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Thursday, April 18, 2024

पश्चिम एशिया के विस्फोटक हालात और ‘फोकस’ से हटता फलस्तीन


पिछले साल 7 अक्तूबर से ग़ज़ा में शुरू हुई लड़ाई के बजाय खत्म होने के ज्यादा बड़े दायरे में फैलने का खतरा पैदा हो गया है. ईरान ने इसराइल पर सीधे हमला करके एक बड़े जोखिम को मोल जरूर ले लिया है, पर उसने लड़ाई को और ज्यादा बढ़ाने का इरादा व्यक्त नहीं किया है. दूसरी तरफ इसराइल का कहना है कि यह हम तय करेंगे कि अपनी रक्षा कैसे की जाए.  

ईरान ने इस सीमित-हमले की जानकारी पहले से अमेरिका को भी दे दी थी. उधर अमेरिका ने इसराइल को समझाया है कि अगला कदम उठाने के पहले अच्छी तरह उसके परिणामों पर विचार कर लेना. अमेरिका ने संरा सुरक्षा परिषद में यह भी कहा है कि ईरान ने यदि हमारे या इसराइली रक्षा-प्रतिष्ठानों पर अब हमला किया, तो उसके परिणामों का जिम्मेदार वह होगा.

ईरान का कहना है कि हमारे दूतावास पर इसराइल ने हमला किया था, जिसका जवाब हमने दिया है. अब यदि इसपर जवाबी कार्रवाई हुई, तो हम ज्यादा बड़ा जवाब देंगे. हम ऐसा हमला करेंगे, जिसका आप मुक़ाबला नहीं कर पाएंगे.

यह टकराव कौन-सा मोड़ लेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अब इसराइली प्रतिक्रिया क्या होगी. इसराइल के अलावा जी-7 देशों, खासतौर से अमेरिका का रुख भी महत्वपूर्ण है. फिलहाल लगता है कि दोनों पक्ष इसे बढ़ाना नहीं चाहते, पर अगले दो-तीन दिन के घटनाक्रम पर नज़र रखनी होगी. दुनिया भर के देशों ने भी दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है.

बदलता परिदृश्य

लड़ाई का रुख ईरान और इसराइल के बीच हुआ, तो हालात में कुछ बड़े बदलाव आ जाएंगे. एक तो इस इलाके में दूसरी ताकतों, खासतौर से रूस और चीन की भूमिका बढ़ेगी और दूसरे दुनिया का ध्यान गज़ा से हटकर ईरान पर आ जाएगा. इसराइल की आड़ में पश्चिमी देशों को ईरान को निशाना बनाने का मौका भी मिल सकता है.  

ऐसा हमला समझदारी से भरा कदम नहीं होगा. एक तरह से इसका मतलब होगा विश्वयुद्ध. कम से कम भारत ऐसी किसी स्थिति को पसंद नहीं करेगा. ईरानी मिसाइल-प्रहार के बाद भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा, हम इस बात को लेकर बेहद चिंतित हैं और हिंसा के बजाय राजनय के ज़रिए समाधान निकालने के पक्षधर हैं.

पश्चिम एशिया में हालात बिगड़ने का मतलब है भारत के ऊर्जा-हितों पर आघात. ईरान और इसराइल दोनों के साथ हमारे अच्छे संबंध हैं. इन्हें बनाए रखना ही हमारे हित में है.

गत 1 अप्रेल को सीरिया के दमिश्क शहर में ईरानी दूतावास पर हुए इसराइली हमले के बाद टकराव ने यह रूप लिया है. उस हमले में एक वरिष्ठ ईरानी कमांडर समेत 13 लोगों की मौत हो गई थी. मरने वालों में ईरान की एलीट क़ुद्स फोर्स के कमांडर ब्रिगेडियर-जनरल मोहम्मद रज़ा ज़ाहिदी और उनके डिप्टी ब्रिगेडियर-जनरल मोहम्मद हादी हाजी-रहीमी का नाम शामिल है.

ईरानी कार्रवाई

ईरान की जवाबी कार्रवाई के पहले 12 अप्रेल को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ईरान को आगाह किया था कि वह इसराइल पर हमला करने का कदम न उठाए, पर उन्होंने यह भी माना था देर-सबेर हमला होगा. हमले के बाद अमेरिका ने इसराइल के प्रति अपने लौह-समर्थन को दुहराया है.

इसराइल इस हमले के लिए पहले से तैयार था. उसका दावा है कि 99 फीसदी ड्रोनों और मिसाइलों को रास्ते में ही ध्वस्त कर दिया गया. ईरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशन गार्ड कोर (आईआरजीसी) ने कहा है कि ‘ख़ास लक्ष्यों’ को निशाना बनाने के मक़सद से हमला किया गया था.

इसराइली सेना के सूत्रों ने बताया कि 300 से ज़्यादा ड्रोन छोड़े गए. धीमी गति से चलने वाले ये ड्रोन सामान्यतः ईरान से इसराइल तक आने में नौ घंटे का समय लेते हैं. ये ड्रोन और मिसाइल ईरान, इराक, यमन और सीरिया से छोड़े गए थे.

