गज़ा में हमास के खिलाफ चल रही इसराइली सैनिक कार्रवाई को लेकर इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे) का पहला आदेश पहली नज़र में खासा सनसनीख़ेज़ लगता है, पर उसे ध्यान से पढ़ें, तो लगता नहीं कि लड़ाई रोकने में उससे मदद मिलेगी.
बहुत से पर्यवेक्षकों को इस आदेश का मतलब एक
राजनीतिक वक्तव्य से ज्यादा नहीं लगता. वस्तुतः अदालत ने इसराइल से लड़ाई रोकने को
कहा भी नहीं है, पर जो भी कहा है, उसपर अमल करने के लिए इसराइल के फौजी अभियान की
प्रकृति में बदलाव करने होंगे. यकीनन अब इसराइल पर लड़ाई में एहतियात बरतने का
दबाव बढ़ेगा.
अदालत ने कहा है कि दक्षिण अफ्रीका ने इसराइल
पर जिन कार्यों को करने और जिनकी अनदेखी करने के आरोप लगाया है, उनमें से कुछ
बातें नरसंहार के दायरे में रखी जा सकती
हैं. इसराइल का दावा है कि वह आत्मरक्षा में लड़ रहा है और युद्ध के सभी नियमों का
पालन कर रहा है.
यह भी सच है कि आईसीजे के सामने युद्ध-अपराध का मुकदमा नहीं है. उसका रास्ता अलग है, पर इस अदालत ने इसराइल को सैनिक कार्रवाई में सावधानी बरतने के साथ एक महीने के भीतर अपने कदमों की जानकारी देने को भी कहा है.
विनाशकारी स्थिति
दक्षिण अफ्रीका के आवेदन पर पिछली 26 जनवरी को
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने अनंतिम आदेश में ग़ज़ा के हालात को 'विनाशकारी' माना और यह भी माना कि स्थित इससे भी
ज्यादा ख़तरनाक़ शक्ल अख़्तियार कर सकती है.
अदालत ने साफ शब्दों में इसराइल से कहा है कि
वह ‘यह सुनिश्चित करे कि उसकी सेना गज़ा में
नरसंहार से बचे और नरसंहार के प्रयास करने वालों को सज़ा दे.’ साथ ही कोशिश करे कि इस इलाके में और ज्यादा सहायता
पहुँचे.
इतना कहने के बाद
अदालत ने यह नहीं कहा कि इसराइल लड़ाई खत्म करे. बल्कि कहा कि इसराइल को भी
आत्मरक्षा में कार्रवाई करने का अधिकार है. इससे केवल ध्वनि यह निकलती है कि अदालत
को इसराइल के तौर-तरीकों को लेकर आपत्ति है.
उसने इसराइल को एक
महीने का समय यह बताने के लिए दिया है कि उसने इस सिलसिले में क्या कदम उठाए हैं.
इससे यह ज़रूर लगता है कि उसने भविष्य में किसी और आदेश की संभावना को खुला रखा
है. 17 जजों की अदालत ने जो छह आदेश दिए हैं, उनमें से तीन 15-2 के बहुमत से हैं.
इनमें एक जज इसराइल द्वारा मनोनीत भी है.
नरसंहार का
आरोप
अदालत के इस फैसले पर
कोई टिप्पणी करने के पहले दक्षिण अफ्रीका के मुकदमे पर भी ध्यान देना होगा. उसने
1948 की नरसंहार संधि के तहत यह मुकदमा दायर किया है. नरसंहार शब्द की राजनीतिक
व्युत्पत्ति के कारण भी यह मसला दूसरी दिशा में चला गया है. फौरी तौर पर कोई बुनियादी
आदेश जारी करना अदालत के लिए मुश्किल है. नरसंहार का मुकदमा बरसों तक चल सकता है. इसे
साबित करने के लिए बहुत सारे सबूतों को जुटाना पड़ता है.
