं हुए हैं और भविष्य में भी इस बात की उम्मीद नहीं है. 

प्रस्ताव में ईरान के दो सुझावों को शामिल नहीं किया गया है, जिसमें एक यह कि  इसराइल के साथ राजनयिक-संबंध बनाने वाले मुस्लिम-देश उसकी ‘मान्यता खत्म करें’. दूसरे ‘महमूद अब्बास के अल-फतह को ही’ फलस्तीनियों का प्रतिनिधि संगठन मानना बंद करें. 

विश्लेषकों का कहना है कि अतीत में इसराइल के ख़िलाफ़ मिस्र, सीरिया और जॉर्डन जैसे देशों ने जो लड़ाइयाँ लड़ी हैं, उनमें राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ फलस्तीनियों की हिफ़ाज़त भी शामिल थी. पर अब वे बीते दिनों की बात हैं. आज इस इलाके का हरेक देश ‘अपने-हित’ की रक्षा करना चाहता है.  

समस्याओँ का घेरा 

बहुत से देश गृह युद्ध में फँसे हुए हैं. यमन, सीरिया और इराक हिंसा से घिरे हैं. सीरिया और इराक़ ताकतवर देश हुआ करते थे, जिन्होंने अमेरिका को चुनौती दी. पर आज वे परिदृश्य से ग़ायब हैं. लीबिया गर्त में चला गया, मिस्र आर्थिक अस्थिरता का शिकार है और सूडान गृह युद्ध में फँसा है.

मिस्र और जॉर्डन ने दशकों पहले इसराइल के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त कर लिए. सऊदी अरब भी 7 अक्टूबर के हमास के हमले से पहले इसराइल के साथ संबंध स्थापित करने के क़रीब था.

57 सदस्यीय ओआईसी और 22 सदस्यीय अरब लीग में वे देश भी शामिल हैं, जो इसराइल को मान्यता देते हैं. पिछले साल रियाद में हुए शिखर सम्मेलन में इसराइल के साथ आर्थिक और राजनयिक-संबंध तोड़ने तथा उसकी तेल आपूर्ति रोकने जैसे सुझावों पर कई देशों की खुली असहमति थी.

ये बातें व्यावहारिक-राजनीति की ओर ही इशारा कर रही हैं. हाल के वर्षों में, अरब देशों ने फलस्तीन के सवाल को दरकिनार करते हुए इसराइल से संबंधों को सामान्य बनाने की इच्छा दिखाई है. 2020 में, यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने ‘अब्राहम समझौते’ के मार्फत अपने रिश्तों को बनाया. उसके पहले 1979 में मिस्र और 1994 में जॉर्डन के साथ इसराइल के रिश्ते सामान्य हो चुके थे. 

फलस्तीनी प्राधिकरण

1978 के कैंप डेविड समझौते के बाद यर्दन नदी के पश्चिमी किनारे और गज़ा में स्वायत्त फलस्तीनी स्वशासन स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की गई थी. इसके बाद 1993 के ओस्लो समझौते ने ‘फलस्तीन राष्ट्रीय प्राधिकरण’ की नींव भी रख दी, जो यासर अरफात के उत्तराधिकारी महमूद अब्बास के अधीन आज भी कायम है. 

अल फतह के नेतृत्व में बना यह प्राधिकरण अंततः स्वतंत्र-फलस्तीन की शक्ल लेता, पर उसके भीतर जबर्दस्त भ्रष्टाचार पनप गया. दूसरी तरफ उसके समानांतर हमास की शक्ल फलस्तीनियों की दूसरी ताकत ने जन्म ले लिया, जिसने गज़ा से महमूद अब्बास के अल फतह को खदेड़ दिया.

इन बातों के बरक्स अब्राहम समझौता हो गया, जिसने अरब-इसराइल संबंधों की बुनियाद डाली और फलस्तीनियों की खुली अनदेखी कर दी. पिछले साल 7 अक्तूबर को हमास ने जिस वक्त हमला बोला, इलाके में इसराइल-सऊदी अरब समझौते की सुगबुगाहट थी. 