अमेरिकी समर्थन

ईरान मानता है कि इसराइली दुस्साहस के पीछे उसे मिल रहा अमेरिकी समर्थन है. सैन्य-विशेषज्ञों मानना है कि अमेरिका पूरी तरह से इसराइल के पीछे है, इसलिए हमास या फलस्तीनियों के दूसरे लड़ाके फौजी तरीकों से अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाएंगे. वे यह भी कहते हैं कि इस गलतफ़हमी में नहीं रहना चाहिए कि इसराइल को अमेरिकी समर्थन में कमी आएगी.

गत 25 मार्च को अमेरिका ने सुरक्षा परिषद की एक बैठक में एक प्रस्ताव के पास होते समय अनुपस्थित रहकर इस संदेह को जन्म दिया था कि संभवतः अमेरिकी रुख में बदलाव आ रहा है. उस प्रस्ताव में माँग की गई थी कि गज़ा में तत्काल युद्ध रोका जाए. इसके पहले अमेरिका ऐसे ही प्रस्तावों को वीटो करता रहा है.

इसराइल के आत्मरक्षा के अधिकार और हमास के पास फँसे बंधकों की वापसी दोनों बातों का अमेरिका समर्थक है. इन दोनों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वह युद्ध जारी रखने की इसराइली मुहिम का समर्थक भी है. फिर भी मतदान से अमेरिकी अनुपस्थिति, अमेरिकी नीति में बदलाव की ओर इशारा कर रही है. इसराइल ने इस बात को पसंद नहीं किया है.

इसराइल पर दबाव

अमेरिकी राजनीति में बिन्यामिन नेतन्याहू के कड़े रुख के आलोचक भी मुखर हो रहे हैं. इसराइल में भी नेतन्याहू-विरोधी प्रबल हैं, पर सच यह है कि नेतन्याहू प्रधानमंत्री हैं और उनकी चलेगी. यों बढ़ते दबावों के कारण इसराइल ने गज़ा के लोगों को सहायता पहुँचाने के नए रास्तों को खोलने पर सहमति भी दी है.

वैश्विक आमराय है कि इसराइल की स्थापना पश्चिमी देशों ने फलस्तीनियों की ज़मीन पर कब्ज़ा करके की है. चूंकि यहूदियों की पवित्र भूमि भी इसी इलाके में है, इसलिए राज्य-विहीन यहूदियों के लिए एक देश यहाँ बनाया भी जाए, तो इस काम के लिए फलस्तीनियों की सहमति भी होनी चाहिए.

समस्या का टू स्टेट समाधान संभव है. इस दिशा में बढ़ने के प्रयास भी होते हैं, पर उसमें भी अड़ंगे लग जाते हैं. इस समाधान को हासिल करने में अरब देशों की भूमिका है. हाल के वर्षों में अमेरिकी प्रयास से अरब देशों ने इसराइल के साथ रिश्तों को सुधारा है, पर ईरान उनसे सहमत नहीं है.

हमास का हमला

7 अक्तूबर का हमास का हमला अरब-इसराइल समझौते की संभावना को रोकने का प्रयास था. पर उसका असर क्या हुआ? इसराइल साबित कर रहा है कि वह हमास को तबाह कर देगा. पर हमास की तबाही से फलस्तीनी आकांक्षाएं खत्म नहीं होंगी. समस्या का स्थायी समाधान होना चाहिए, जो दोनों पक्षों को स्वीकार हो.

लंबे अरसे से इस इलाके में बड़ी लड़ाई नहीं हुई थी. हमास और हिज़बुल्ला की सैन्य शक्ति में बहुत इज़ाफा भी हुआ है. लगता था कि इसराइल बड़ी कार्रवाई नहीं कर पाएगा. पर इसराइल ने ताबड़तोड़ कार्रवाई की है, जिसका खामियाजा फलस्तीनी नागरिकों को उठाना पड़ा है. इसराइल उन्हें भूखों मार देने की योजना पर काम कर रहा है. क्या दुनिया इसराइल को रोक पाएगी?

ईरान क्या करेगा?

सवाल यह भी है कि इस हमले के बाद ईरानी भूमिका अब क्या होगी? सीरिया में ईरानी दूतावास पर हमले के अलावा पिछले हफ्ते उत्तरी गज़ा पट्टी में हुए एक इसराइली हवाई हमले में हमास के नेता इस्माइल हानिया के तीन बेटों की जान चली गई. हमास का दावा है कि इस हमले में हानिया का एक पोता और तीन पोतियां भी मारे गए.

फलस्तीन के प्रश्न को लेकर ईरान चुप नहीं रहेगा. यदि वह चुप रहा, तो यह उसकी कमज़ोरी मानी जाएगी. वह हिज़बुल्ला, हमास और हूतियों का समर्थन करते रहेगा. हमास और ईरान-समर्थित हिज़बुल्ला को दुनिया के उन 'नॉन स्टेट मिलिट्री फोर्सेज़' में शुमार किया जाता है, जिनके पास भारी मात्रा में हथियार हैं. गज़ा की लड़ाई के शुरूआती दिनों में हिज़बुल्ला ने भी रॉकेट और ड्रोन्स से हमले किए.