इस मामले में 11 और 12 जनवरी को हेग में सुनवाई
हुई और 26 को अदालत ने एक अनंतिम आदेश जारी किया. उधर अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक
न्यायालय (आईसीसी) पहले ही हमास और इसराइल दोनों द्वारा किए गए संभावित युद्ध
अपराधों और मानवता के खिलाफ अपराधों की जांच कर रहा है. आईसीसी केवल व्यक्तियों पर
मुकदमा चलाने का आदेश देता है, जबकि आईसीजे देशों के बीच टकरावों का फैसला करता है.
इसराइल क्या करेगा?
अब देखना होगा कि अदालत ने जो कदम उठाने को कहा
है, उनके संदर्भ में इसराइल क्या कर रहा है. और यह भी कि दक्षिण अफ़्रीका ने जो मांगें
रखी थीं, उनमें से कितनी मानी गईं. 84 पेज के अपने आवेदन
में, दक्षिण अफ्रीका ने आरोप लगाया था कि गज़ा में इसराइल
का आचरण नरसंहार संधि का उल्लंघन है.
दक्षिण अफ्रीका ने जो उपाय माँगे थे, उनमें तथ्य-खोज
मिशन, अंतर्राष्ट्रीय जनादेश और अन्य निकायों की गज़ा
तक पहुँच प्रदान करके मामले से संबंधित किसी भी सबूत को नष्ट होने से रोकना भी शामिल
है. अदालत से अनंतिम उपाय के रूप में अंतरिम आदेश जारी करने का आग्रह भी किया गया था,
जिसमें तत्काल युद्धविराम शामिल था.
इस मामले में दक्षिण अफ्रीका के अधिकार को लेकर
भी कुछ लोगों ने सवाल उठाए हैं. संधि का अनुच्छेद 9 किसी भी राज्य को आईसीजे में किसी
दूसरे राज्य के खिलाफ मामला शुरू करने की अनुमति देता है, भले
ही वह सीधे तौर पर संघर्ष में शामिल न हो. उदाहरण के लिए, दिसंबर
2022 में कोर्ट ने फैसला सुनाया कि गैम्बिया म्यांमार के खिलाफ नरसंहार का दावा ला
सकता है.
बाध्यकारी आदेश
हालांकि कानूनन आईसीजे के फैसले बाध्यकारी होते
हैं, पर देखना होगा कि इस समय उसने इसराइल को जो सुझाव दिए हैं, उन्हें इसराइल किस
हद तक मानेगा. मार्च 2022 में, आईसीजे ने रूस को यूक्रेन पर अपने आक्रमण रोकने
का आदेश दिया था. वह आदेश कानूनन बाध्यकारी था, पर
रूस ने उसकी अनदेखी की.
दक्षिण अफ़्रीका ने संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन
के कथित उल्लंघन को लेकर कार्रवाई की माँग के लिए 29
दिसंबर, 2023 को अदालत में यह मुकदमा दायर किया था. इसमें
कहा गया था कि ग़ज़ा में फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ इसराइल जो कर रहा है वह जनसंहार
है क्योंकि उसकी कार्रवाई फ़लस्तीनी क्षेत्र में रहने वाले नस्लीय समूह की बड़े
पैमाने पर तबाही के इरादे से चल रही है.
इसमें कोर्ट से माँग की गई थी कि वह तय करे कि ग़ज़ा
में फ़लस्तीनियों के साथ जो कर रहा है क्या वह जनसंहार है?
साथ ही उसने कोर्ट से यह गुजारिश भी की थी कि वह इसराइल को अपना सैन्य अभियान बंद
करने का आदेश दे. दूसरी तरफ आईसीजे ने अपने आदेश में माना है कि 7 अक्तूबर को हमास
के हमले के बाद इसराइल को आत्मरक्षा का अधिकार है.
गज़ा की तबाही
11 जनवरी को अदालत ने दक्षिण अफ़्रीका के वकील
टेम्बेका एनजीकुकेतोबी की दलील सुनी. उन्होंने कहा कि इसराइल की योजना ग़ज़ा को
तबाह करने की है, जिसके लिए देश के उच्चतम स्तर पर समर्थन मिला हुआ है. मुकदमे की
पैरवी कर रही एक और वकील आदिला हाशिम ने कहा कि अदालत के अलावा कोई भी और चीज़ ऐसी
नहीं है, जो यहाँ के लोगों को इस संकट से बचा सके.
