पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो यह हफ्ता होली का है। गिले-शिकवे मिटाने का पर्व। केवल गिले-शिकवों की बात ही नहीं है, होली हमें ऊँच-नीच की भावनाओं से भी दूर ले जाती है। वह मनुष्य-मात्र की एकता का संदेश देती है। इस दिन हम सबको गले लगाते हैं। उसकी जाति-धर्म, अमीर-गरीबी देखे बगैर। इसका मतलब है हुड़दंग, मस्ती और ढेर सारे रंग। हम अपने पर्वों और त्योहारों में उस जीवन-दर्शन को खोज सकते हैं, जो हजारों वर्षों की विरासत है।
इसके पहले कि इस विरासत की परिभाषा बदले, उसे
अक्षुण्ण बनाने के प्रयास भी होने चाहिए। दुर्भाग्य से होली के साथ भी कुछ फूहड़
बातें जुड़ गईं हैं, जिन्हें दूर करने का प्रयास होना चाहिए। परंपराओं के साथ
नवोन्मेष और विरूपण दोनों संभावनाएं जुड़ी होती हैं। आधुनिक जीवन और शहरीकरण के
कारण इनके स्वरूप में बदलाव आता है। पर मूल-भावना अपनी जगह है। बाजारू संस्कृति ने
इस आनंदोत्सव को कारोबारी रूप दिया है। वहीं कल्याणकारी भावनाएं इसे सकारात्मक
रास्ते पर ले जा सकती है, बशर्ते वे कमज़ोर न हों।
संयोग से होली के इस आनंदोत्सव के दौर के साथ हम लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव भी मना रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा सक्रिय लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र यदि 130 करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या के जीवन में खुशहाली लाने का काम करने में कामयाब हो गया, तो यह हमारे लिए सबसे बड़े गौरव की बात होगी। विचार करें कि क्या आप अपने इस पर्व का लोकतंत्र के पर्व को सही रास्ता दिखाने में इस्तेमाल कर सकते हैं। क्या ऐसा करेंगे?
आप भारत और भारतीयता की परिभाषा समझना चाहते
हैं, तो इस बात को समझना होगा कि इन पर्वों और
त्योहारों के इर्द-गिर्द हमारी सांस्कृतिक-एकता काम करती है। इसके माध्यम से हम न
केवल इस एकता को, बल्कि इसके पीछे छिपी कल्याणकारी भावना को बढ़ा भी सकते हैं। होली
का मतलब है अपने राग-द्वेष भुलाकर हम खुशियों के रंगों से अपने जीवन को सराबोर
करें। हमेशा के लिए संभव नहीं, तो कुछ देर के लिए ही सही।
चार महीनों की ठंडक के कारण जड़ीभूत
निष्क्रियता के बाद मौसम बदलते ही सक्रियता और जीवंतता के रंग घोलें। उत्तर भारत
में और खासतौर से उत्तराखंड में होली के एक महीने पहले से घर-घर होली के गीतों का
गायन शुरू हो जाता है। इस बहाने लोग एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते हैं। ब्रज की होली
का माहौल ही अलग होता है। राधा-कृष्ण, ग्वालों और गोपियों के माध्यम से उन भावनाओं
की अभिव्यक्ति होती है, जो हमारे मन में हैं।
उत्तर भारत के ज्यादातर होली-गीतों की थीम
राधा-कृष्ण और यमुना नदी के इर्द-गिर्द होती है। इनमें हमारी संस्कृति बोलती है। कई
जगह इसे दही-हांडी, रंगों के खेल और सामुदायिक साथ भोज के
साथ मनाया जाता है। मूलतः यह फसल का उत्सव, बदलते मौसम का पर्व और जीवन-शैली का
त्योहार है। यह वसंत का संदेशवाहक है। वसंत पंचमी से ही फाग और धमार का गायन प्रारंभ
हो जाता है। प्रकृति भी इस समय खिली हुई होती है। सरसों के पीले फूल धरती को रंग
देते हैं। गेहूँ की बालियाँ निकल आती हैं। आम पर बौर फूलने लगते हैं। किसान खुश
होकर गीत गाते हैं। यों भी हमारे भारत के प्रायः सभी त्योहार फसल और मौसम से जुड़े
हैं।
दुनिया के सबसे पुराने त्योहारों में से एक है
होली। खुशी, मनुष्य की प्राचीनतम अभिव्यक्ति। इसी समय ईरान का नौरोज़ यानी नए साल
का पर्व मनाया जाता है। हालांकि इसे भारतीय भूखंड में खासतौर से मनाते हैं, पर
दुनिया के तमाम देशों में इसका कोई न कोई रूप देखने को मिलता है। इतिहासकारों के
अनुसार आर्यों में इस पर्व का प्रचलन था। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ से प्राप्त ईसा