लड़ाई लाल सागर और फारस की खाड़ी से होते हुए अरब सागर के मुहाने तक आ चुकी है. यमन में ईरान समर्थित हूती-लड़ाकों के पास भी मिसाइल और ड्रोन हैं.

फलस्तीन को मान्यता

उधर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की समिति में फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र के पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार करने पर विचार हुआ, पर आमराय नहीं बन सकी. अब इस प्रस्ताव पर शुक्रवार 19 अप्रेल को मतदान होगा. संरा में महमूद अब्बास के अल-फतह ग्रुप को फलस्तीन के रूप में मान्यता प्राप्त है. दुनिया के कुछ देश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसराइल को नरसंहार का दोषीठहराने का प्रयास भी कर रहे हैं, पर वे सफल नहीं हुए हैं.  

1993 के ओस्लो समझौते के बाद शुरू हुआ फलस्तीनी अथॉरिटी का प्रयोग विफल हो गया है. आम फलस्तीनी के मन में अल-फतह और हमास दोनों के प्रति नाराज़गी बढ़ रही है. कोई वैकल्पिक नेतृत्व उभरता हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है.

एक सवाल यह भी है कि समझौता होने की नौबत आए भी तो कौन किससे समझौता करेगा?  हम जिस ‘टू स्टेट समाधान’ की बात कर रहे हैं, क्या वह हमास को स्वीकार है? ‘टू स्टेट’ यदि समाधान है, तो अरब देशों ने 1948 में तभी उसे क्यों नहीं मान लिया, जब संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव पास किया था?

भारी तबाही

गज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले रविवार को बताया कि लड़ाई में कम से कम 33,729 लोगों की मौत हो चुकी है और 76,371 लोग घायल हुए हैं. यह संख्या हर रोज़ बढ़ रही है. इनमें ज्यादातर स्त्रियाँ और बच्चे हैं. इसराइल का कहना है कि 7 अक्तूबर को हमास के हमले में करीब 1200 लोगों की जान गई थी, जिनमें 300 से ज्यादा सैनिक थे. उसके बाद के युद्ध में 260 सैनिकों की मौत और हुई है. इनके अलावा 8,700 से ऊपर इसराइली घायल हुए हैं और 134 बंधक अभी हमास की हिरासत में बताए जाते हैं.  

नरसंहार के आरोप

इसराइल पर इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे) के मार्फत भी दबाव बढ़ रहा है, पिछले साल दक्षिण अफ्रीका ने उसपर नरसंहार का आरोप लगाया था, और पिछले हफ्ते 8 अप्रेल को लैटिन अमेरिकी देश निकरागुआ ने आईसीजे से माँग की कि वह जर्मनी के खिलाफ कार्रवाई करे, जो इसराइल की सहायता कर रहा है.

निकरागुआ ने इसराइल को वित्त पोषण देने और संयुक्त राष्ट्र फलस्तीनी शरणार्थी एजेंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) की सहायता में कटौती करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जर्मनी पर मुकदमा दायर किया है. इस शिकायत के बाद जर्मनी और अमेरिका दोनों ने कहा कि इसराइल आत्मरक्षा में कार्रवाई कर रहा है और उसपर नरसंहार के आरोपों में दम नहीं है.

इसके पहले दक्षिण अफ्रीका के आवेदन पर पिछली 26 जनवरी को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने अनंतिम आदेश में ग़ज़ा के हालात को 'विनाशकारी' माना था और यह भी माना कि स्थिति इससे भी ज्यादा ख़तरनाक़ शक्ल अख़्तियार कर सकती है.

रास्ता क्या है?

इस इलाके में करीब 30 करोड़ अरब आबादी के बीच करीब 90 लाख की यहूदी आबादी के साथ इसराइल आबाद होने में सफल है, तो इसकी वजह उसे पश्चिमी देशों से मिल रहा समर्थन है. लड़ाइयाँ वास्तविकता की ज़मीन पर लड़ी जाती हैं. फलस्तीनियों के दो बड़े संगठनों हमास और अल फतह के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं. उनसे हमदर्दी रखने वाले मिस्र, जॉर्डन, लेबनॉन और सऊदी अरब के भीतर इसराइल से लड़ने की न तो इच्छा है और न साधन.

गज़ा की वर्तमान लड़ाई के छह महीने हो चुके हैं. यह कब तक चलेगी, कहना मुश्किल है. तबाही का जो मंज़र है, उससे लगता है कि बहुत लंबा समय यहाँ के घाव भरने में लगेगा. इस परिस्थिति में यदि ईरान भी युद्ध में कूदा, तो लड़ाई का परिदृश्य बदल जाएगा. पर क्या इससे फलस्तीनियों को न्याय मिल जाएगा? इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिशें होनी चाहिए.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

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