इसके जवाब में इसराइली वकील ताल बेकर ने कहा कि
दक्षिण अफ़्रीका सच को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है. हम मानते हैं कि ग़ज़ा में आम
नागरिक जो कष्ट झेल रहे हैं वह त्रासद है. इसराइल इसे कम करना चाहता है, पर हमास इसे
बढ़ाना चाहता है.
एहतियात का दावा
इसराइली सेना ने कहा है कि हमारे हमलों में आम
नागरिकों को कम से कम नुक़सान हो इसके लिए हम हर तरह के कदम उठा रहे हैं. हमलों के
बारे में पहले से जानकारी देने वाले पर्चे गिराने, किसी
इमारत को निशाना बनाने से पहले आम नागरिकों को फ़ोन कर उन्हें इमारत खाली करने को
कहना और रास्ते में आम लोगों के होने पर हमला रोकने जैसे कदम इसमें शामिल हैं.
इसराइल कहता है कि हमारे हमलों का निशाना हमास
के ठिकाने हैं, आम फ़लस्तीनी नागरिक नहीं. हमास ग़ज़ा के घनी आबादी वाले कस्बों और
शरणार्थी शिविरों के नीचे (सुरंगों से) से काम करता है, जिस
वजह से इसराइल के लिए आम लोगों की मौत को रोक पाना लगभग असंभव है.
नरसंहार संधि
संयुक्त राष्ट्र
महासभा ने 9 दिसंबर, 1948 को अपनी पहली मानवाधिकार संधि में नरसंहार
को अपराध के रूप में संहिताबद्ध किया था. यह संधि 12 जनवरी, 1951 को लागू हुई थी. इस संधि (जेनोसाइड कन्वेंशन) के
अनुच्छेद 2 के मुताबिक, नरसंहार का
मतलब है, किसी राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को पूरी तरह या आंशिक रूप से
नष्ट करने के उद्देश्य से की गई कार्रवाई.
नरसंहार संधि की जरूरत
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद महसूस की गई. इसका एक बड़ा कारण जर्मनी में यहूदियों के
खिलाफ हुई नाज़ी क्रूरता थी. पर उसके पहले तुर्की के उस्मानिया साम्राज्य के दौर
में आर्मेनियाई लोगों की बड़े स्तर पर हुई हत्याओं के बाद इस शब्द का इस्तेमाल
काफी होने लगा. 10 से 15 लाख लोगों की हत्या का अनुमान है.
वह नरसंहार था या नहीं
था, इसे लेकर भी विवाद है. संयुक्त राष्ट्र के 34 सदस्य देश इसे
नरसंहार मानते हैं. इनमें अर्जेंटीना, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, मैक्सिको,
नीदरलैंड्स, पुर्तगाल, रूस, स्वीडन और अमेरिका शामिल हैं. भारत इनमें शामिल नहीं
है. दूसरी तरफ तीन देश अज़रबैजान, तुर्की और पाकिस्तान मानते हैं कि ऐसा कोई नरमेध
नहीं हुआ.
बोस्निया का नरसंहार
1993 में युगोस्लाविया संघीय गणराज्य (सर्बिया
और मोंटेनेग्रो) के खिलाफ बोस्निया की मुस्लिम आबादी के संदर्भ में आया था. बोस्निया
की राजधानी सारायेवो से 80 किलोमीटर दूर बसे स्रेब्रेनित्सासर्ब में जनरल रैट्को
म्लाडिच की कमान में सेना ने करीब आठ हजार लोगों की हत्या की. अदालत ने इसे
नरसंहार माना.
नरसंहार के बाद 15 साल तक जनरल रैट्को फरार
रहे। 26 मई 2011 को सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड के पास से उन्हें गिरफ्तार किया
गया। इसके बाद अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने उन्हें दोषी ठहराया.
इस बीच रोहिंग्या लोगों की हत्या का मामला
म्यांमार सरकार के खिलाफ और यूक्रेन में रूस के खिलाफ दो मामले अभी विचाराधीन हैं.
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