कड़ी निंदा!

हमास के हमले और उसके जवाब में एक साल से ज्यादा समय से चल रही इसराइली कार्रवाई के बावज़ूद अरबों ने इसराइल की निंदा करने से ज़्यादा कुछ नहीं किया है. अब साफ नज़र आ रहा है कि ईरान ही इस लड़ाई को आगे ले जा रहा है और वह हमास को फलस्तीनियों का प्रतिनिधि मानता है. 

रियाद के शिखर सम्मेलन में, मुस्लिम देश एक साथ आए और उन्होंने अपना सामूहिक रोष व्यक्त भी किया है. इसके मार्फत उन्होंने इसराइल और अमेरिका दोनों को संदेश दिया है कि पश्चिम एशिया में शांति की स्थापना के लिए फलस्तीन के सवाल का समाधान होना चाहिए. 

सितंबर 2023 में, सऊदी क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान ने कहा था कि हम इसराइल के साथ सामान्यीकरण समझौते को अंतिम रूप देने के मोड़ पर हैं. अमेरिका और इसराइल दोनों मानते हैं कि सऊदी अरब के साथ समझौता फलस्तीन के सवाल के समाधान की दिशा में तार्किक कदम होता. 

यह समझौता क्या होता, यह स्पष्ट नहीं है, पर अब सऊदी अरब कह रहा है कि स्वतंत्र फलस्तीनी राज्य के बिना इसराइल के साथ कोई राजनयिक संबंध स्थापित नहीं होंगे. 

आंतरिक मतभेद 

गज़ा और लेबनान में चल रही लड़ाई का मुस्लिम देशों के आंतरिक-मतभेदों से भी रिश्ता है. इन मतभेदों के सूत्र तुर्की, ईरान और सऊदी की सत्ता में निहित हैं. व्यावहारिक सच यह है कि खाड़ी के अरब देशों ने इसराइल के साथ जो गठबंधन करने की कोशिश की थी, वह गठबंधन एक तरह से ईरान के खिलाफ होता. 

साफ लगता है कि 7 अक्तूबर को हमास की कार्रवाई के पीछे ईरान का हाथ था, पर बात केवल इतनी नहीं है. पिछले एक साल में इसराइल की अंधाधुंध कार्रवाई ने अरब जनता के मन में इसराइल-विरोधी भावनाओं को दृढ़ भले ही किया है, पर अरब देशों की राजधानियों में इसराइल-विरोधी प्रदर्शन नहीं होते. उनकी सरकारें उन्हें काबू में रखती हैं. 

2011 की बहार-ए-अरब या ‘अरब स्प्रिंग’ ने इस इलाके की जनता के मन में लोकतांत्रिक-भावनाओं को भी भरा है. पर उस लोकतांत्रिक-मनोकामना की दिशा भी अस्पष्ट थी. वह सफल भी नहीं हुई. उसे रोकने के लिए भी इस्लाम और अरब राष्ट्रवाद का सहारा लिया गया. लोकतंत्र की यह लड़ाई ईरान के भीतर भी जारी है. सबसे बड़ा सवाल है कि इस लोकतंत्र और संभावित-व्यवस्था की शक्ल कैसी होगी?  

आधुनिकीकरण की विसंगति 

सऊदी अरब और यूएई तेजी से आधुनिकीकरण चाहते हैं. इस आधुनिकीकरण के पीछे औद्योगिक-तकनीकी और उस पूँजी के निवेश की मनोकामना है, जो पेट्रोलियम की देन है. आधुनिकीकरण और लोकतंत्र का चोली-दामन का साथ होता है, पर इस इलाके में लोकतांत्रिक-भावनाएँ परंपरागत तरीके से ही व्यक्त हो रही हैं. 