से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली मनाए जाने का उल्लेख मिलता है। पुराने
ग्रंथों जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गाहय-सूत्र, नारद
पुराण और भविष्य पुराण में मिलता है। ग्यारहवीं सदी में फारस से आए विद्वान
अल-बिरूनी ने भी अपने होली मनाने का उल्लेख किया है। इसका प्रारंभिक नाम होलाका
बताया जाता है।
हिंदू पंचांग के अनुसार यह फाल्गुन मास की
पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसे दो दिन मनाते हैं। पहले दिन होलिका जलाई जाती है।
दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी,
धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग
एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल वगैरह फेंकते हैं। ढोल बजा
कर गीत गाए जाते हैं। होलिका दहन के समय खेत में खड़ी फसल से गेहूँ और हरे चने की बालियाँ
लाकर भूनी जाती हैं। इन्हें होरा या होला भी कहते हैं। यह हजारों साल पुरानी
परंपरा है। यह फसल का सम्मान है, उसके साथ जुड़ा आह्लाद है।
होलिका दहन भी खुशी मनाने की प्राचीनतम
परंपराओं में से एक है, जो दुनिया में अलग-अलग रूप में दिखाई पड़ती है। ऐसे
त्योहार कहीं सर्दी शुरू होने के पहले शरद ऋतु में मनाए जाते हैं और कहीं सर्दी
खत्म होने के बाद बसंत ऋतु में। इसके साथ राग-द्वेष और संकीर्णता पर सद्गुणों की,
बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत भी जुड़ी है। भागवत पुराण में हिरण्यकश्यप और
प्रह्लाद की कहानी का संदेश भी यही है। मथुरा में आज भी गलियों में सिंह अवतार का
मंचन होता है। उस परंपरा के साथ राधा-कृष्ण की होली भी जुड़ गई।
दुनिया में कई जगह इससे मिलते-जुलते पर्व मनाए
जाते हैं। थाईलैंड में भी सौंगक्रान नाम के पर्व में वृद्धजन इत्र मिश्रित जल
डालकर महिलाओं, बच्चों और युवाओं को आशीर्वाद देते
हैं। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला जलाया जाता है और लोग एक-दूसरे पर रंग
डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली के अनुरूप ही है। अफ्रीका में ओमेना वोंगा के नाम
से होली जैसा पर्व मनाया जाता है। पोलैंड में आर्सिना पर्व पर लोग एक दूसरे पर रंग
और गुलाल मलते हैं।
अमेरिका में मेडफो नामक पर्व में लोग गोबर तथा
कीचड़ से गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंकते हैं। चेक और स्लोवाकिया में बोलिया
कोनेन्से त्योहार पर युवक-युवतियां एक दूसरे पर पानी व इत्र डालते हैं। हॉलैंड का
कार्निवल होली-की मस्ती से भरपूर है। बेल्जियम की होली भारत जैसी होती है। इटली
में रेडिका त्योहार में चौराहों पर लकडि़यों के ढेर जलाए जाते हैं और एक दूसरे को
गुलाल लगाते हैं। रोम में सेंटरनेविया और यूनान में मेपोल ऐसे ही पर्व हैं। स्पेन
के ला टोमाटिना में लोग एक-दूसरे को टमाटर मारकर होली खेलते हैं। लाओस में यह पर्व
नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं।
म्यांमर में इसे जल पर्व के नाम से जाना जाता है। जापान, दक्षिण
कोरिया और वियतनाम में एक-दूसरे को मिट्टी से रंगने का त्योहार मनाया जाता है।
भारत के अलग-अलग राज्यों में होली को अलग-अलग
नामों से जाना जाता है और अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है: पंजाब में होला
मोहल्ला, आंध्र में मेदुरू होली, महाराष्ट्र में रंग पंचमी, गोवा और कोंकण में शिग्मो,
गुजरात में गोविंद होली, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में डोल पूर्णिमा, कर्नाटक में कामना
हब्बा, केरल में मंजल कुली और उक्कुली, असम में फकुवा और मणिपुर में याओसांग। यह
सूची पूरी नहीं है। इस पर्व के अनेक रूप हैं, और अनेक अर्थ हैं। इसे नया अर्थ आप
दे सकते हैं।
हिंदी ट्रिब्यून में प्रकाशित
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