अरब-शासक राजनीतिक इस्लाम के हमास ब्रांड को राजशाही के लिए खतरा मानते हैं. हमास के पीछे जनभावनाएँ हैं, पर उसके पास भी मध्य-युगीन तौर-तरीके हैं. 7 अक्तूबर से पहले इसराइल और खाड़ी के अरब देशों को अमेरिका एक दूसरे के करीब ले आया था. इसराइल ने अमेरिकी आशीर्वाद से ईरान के खिलाफ संयुक्त रक्षात्मक गठबंधन की योजना बना ली थी.  

इस कोशिश में अनदेखी फलस्तीन की हो रही थी. इस बात ने हमास पर आक्रामक कार्रवाई करने का दबाव डाला. लड़ाई ने  फलस्तीन के मुद्दे को फिर से केंद्र में खड़ा ज़रूर कर दिया है, पर फलस्तीनी-स्वायत्तता के सवाल को पीछे धकेल दिया है. 

सैद्धांतिक-एकता

वर्तमान परिस्थितियों ने मुस्लिम देशों को सैद्धांतिक रूप से एकसाथ आने को मजबूर किया है. मौजूदा परिस्थितियों में इन देशों का एक मंच पर आना भी उपलब्धि है, बावजूद इसके कि वे व्यावहारिक रूप से एकसाथ नहीं हैं. 

रियाद सम्मेलन का क्या असर होगा, इसे लेकर पर्यवेक्षकों की अपनी-अपनी राय है, पर इस मंच पर ही मुस्लिम देशों के मतभेद उजागर हो गए. सम्मेलन के दौरान ही सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद ने तुर्की की ओर इशारा कर ही दिया. 

तुर्की और सीरिया के खराब रिश्ते भी इस्लामिक-एकता में आड़े आते हैं. दोनों देशों के रिश्तों में गिरावट आज की बात नहीं है. इनके खराब होने की शुरुआत 1998 में हुई जब तुर्की ने सीरिया सरकार पर आरोप लगाया कि वह कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी का समर्थन कर रही है. 

उधर क़तर ने हमास और इसराइल के बीच मध्यस्थता से हाथ खींच लिए हैं. इससे पहले मिस्र ने अपने हाथ खींच लिए थे. मुस्लिम देश चाहें, तो इसराइल के साथ आर्थिक और राजनयिक-संबंधों को रोकना तो उनके हाथ में ही है. किसी भी वक्त रिश्ते तोड़े जा सकते थे. 

जिस समय ये देश रियाद में एकजुटता का संकल्प कर रहे थे, तब इसराइली विदेशमंत्री ने कहा कि फलस्तीन को राज्य का दर्जा ‘यथार्थवादी विचार नहीं है.’ इतना ही नहीं उसके वित्तमंत्री ने कहा कि कब्जे वाले वेस्ट बैंक को अपने में मिलाने की योजना तैयार है. 

ट्रंप की भूमिका

जहाँ तक अमेरिका का सवाल है, यह बात पिछले एक साल में स्पष्ट हो चुकी है कि वह इसराइल का समर्थन करता रहेगा. जो बाइडेन ने जो किया सो किया, डोनाल्ड ट्रंप अपने पहले कार्यकाल में उनसे भी एक कदम आगे रहे हैं. 

यरुशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर तथा वाशिंगटन का दूतावास वहाँ स्थानांतरित करके वैश्विक आमराय को वे पहले ही चुनौती दे चुके हैं. कब्जे वाले पश्चिमी तट पर इसराइली बस्तियाँ बसाने का भी वे समर्थन करते रहे हैं. अब्राहम समझौता उनके कार्यकाल की ही देन है. 

बहरहाल अब सऊदी अरब रियाद-सम्मेलन की आमराय का इस्तेमाल करते हुए ट्रंप की टीम से कहेगा कि फलस्तीन की स्थापना पहले होनी चाहिए. अमेरिका को पश्चिम एशिया में सऊदी अरब की ज़रूरत अब भी है, क्योंकि उसका चीन के बढ़ते प्रभाव से भी सामना है. मार्च 2023 में, ईरान और सऊदी अरब ने सात साल से टूटे हुए रिश्तों को चीन की मध्यस्थता में जोड़ लिया. 

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित





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